सदियों से प्रकृति प्रदत वन्यता में मस्त तरीके से जीने वाले उत्तराखण्डी जन-जीवन की आत्मनिर्भरता को बाहरी सत्ता ने निरंतर कमजोर करने का प्रयास किया (और, यह क्रम आज भी जारी है)। बीसवीं सदी तक अपने आप में ही आत्ममुग्ध यह चुप समाज इससे किसी हद तक बेखबर तो था पर उसके अवचेतन मन-मस्तिष्क में प्रतिरोध की सुगबुगाहट हमेशा जीवंत रहती थी।उत्तराखण्डी समाज की संप्रभुता, संपूर्णता, सामाजिकता, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भता को जब भी ठेस पहुंचती, तो वह पहाड़ी सख्त चटटान से अचानक फूटने वाले झरने सी होती। तत्कालीन सत्तायें स्थानीय समाज के प्रतिरोध को तात्कालिक रूप में रोक जरूर देती पर समाज का रोष अपनी जगह जीवंत रहता।

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युवा मित्र गजेन्द्र रौतेला की संस्कृति प्रकाशन, अगस्तमुनि (केदारघाटी) से नवीन प्रकाशित किताब ‘उत्तराखण्ड के जनान्दोलन’ इसी पृष्ठभूमि को सामने लायी है। यह किताब उत्तराखंड में 19वीं और 20वीं शताब्दी के ऐतिहासिक आन्दोलनों के कई महत्वपूर्ण आयामों और उसके अनाम नायकों को सामने लाई है, जिन पर पूर्व अध्येयताओं की नज़र नहीं पड़ी है।उत्तराखण्ड में बिट्रिश सत्ता के विरोध के मुख्य सूत्रधार वन और कुली बेगार के आन्दोलन थे। तत्कालीन समाचार-पत्र, पत्रिकायें और सरकारी रिर्पोट इसकी पुष्टि करते हैं। टिहरी रियासत के विरुद्ध 30 मई, 1930 के ‘तिलाड़ी विद्रोह’ के मूल में स्थानीय जनता द्वारा जंगलों पर अपने परंपरागत अधिकारों को बचाना था। उस काल में ग्रामीण जनता का सबसे बड़ा और नजदीकी शत्रु जगंलात महकमा था। ग्रामीणों को जब भी मौका मिलता वे अपना विरोध प्रकट करते थे। सन् 1916 में कुमाऊं परिषद के गठन के बाद सरकार की तमाम जन - विरोधी नीतियों का विरोध अधिक संगठित और व्यापक तरीके से होने लगा था।स्वतंत्रता के बाद उत्तराखण्ड में अधिकांश सामाजिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता सर्वोदयी आवरण में रही। सर्वोदयी अपने राष्ट्रीय अभियान भूदान और नशाबंदी से अभिप्रेरित थे। परन्तु, सत्ताधारी कांग्रेस से प्रभावित सर्वोदयी पहाड़ की ज़मीन, जंगल और जल नीतियों का प्रारंभिक और सीधा विरोध नहीं कर पाये। ऐसे मेें साम्यवादी और समाजवादी कार्यकर्ताओं ने पहाड़ी जमीन और जंगल के प्रश्नों को उठाया था।नवीन पुस्तक ‘उत्तराखण्ड के जनान्दोलन’ में गजेन्द्र रौतेला ने उत्तराखण्ड में विभिन्न काल-खण्डों में उभरे आन्दोलनों पर पूर्व में लिखे अग्रणी लेखों का कुशलता से संपादन किया है। ऐसे 29 आन्दोलनों को उन्होने इस किताब की विषय-सामाग्री में शामिल किया है। देश की आजादी के लिए सन् 1857 के विद्रोह के उत्तराखंडी नायक कालू महर, बिशन सिंह और आनंद सिंह का जिक्र इस किताब को गरिमा देती है। वन नीति, कुली बेगार, डोला-पालकी, प्रजामंडल, शराब, विश्वविद्यालय, चिपको, झपटो-छीनो, टिहरी बांध, चकबन्दी, बलिप्रथा, गौरीकुण्ड मजदूर, नशा नहीं-रोजगार दो, पृथक राज्य, गैरसैण राजधानी, फलेण्डा, मैती, पाणी राखो, नदी बचाओ, लोक-भाषा और अन्य भूले-बिसरे आन्दोलनों की सारगर्भित जानकारी को किताब में लाया गया है। यह प्रिय गजेन्द्र रौतेला के एकाग्रचित्त होकर कडे़ शोधपरख कार्य और प्रयास से ही संभव हुआ है।वास्तव में, यह किताब उत्तराखण्ड के विगत दो शताब्दियों में हुए प्रमुख आन्दोलनों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। विभिन्न आन्दोलनों को लेखकों ने उसे कई अभिनव प्रयोगों से सजीवता प्रदान की है। तथ्यों एवं बातों को आगे बढ़ाने में आन्दोलन के दौर में रचे एवं गाये गये गीत और कविताओं का सटीक संदर्भो के साथ उल्लेख करना किताब को सहजता और रोचकता प्रदान करती है। ऐसे कठिन दौर में जब हम अपने और अग्रजों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षिक उपलब्धियों की व्यवहारिकता पर प्रश्न-चिन्ह् लगाने के दौर में हैं। आम उत्तराखण्डी जन के जेहन में यह सवाल हर समय तैरता रहता है कि, क्या यही वह राज्य है जिसके लिए वह संघर्षरत हुआ था? जीवन की गणित में कहीं वह गलती तो नहीं कर बैठा? राज्य में विकास का जो प्रवाह है, उसमें स्थानीय हितों का लोप होना आज के नियन्ताओं की चिन्ता में क्यों नहीं शामिल है? शिक्षा, स्वास्थय और रोजगार में हम लुटे-पिटे से क्यों दिखाई दे है? आज की जवान पीढी अपनी सांस्कृतिक विरासत से क्यों विमुख हो रही है? ऐसे ही कई प्रश्नों से लदा-फदा आम जन का मन मुड-मुड कर उत्तराखण्ड में हुए तमाम जन - आन्दोलनों की तहक़ीकात में जाना चाहता है। यह किताब इन्ही यक्ष प्रश्नों के उत्तर में हाज़िर हुई है। यह किताब बताती है कि कोई भी समाज सत्ता की ’हां में हां‘ से आगे नहीं बढ़ता वरन उस समाज की सत्ता से ‘ना तो ना‘ की ताकत से ही सम्पन्न, सुखी और शक्तिशाली बनता है। इसलिए, सामाजिक -राजनैतिक आन्दोलनों में ‘ना तो ना‘ की ताकत जब तक रहेगी, तब तक जनता का निर्णय सत्ता के लिए हमेशा शिरोधार्य रहेगा। किताब का यह संदेश (विशेषकर युवाओं) भी है कि उत्तराखंडी समाज में आज जो आज़ादी से सुख-सुविधायें और अवसर विद्यमान हैं, उसके लिए हमारे पूर्वजों और अग्रजों ने समय-समय पर लम्बी लड़ाई लड़ी। अतः हमें अपने जीवन की पग-पग सफलता के समय उनके बलिदानों को सम्मानपूर्वक याद रखना चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि, उत्तराखण्ड को जानने और उसके वर्तमान समसामयिक मुद्दों को समझने के लिए यह किताब एक प्रमाणिक संदर्भ साहित्य के रूप में प्रकाशित हुई है। प्रिय गजेन्द्र रौतेला और संस्कृति प्रकाशन, अगस्तमुनि (केदारघाटी) की टीम को इसके लिए आत्मीय बधाई और शुभकामना। डॉ अरुण कुकसाल