गढ़वाली संस्कृति की ‘सजीव अभिव्यक्ति’ हैं नरेन्द्र सिंह नेगी
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नरेन्द्र सिंह नेगी
14/01/202211:54 am
बीज छौं ईं धरति कू..
साहित्य में वे सभी कलाएं आदर पाती हैं। जिनका उद्देश्य जीवन को आनन्द और सुख से भरना होता है या यों कहिए कि साहित्य उस भाव को कहते हैं जो पुरातन से चांद में चांदनी और फूल में खुशबू की तरह निरंतर हमारे जीवन के साथ चला आता है। करूणा, वेदना, खुशी और यहाँ तक घृणा जैसे मनोभावों को जो व्यक्ति सुन्दर ललित कलाओं द्वारा व्यक्त करता है। उसे कलाकार कहते हैं और ऐसे कलाकार मानव समाज के लिए प्रभु के दिए हुए विशिष्ट उपहार होते हैं।
ऐसे ही एक विशिष्ट उपहार है उत्तराखण्डी लोक गीत/संगीत के पुरोधा श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी, चाहे घोर विपत्ति आयी हो या कोई सुखमयी क्षण, हम अपने रास्तों से विमुख हुए हों या कठोर आघातों से घायल, जीवन के झंझावात हों या निराश समाज के पांव जब भी डगमगाने लगे हों, जब भी समाज को जरूरत पड़ी हो तब-तब आरदणीय श्री नेगी जी ने अपने हृदयग्राही, ओजमयी और पौरूष भरे गीतों से हमें और इस हर पल बदलते समाज को जीवन जीने का साहस, दिशा व कला दी है।
जिस व्यक्ति ने अपने साहित्य, गीत, संगीत और अपने सौम्य, सरल आचरण से समाज को एक दिशा दी है, जिनका कृत्य लोकसंस्कृति, लोकसमाज, लोकसाहित्य और यहाँ तक कि लोकभावनाओं का एक बेजोड़ दस्तावेज बन गया हो, उस व्यक्ति के ऊपर कुछ लिखने को बार-2 मेरा मन व मेरी कलम डगमगाने लगती है। मगर यह भी जानता हूँ कि वे एक अच्छे समीक्षक व सच्चे आलोचक भी हैं। मुँह के सामने ही सुधार करने की प्रेरणा वे बड़ी सहजता से दे देते हैं। मैने कई कवि गोष्ठियों के उपरान्त भोजन सत्र में उन्हें नवोदित कवियों को उनकी रचनाओं पर सलाह देते हुए सुना है, यही उनके जीवन की विराटता है।
12 अगस्त 1949 को पौड़ी में उमराव सिंह नेगी और समुद्रा देवी के घर जन्में ‘नरू’ आज 67 वर्ष के नरेन्द्र सिंह नेगी हैं। बहुत सारे किस्से हैं, बहुत बड़ा संघर्ष है उनके जीवन में। चाहे एक बड़े बेटे के रूप में हो या परिवार की जिम्मेदारियों का सवाल हो वे कभी पीछे नहीं हटे, लेकिन साथ-2 उन्होंने अपनी सृजनशीलता को भी लगातार बनाये रखा। एक आम आदमी की तरह ही जीवन के झंझावातों ने उन्हें भी झकझोरा है। उनके जीवन की विकटता एक आम पहाड़ी व्यक्ति के जीवन की विकटता के रूप में उनके गीतों में परिलक्षित होती है, जिसे वो इस तरह से बयां करते हैं।
यखि ये माटअम जम्यूं मी भी
मेरि भि रै ब्वोटीं अंग्वाल
भारा खैरिका सरिनि मिल भी
मी भि हिट्युं उंदारी-उकाल
मेरा भि अपड़ा, पराया हर्चिनी
मेला-थौलों मा अचणचक
मी भि रोऊं भकोरा-भकोरी
आँसु आंख्यूँम रैनि जब तक
पिता श्री उमराव सिंह नेगी जी के आँखों के आॅपरेशन के लिए वे सन् 1974 में मिशनरी अस्पताल चैड़हपुर ;विकासनगरद्ध देहरादून गए थे, और कहा जाता है कि यहीं से उनकी कलम से पहले गीत का सृजन हुआ जो आज भी जीवंत है और कालजयी बना रहेगा, उनका पहला गीत यह था।
सैरा बसग्याÿ बणू मा रूड़ी कुटण मा ह्यूंद पीसी बीतैनी, म्यारा सदानी यनी दिन रैनी
उनकी यह रचना उम्र के 25-26 वें बसंत में प्रस्फुटित हुई, मगर यह उनकी शुरूआत नहीं थी। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि उनकी सृजनशीलता तो इससे पहले ही विकसित हो चुकी थी। भाषा के प्रति उनका प्यार और लगाव तभी द्रष्टव्य हो गया था जब सन् 1968 में वे मात्र 19 साल के थे और भाषा आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के दौरान उन्हें 65 दिन सेंट्रल जेल बिजनौर में रहना पड़ा, आज 67 वर्ष की आयु में भी वे इस मशाल को थामे सबसे आगे खड़े हैं।
नरेन्द्र सिंह नेगी एक अकादमी, नरेन्द्र सिंह नेगी उत्तराखण्ड की जन अभिव्यक्ति, नरेन्द्र सिंह नेगी उत्तराखण्ड के दर्पण, गढ़वाली भाषा के की-बोर्ड हैं नरेन्द्र सिंह नेगी, गढ़वाली संस्कृति की ‘जिंदा किंवदंती’ है नरेन्द्र सिंह नेगी, एक आदमी नहीं, मुकम्मल बयान हैं नेगी जी, लोक की अस्मिता का रख्वÿा छिन नेगी जी, लोकजीवन की अन्वार छन नेगी जी, शब्दों की टकसाल हैं नेगी जी, गढ़वाली भाषा के मानक हैं नेगी जी, उत्तराखण्ड के सबसे बड़े जननायक हैं नेगी जी, लोक संस्कृृति, लोकपरंपरा, रीति-रिवाज के संवाहक हैं नेगी जी, गढ़वाली गीत संगीत में पुनर्जागरण करने वाले कलाकार हैं नेगी जी, गढ़वाली गीत-संगीत के श्लाका पुरूष हैं नेगी जी, अनगिनत उपमाओं से नवाजा है उन्हें उनके प्रशंसकों ने, मगर उन्होंने कभी भी जमीन नहीं छोड़ी। लोक से सीखना नहीं छोड़ा। न अपना अभ्यास छोड़ा और न अपनी शालीनता व रचनात्मकता।
कहते हैं कि अपने आप से असंतोष किसी भी रचनाधर्मी को निरंतर रचनाशील बनाये रखता है। सक्रिय बनाये रखता है। असंतोष सृजनात्मकता के लिए जरूरी है। तभी तो नेगी जी अपने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ को अभी आना बाकि बताते हैं। कुछ करने और नया करने की कितनी ललक अभी भी उनके अंदर बची है। यह उनकी भावना, कर्मठता व सक्रियता से साफ-2 दृष्टिगोचर हो जाती है।
लोकमाटी से चुन-चुन कर उठाये गए श्रुतिमधुर शब्दों को अपने गीतों की माला में पिरोकर जब भी नेगी जी ने अपने मधुर कंठ से इन गीतों को जान दी है तो हर व्यक्ति हर समाज खुद को इन में पाता है। क्या नहीं है इनके गीतों में और कौन सा ऐसा प्रसंग है जिसको इन्होंने छोड़ा होगा? पहाड़ के विकट जीवन को भोगती बेटी-ब्वारी की खैरि हो या पहाड़ सा बुढ़ापा झेलते वृ(जनों की कथा-व्यथा, बाघ का आतंक हो या फिर दूर परदेश खाने-कमाने गए व्यक्ति की विकटता और उस पति की विरह-वेदना को उकेरती पहाड़ की नारी की पीड़ा। प्रकृति, पलायन, अशिक्षा, विस्थापन, शराब, राजधानी, भ्रष्ट राजनीति, रोजगार, उत्तराखण्ड आंदोलन, पर्यावरण, इतिहास, भूख, प्यास, याद, प्रेम, ईश्वर, सुख, दुख, परिवार नियोजन, जिम्मेदारी, अंधविश्वास या फिर हास-परिहास हर मसले को इन्होंने अपने समधुर कंठ की चासनी में डुबो-डुबोकर रसमय बनाकर ही प्रस्तुत किया है। उनका यह गीत ‘क्या कन्न तब’ मुझे सबसे ज्यादा स्पर्श करता है जिसमें सुन्दर रूपकों के साथ-2 प्रतीकों का भी बड़ी कुशलता से प्रयोग किया गया है।
मन्नू औणान सैंत्या गोर
पÿ्याँ कुकुर गुर्राणा छिन
जौंका बाना बिसरू हैंसुणू
वी अपड़ा रूआँणा छिन
निसाब अपुडू अफ्वी जब क्वी निकै जाणी
क्या कन्न तब।
जु ल्हीगी पैंछु ह्यूंद्यू घाम
रूड़ी आई लौटाणू चोरी
चैन ज्वानिम् जैन
बुढ़ेदाँ राई सौं
खाणू निसाब अपुुडु..
उनके गीतों में पहाड़ के विकास के सपने झलकते हैं। आस, उम्मीद और बदलाव के सुन्दर सपने महकते हैं। लोकमाटी के प्रति उनकी बेचैनी प्रस््फुटित होकर हमेशा ही एक नयी दिशा बनी है। यही कारण है कि भौगोलिक सीमाओं को लांघने के बावजूद भी पहाड़ के हर व्यक्ति ने उनका साथ नहीं छोड़ा। नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीत भी बेटिकट उनके साथ सुदूर सीमा पार आते-जाते रहे हैं। और आते-जाते रहेंगे। लोकमाटी के प्रति उनकी संवेदना कुछ इस तरह से फूट पड़ती है।
भटकुणू छौं सोर्गमा, बाटू खोज्याणू छौं दिदौं
बीज छौं ईं धरति कू, माटू खोज्याणू छौं दिदौं।
अतीत की लोकसंस्कृति की जगमगाहट को संजोए उनके गीत और वर्तमान की कथा-व्यथा को उकेरते उनके एक-एक शब्द आज एक पूंजी के रूप में हमारे पास हैं। पहाड़ के लोकजीवन की गाथा गाता एक-एक शब्द इनके गीतों में धड़कता है। बाघ के आतंक की पीड़ा से उपजा यह गीत आज भी मैं बरबस गुनगुनाता रहता हूँ।
बन्दुक्या जसपाल राणा सिस्त साधी दे,
निसणु साधि दे, उत्तराखण्ड मा बाघ लग्युं, बाघ मारी दे, मनस्वाग मारि दे।
नथूल्यों गले कि तैंई, सुनाका मेडल द्युन्ला,
बच्यां रौल्ला जब तलक, राणा तेरैं नाम ल्युन्ला।
आतंकबादी ये बाघ की भी सेक्की झाड़ दे।
प्रेम पर आधारित गीत नेगी जी ने बड़े निराले ढंग से गाए हैं, हर गीत में एक नया बिम्ब, प्रतीक और रूपक देखने को मिलता है। शालीनता, मर्यादा की सीमा उन्होंने कभी भी पार नहीं की देखिए।
कबि चुलु जगौंदी बखत आई
कबि द्यू जगौंदी बखत आई
नि घुटेयी फ्येर गफा, तुमारी याद
खांदी बखत आई।
या फिर इस सुन्दर अलंकारिक गीत को देखिए
ज्वानिमा जरासी हैंसि खत्ये छै,
उमर भर आँसू टिप्दि गयूँ।
खैरिक अंधेरों मा खोजायूँ बाटू
सुख का उजाÿामा बिर्डि गयूँ
रूप का फेणमा सेंवाÿू नि देखि
खस्स रौंड़ू अर रड़दि गयूँ
खैरिक……..
द्यब्तौंमा कबि घुण्डा नी टेक्या
तुम खुणि मंदिरि सि पसरि गयूँ,
खैरिक…
अपने गाये जनगीतों में उन्होंने सुन्दर शब्दावली का प्रयोग किया है, हिकमत, पस्यों, जुलुम, मुछाÿा, अंगार, धज्जा, निसाण, उदंकार, मुठग्यून, ज्यूंदाÿ, हतकड़ी, बिल्ला, किलक्वार जैसे शब्दों का कमाल उनके जनगीतों में देखा जा सकता है। यही कारण है। कि आज उनके जनगीत विभिन्न अवसरों पर गाये जाते हैं, इसकी एक बानगी देखिए –
भीम अर्जुन अर जुधिष्ठर
छिन सिंया तुमारि भुजों मा,
मारा किलक्वार जगा
पण्डों नचाणो बग्त ऐगे।
कवि वीरेन्द्र पंवार उनके बारे में लिखते हैं कि नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीत पहाड़ी लोकगीत की व्यथा, उसके संघर्षों, उसकी खुशियों और तमाम सरोकारों से गहरे जुड़े हैं, इसीलिए पहाड़ के हर शख्स को वो अपने से लगते हैं- यही नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों की ताकत है। वो अपने श्रोताओं के साथ संवेदना के स्तर तक जुड़े हैं, पहाड़ के प्रवासियों में अगर अपनी माटी की ‘खुद’ बढ़ी है तो इसकी बड़ी वजह नरेन्द्र सिंह नेगी और उनके गीत हैं।
वरष्ठि साहित्यकार नरेन्द्र कठैत लिखते हैं कि नरेन्द्र सिंह नेगी जी को पद्मश्री या पद्विभूषण सम्मान मिले इस बात पर अकसर बहसे उठती रहती हैं पर नरेन्द्र कठैत का यह मानना है कि आज नेगी जी का कार्य इस पुरस्कार के वजूद से भी ऊपर उठ गया है। वे कहते हैं कि गांधी जी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला, पर तब भी उनके सम्मान में कोई कमी नहीं आयी, आज गांधी जी का सम्मान देश और दुनिया में नोबेल पुरस्कार से भी कई गुना ऊपर है और यही बात नेगी जी पर भी लागू होती है। वास्तव में उनका लेखन और गायन कभी भी सामाजिक प्रतिब(ता और सक्रियता से अलग नहीं रहा है। उनके शब्द उनकी भावनाएं और समाज को प्रतिफल दिया जाने वाला उनका योगदान हमेशा ही याद किया जाएगा। अपने गीतों से उन्होंने केवल मनोरंजन नहीं किया बल्कि समाज को सच्चे जीवंत मूल्यों का सहजता से बोध भी कराया है।
सदी के इस महानायक को हम शत-शत प्रणाम करते हैं।
गढ़वाली संस्कृति की ‘सजीव अभिव्यक्ति’ हैं नरेन्द्र सिंह नेगी
दस्तक पहाड़ की से ब्रेकिंग न्यूज़:
भारत में सशक्त मीडिया सेंटर व निष्पक्ष पत्रकारिता को समाज में स्थापित करना हमारे वेब मीडिया न्यूज़ चैनल का विशेष लक्ष्य है। खबरों के क्षेत्र में नई क्रांति लाने के साथ-साथ असहायों व जरूरतमंदों का भी सभी स्तरों पर मदद करना, उनको सामाजिक सुरक्षा देना भी हमारे उद्देश्यों की प्रमुख प्राथमिकताओं में मुख्य रूप से शामिल है। ताकि सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय की संकल्पना को साकार किया जा सके।
[caption id="attachment_24041" align="aligncenter" width="368"] बीज छौं ईं धरति कू..[/caption]
साहित्य में वे सभी कलाएं आदर पाती हैं। जिनका उद्देश्य जीवन को आनन्द और सुख से भरना होता है या यों कहिए कि साहित्य उस भाव को कहते हैं जो पुरातन से चांद में
चांदनी और फूल में खुशबू की तरह निरंतर हमारे जीवन के साथ चला आता है। करूणा, वेदना, खुशी और यहाँ तक घृणा जैसे मनोभावों को जो व्यक्ति सुन्दर ललित कलाओं
द्वारा व्यक्त करता है। उसे कलाकार कहते हैं और ऐसे कलाकार मानव समाज के लिए प्रभु के दिए हुए विशिष्ट उपहार होते हैं।
ऐसे ही एक विशिष्ट उपहार है उत्तराखण्डी लोक गीत/संगीत के पुरोधा श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी, चाहे घोर विपत्ति आयी हो या कोई सुखमयी क्षण, हम अपने रास्तों से
विमुख हुए हों या कठोर आघातों से घायल, जीवन के झंझावात हों या निराश समाज के पांव जब भी डगमगाने लगे हों, जब भी समाज को जरूरत पड़ी हो तब-तब आरदणीय श्री नेगी जी ने
अपने हृदयग्राही, ओजमयी और पौरूष भरे गीतों से हमें और इस हर पल बदलते समाज को जीवन जीने का साहस, दिशा व कला दी है।
जिस व्यक्ति ने अपने साहित्य, गीत, संगीत और अपने सौम्य, सरल आचरण से समाज को एक दिशा दी है, जिनका कृत्य लोकसंस्कृति, लोकसमाज, लोकसाहित्य और यहाँ तक कि
लोकभावनाओं का एक बेजोड़ दस्तावेज बन गया हो, उस व्यक्ति के ऊपर कुछ लिखने को बार-2 मेरा मन व मेरी कलम डगमगाने लगती है। मगर यह भी जानता हूँ कि वे एक अच्छे
समीक्षक व सच्चे आलोचक भी हैं। मुँह के सामने ही सुधार करने की प्रेरणा वे बड़ी सहजता से दे देते हैं। मैने कई कवि गोष्ठियों के उपरान्त भोजन सत्र में उन्हें
नवोदित कवियों को उनकी रचनाओं पर सलाह देते हुए सुना है, यही उनके जीवन की विराटता है।
12 अगस्त 1949 को पौड़ी में उमराव सिंह नेगी और समुद्रा देवी के घर जन्में ‘नरू’ आज 67 वर्ष के नरेन्द्र सिंह नेगी हैं। बहुत सारे किस्से हैं, बहुत बड़ा संघर्ष है उनके
जीवन में। चाहे एक बड़े बेटे के रूप में हो या परिवार की जिम्मेदारियों का सवाल हो वे कभी पीछे नहीं हटे, लेकिन साथ-2 उन्होंने अपनी सृजनशीलता को भी लगातार बनाये
रखा। एक आम आदमी की तरह ही जीवन के झंझावातों ने उन्हें भी झकझोरा है। उनके जीवन की विकटता एक आम पहाड़ी व्यक्ति के जीवन की विकटता के रूप में उनके गीतों में
परिलक्षित होती है, जिसे वो इस तरह से बयां करते हैं।
यखि ये माटअम जम्यूं मी भी
मेरि भि रै ब्वोटीं अंग्वाल
भारा खैरिका सरिनि मिल भी
मी भि हिट्युं उंदारी-उकाल
मेरा भि अपड़ा, पराया हर्चिनी
मेला-थौलों मा अचणचक
मी भि रोऊं भकोरा-भकोरी
आँसु आंख्यूँम रैनि जब तक
पिता श्री उमराव सिंह नेगी जी के आँखों के आॅपरेशन के लिए वे सन् 1974 में मिशनरी अस्पताल चैड़हपुर ;विकासनगरद्ध देहरादून गए थे, और कहा जाता है कि यहीं से उनकी कलम
से पहले गीत का सृजन हुआ जो आज भी जीवंत है और कालजयी बना रहेगा, उनका पहला गीत यह था।
सैरा बसग्याÿ बणू मा रूड़ी कुटण मा ह्यूंद पीसी बीतैनी, म्यारा सदानी यनी दिन रैनी
उनकी यह रचना उम्र के 25-26 वें बसंत में प्रस्फुटित हुई, मगर यह उनकी शुरूआत नहीं थी। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि उनकी सृजनशीलता तो इससे पहले ही विकसित हो
चुकी थी। भाषा के प्रति उनका प्यार और लगाव तभी द्रष्टव्य हो गया था जब सन् 1968 में वे मात्र 19 साल के थे और भाषा आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के दौरान उन्हें 65
दिन सेंट्रल जेल बिजनौर में रहना पड़ा, आज 67 वर्ष की आयु में भी वे इस मशाल को थामे सबसे आगे खड़े हैं।
नरेन्द्र सिंह नेगी एक अकादमी, नरेन्द्र सिंह नेगी उत्तराखण्ड की जन अभिव्यक्ति, नरेन्द्र सिंह नेगी उत्तराखण्ड के दर्पण, गढ़वाली भाषा के की-बोर्ड हैं
नरेन्द्र सिंह नेगी, गढ़वाली संस्कृति की ‘जिंदा किंवदंती’ है नरेन्द्र सिंह नेगी, एक आदमी नहीं, मुकम्मल बयान हैं नेगी जी, लोक की अस्मिता का रख्वÿा छिन नेगी
जी, लोकजीवन की अन्वार छन नेगी जी, शब्दों की टकसाल हैं नेगी जी, गढ़वाली भाषा के मानक हैं नेगी जी, उत्तराखण्ड के सबसे बड़े जननायक हैं नेगी जी, लोक संस्कृृति,
लोकपरंपरा, रीति-रिवाज के संवाहक हैं नेगी जी, गढ़वाली गीत संगीत में पुनर्जागरण करने वाले कलाकार हैं नेगी जी, गढ़वाली गीत-संगीत के श्लाका पुरूष हैं नेगी जी,
अनगिनत उपमाओं से नवाजा है उन्हें उनके प्रशंसकों ने, मगर उन्होंने कभी भी जमीन नहीं छोड़ी। लोक से सीखना नहीं छोड़ा। न अपना अभ्यास छोड़ा और न अपनी शालीनता व
रचनात्मकता।
कहते हैं कि अपने आप से असंतोष किसी भी रचनाधर्मी को निरंतर रचनाशील बनाये रखता है। सक्रिय बनाये रखता है। असंतोष सृजनात्मकता के लिए जरूरी है। तभी तो नेगी
जी अपने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ को अभी आना बाकि बताते हैं। कुछ करने और नया करने की कितनी ललक अभी भी उनके अंदर बची है। यह उनकी भावना, कर्मठता व सक्रियता से
साफ-2 दृष्टिगोचर हो जाती है।
लोकमाटी से चुन-चुन कर उठाये गए श्रुतिमधुर शब्दों को अपने गीतों की माला में पिरोकर जब भी नेगी जी ने अपने मधुर कंठ से इन गीतों को जान दी है तो हर व्यक्ति हर
समाज खुद को इन में पाता है। क्या नहीं है इनके गीतों में और कौन सा ऐसा प्रसंग है जिसको इन्होंने छोड़ा होगा? पहाड़ के विकट जीवन को भोगती बेटी-ब्वारी की खैरि हो
या पहाड़ सा बुढ़ापा झेलते वृ(जनों की कथा-व्यथा, बाघ का आतंक हो या फिर दूर परदेश खाने-कमाने गए व्यक्ति की विकटता और उस पति की विरह-वेदना को उकेरती पहाड़ की नारी
की पीड़ा। प्रकृति, पलायन, अशिक्षा, विस्थापन, शराब, राजधानी, भ्रष्ट राजनीति, रोजगार, उत्तराखण्ड आंदोलन, पर्यावरण, इतिहास, भूख, प्यास, याद, प्रेम, ईश्वर, सुख,
दुख, परिवार नियोजन, जिम्मेदारी, अंधविश्वास या फिर हास-परिहास हर मसले को इन्होंने अपने समधुर कंठ की चासनी में डुबो-डुबोकर रसमय बनाकर ही प्रस्तुत किया है।
उनका यह गीत ‘क्या कन्न तब’ मुझे सबसे ज्यादा स्पर्श करता है जिसमें सुन्दर रूपकों के साथ-2 प्रतीकों का भी बड़ी कुशलता से प्रयोग किया गया है।
मन्नू औणान सैंत्या गोर
पÿ्याँ कुकुर गुर्राणा छिन
जौंका बाना बिसरू हैंसुणू
वी अपड़ा रूआँणा छिन
निसाब अपुडू अफ्वी जब क्वी निकै जाणी
क्या कन्न तब।
जु ल्हीगी पैंछु ह्यूंद्यू घाम
रूड़ी आई लौटाणू चोरी
चैन ज्वानिम् जैन
बुढ़ेदाँ राई सौं
खाणू निसाब अपुुडु..
उनके गीतों में पहाड़ के विकास के सपने झलकते हैं। आस, उम्मीद और बदलाव के सुन्दर सपने महकते हैं। लोकमाटी के प्रति उनकी बेचैनी प्रस््फुटित होकर हमेशा ही एक
नयी दिशा बनी है। यही कारण है कि भौगोलिक सीमाओं को लांघने के बावजूद भी पहाड़ के हर व्यक्ति ने उनका साथ नहीं छोड़ा। नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीत भी बेटिकट
उनके साथ सुदूर सीमा पार आते-जाते रहे हैं। और आते-जाते रहेंगे। लोकमाटी के प्रति उनकी संवेदना कुछ इस तरह से फूट पड़ती है।
भटकुणू छौं सोर्गमा, बाटू खोज्याणू छौं दिदौं
बीज छौं ईं धरति कू, माटू खोज्याणू छौं दिदौं।
अतीत की लोकसंस्कृति की जगमगाहट को संजोए उनके गीत और वर्तमान की कथा-व्यथा को उकेरते उनके एक-एक शब्द आज एक पूंजी के रूप में हमारे पास हैं। पहाड़ के लोकजीवन
की गाथा गाता एक-एक शब्द इनके गीतों में धड़कता है। बाघ के आतंक की पीड़ा से उपजा यह गीत आज भी मैं बरबस गुनगुनाता रहता हूँ।
बन्दुक्या जसपाल राणा सिस्त साधी दे,
निसणु साधि दे, उत्तराखण्ड मा बाघ लग्युं, बाघ मारी दे, मनस्वाग मारि दे।
नथूल्यों गले कि तैंई, सुनाका मेडल द्युन्ला,
बच्यां रौल्ला जब तलक, राणा तेरैं नाम ल्युन्ला।
आतंकबादी ये बाघ की भी सेक्की झाड़ दे।
प्रेम पर आधारित गीत नेगी जी ने बड़े निराले ढंग से गाए हैं, हर गीत में एक नया बिम्ब, प्रतीक और रूपक देखने को मिलता है। शालीनता, मर्यादा की सीमा उन्होंने कभी
भी पार नहीं की देखिए।
कबि चुलु जगौंदी बखत आई
कबि द्यू जगौंदी बखत आई
नि घुटेयी फ्येर गफा, तुमारी याद
खांदी बखत आई।
या फिर इस सुन्दर अलंकारिक गीत को देखिए
ज्वानिमा जरासी हैंसि खत्ये छै,
उमर भर आँसू टिप्दि गयूँ।
खैरिक अंधेरों मा खोजायूँ बाटू
सुख का उजाÿामा बिर्डि गयूँ
रूप का फेणमा सेंवाÿू नि देखि
खस्स रौंड़ू अर रड़दि गयूँ
खैरिक........
द्यब्तौंमा कबि घुण्डा नी टेक्या
तुम खुणि मंदिरि सि पसरि गयूँ,
खैरिक...
अपने गाये जनगीतों में उन्होंने सुन्दर शब्दावली का प्रयोग किया है, हिकमत, पस्यों, जुलुम, मुछाÿा, अंगार, धज्जा, निसाण, उदंकार, मुठग्यून, ज्यूंदाÿ, हतकड़ी,
बिल्ला, किलक्वार जैसे शब्दों का कमाल उनके जनगीतों में देखा जा सकता है। यही कारण है। कि आज उनके जनगीत विभिन्न अवसरों पर गाये जाते हैं, इसकी एक बानगी देखिए -
भीम अर्जुन अर जुधिष्ठर
छिन सिंया तुमारि भुजों मा,
मारा किलक्वार जगा
पण्डों नचाणो बग्त ऐगे।
कवि वीरेन्द्र पंवार उनके बारे में लिखते हैं कि नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीत पहाड़ी लोकगीत की व्यथा, उसके संघर्षों, उसकी खुशियों और तमाम सरोकारों से गहरे
जुड़े हैं, इसीलिए पहाड़ के हर शख्स को वो अपने से लगते हैं- यही नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों की ताकत है। वो अपने श्रोताओं के साथ संवेदना के स्तर तक जुड़े हैं,
पहाड़ के प्रवासियों में अगर अपनी माटी की ‘खुद’ बढ़ी है तो इसकी बड़ी वजह नरेन्द्र सिंह नेगी और उनके गीत हैं।
वरष्ठि साहित्यकार नरेन्द्र कठैत लिखते हैं कि नरेन्द्र सिंह नेगी जी को पद्मश्री या पद्विभूषण सम्मान मिले इस बात पर अकसर बहसे उठती रहती हैं पर नरेन्द्र
कठैत का यह मानना है कि आज नेगी जी का कार्य इस पुरस्कार के वजूद से भी ऊपर उठ गया है। वे कहते हैं कि गांधी जी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला, पर तब भी उनके सम्मान
में कोई कमी नहीं आयी, आज गांधी जी का सम्मान देश और दुनिया में नोबेल पुरस्कार से भी कई गुना ऊपर है और यही बात नेगी जी पर भी लागू होती है। वास्तव में उनका लेखन
और गायन कभी भी सामाजिक प्रतिब(ता और सक्रियता से अलग नहीं रहा है। उनके शब्द उनकी भावनाएं और समाज को प्रतिफल दिया जाने वाला उनका योगदान हमेशा ही याद किया
जाएगा। अपने गीतों से उन्होंने केवल मनोरंजन नहीं किया बल्कि समाज को सच्चे जीवंत मूल्यों का सहजता से बोध भी कराया है।
सदी के इस महानायक को हम शत-शत प्रणाम करते हैं।
[caption id="attachment_24042" align="alignnone" width="90"] सुधीर बर्त्वाल[/caption]
मो0-9639618376