नेता जी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज (आइएनए) का उत्तराखण्ड से गहरा नाता रहा है। हालांकि दावा तो यहां तक किया गया था कि नेताजी ने साधु वेश में 1977 तक अपना शेष जीवन देहरादून में ही बिताया था। उनके प्रवास की सच्चाई जो भी हो, मगर यह बात निर्विवाद सत्य है कि आजाद हिन्द फौज बनाने की प्रेरणा उन्हें देहरादून के राजा महेन्द्र प्रताप सिंह से और पेशावर काण्ड के हीरो चन्द्र सिंह गढ़वाली से मिली और उनकी फौज को शक्ति गढ़वालियों की दो बटालियनों ने भी दी।
इंडियन नेशनल आर्मी (आइएनए) का गठन रास बिहारी बोस ने जापान में 1942 में कर लिया था और रास बिहारी भी देहरादून के फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में हेड क्लर्क थे। रास बिहारी 12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली में वायसराय लाॅर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के मामले में वांछित होने पर देहरादून से भाग कर जापान चले गए थे।
महेन्द्र प्रताप सिंह से भी मिली प्रेरणा नेताजी को—
एक के बाद एक जांच समितियों और आयोगों के गठन के बाद भी भले ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु की असलियत सामने नहीं आ पाई हो, मगर उनके जीवन की अंतिम लड़ाई में उत्तराखण्ड के कनेक्शन से इंकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि नेताजी ने निर्वासित ‘आजाद हिन्द सरकार’ का गठन 21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर में किया था और उस सरकार की राजधानी को 7 जनवरी, 1944 को सिंगापुर से रंगून स्थानान्तरित किया गया लेकिन इससे पहले आजाद भारत की निर्वासित सरकार का गठन राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने काबुल में 1915 में कर दिया था। उनके प्रधान मंत्री बरकतुल्ला थे।
क्रांतिकारी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में मुसान के राजा थे, लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियां चलाने के लिए वे देहरादून आ गए थे। उनकी रियासत को भी अंग्रेजों ने नीलाम कर दिया था। उन्होंने 1914 में देहरादून से ‘निर्बल सेवक’ नाम का अखबार निकाला जो आजादी समर्थक था। इसलिए महेन्द्र प्रताप को भारत से भागना पड़ा और तब जाकर उन्होंने अफगानिस्तान में आजाद भारत की निर्वासित सरकार बनाई थी। वे 1946 में भारत लौटे और शेष जीवन देहरादून के राजपुर रोड में बिताया।
नेताजी को चन्द्र सिंह गढ़वाली ने प्रभावित किया—
सन् 1930 में हुआ पेशावर काण्ड भी नेताजी के लिए प्रेरणादायक बना और उस काण्ड में चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों द्वारा निहत्थे आंदोलनकारी पठानों पर गोलियां बरसाने से इंकार किए जाने की घटना ने नेताजी को भरोसा दिला दिया कि गढ़वाली सैनिक राष्ट्रवादी हैं और मातृभूमि की आजादी के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का वर्चस्व—
दरअसल, आजाद हिन्द फौज (आइएनए) में गढ़वाल रायफल्स की दो बटालियन (2600 सैनिक) शामिल थीं। इनमें से 600 से अधिक सैनिक ब्रिटिश सेना से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे। आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल रायफल्स के गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व करने वाले इन तीन जांबाज कमाण्डरों में कर्नल चन्द्र सिंह नेगी, कर्नल बुद्धिसिंह रावत और कर्नल पितृशरण रतूड़ी थे।जनरल मोहन सिंह के सेनापतित्व में गठित आजाद हिन्द फौज की गढ़वाली अफसरों और सैनिकों की दो बटालियनें बनाई गईं थीं। इनमें से एक सेकेण्ड गढ़वाल की कमान कैप्टन बुद्धिसिंह रावत को और 5वीं गढ़वाल रायफल्स की कमान कैप्टन पितृ शरण रतूड़ी को सौंपी गई। कैप्टन चन्द्र सिंह नेगी को ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल में सीनियर इंस्ट्रक्टर बनाया गया। बाद में उन्हें आइएनए के आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल सिंगापुर का कमाण्डेट बना दिया गया। इन तीनों को बाद में एकसाथ पदोन्नति दे कर मेजर और फिर ले. कर्नल बना दिया गया।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गढ़वाली सैनिकों को बहुत पसंद करते थे। उन्होंने मेजर बुद्धिसिंह रावत को अपने व्यक्तिगत स्टाफ का एडज्यूटैण्ट और रतूड़ी को गढ़वाली यूनिट का कमांडैण्ट बना दिया था। इसी तरह मेजर देवसिंह दानू पर्सनल गार्ड बटालियन के कमांडर के तौर पर तैनात थे।
आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का शौर्य—
इन तीन अफसरों के अलावा लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट, कैप्टन महेन्द्र सिंह बागड़ी, मेजर पद्मसिंह गुसाईं और मेजर देवसिंह दानू की भी अपनी दिलेरी और निष्ठा के चलते आजाद हिन्द फौज में काफी धाक रही। लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट जब 17 मार्च, 1945 को टौंगजिन के मोर्चे पर अपनी टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे तो उनके पास केवल 98 गढ़वाली सैनिक थे। जिनके पास रायफलें ही रक्षा और आक्रमण करने के लिए थीं। उन्होंने अंग्रेजी फौज के हवाई और टैंक-तोपों के हमलों का मुकाबला किया। इनमें से 40 ने वीरगति प्राप्त की। स्वयं ज्ञानसिंह भी दुश्मनों के दांत खट्टे करने के बाद सिर पर गोली लगने से शहीद हो गए थे। स्वयं जनरल शहनवाज खां ने अपनी पुस्तक में इन गढ़वाली सैनिकों और खास कर ज्ञानसिंह बिष्ट की असाधारण वीरता का विस्तार से उल्लेख किया है।
कर्नल जी.एस. ढिल्लों ने भी अपनी रिपोर्ट—’चार्ज ऑफ द इमोर्टल्स’ में इन रणबांकुरों के बारे में लिखा है। इसी तरह महेन्द्र सिंह बागड़ी के नेतृत्व में गढ़वाली सेना ने कोब्यू के मोर्चे पर अंग्रेजों की तोपों और टैंकों से लैस लगभग 1000 सैनिकों की तादात वाली सेना को केवल रायफलों और उन पर लगी संगीनों से ही खदेड़ दिया था।कर्नल पितृशरण रतूड़ी को सरदारे-जंग का वीरता पदक मिला था। दुर्भाग्यवश दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी पराजय का सामना करना पड़ा। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 में गिरफ्तार कर लिया। आजाद हिन्द फौज के गिरफ्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवम्बर 1945 में मुकदमा चलाया।
जांच पर जांच बैठी मगर सच्चाई पर पर्दा बरकार—
जापान ने सबसे पहले 23, अगस्त 1945 को घोषणा की थी कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त, 1945 को एक विमान दुर्घटना में हो गई लेकिन टोकिया और टहैकू के विरोधाभासी बयानों पर संदेह उत्पन्न होने पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 3 दिसम्बर, 1955 को एक 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन करने की घोषणा की, जिसमें संसदीय सचिव और नेताजी के करीबी शाहनवाज खान, नेताजी के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस और आइसीएस एन.एन. मैत्रा शामिल थे। इस कमेटी के शाहनवाज खान और मैत्रा ने नेताजी के निधन की जापान की घोषणा को सही ठहराया तो सुरेश चन्द्र बोस ने असहमति प्रकट की। इसीलिए विवाद बरकार रहा।
इसके बाद 11 जुलाइ, 1970 को जस्टिस जी.डी. खोसला की अध्यक्षता में जांच आयोग बैठाया गया तो आयोग ने विमान दुर्घटना वाले पक्ष को सही माना, मगर नेताजी के परिजनों, जिनमें समर गुहा भी थे, ने इसे अविश्वसनीय करार दिया। इसी दौरान कलकत्ता हाइकोर्ट ने भी मामले की गहनता से जांच करने का आदेश भारत सरकार को दिया तो 1999 में सुप्रीम कोर्ट के जज मनोज मुखर्जी की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग बिठाया गया।मुखर्जी आयोग ने माना कि नेताजी अब जीवित नहीं हैं, परन्तु वह 18 अगस्त, 1945 में ताईपेई में किसी विमान दुर्घटना का शिकार नहीं हुए थे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ताईवान ने कहा—’18 अगस्त, 1945 को कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी और रेनकोजी मंदिर (टोक्यो) में रखीं अस्थियां नेताजी की नहीं हैं।’ आयोग की जांच में यह भी पाया गया कि गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई ठोस सबूत नहीं।
क्या देहरादून का साधू नेताजी थे?—
आयोग ने देहरादून के राजपुर रोड स्थित शौलमारी आश्रम के संस्थापक स्वामी शारदा नन्द के भी नेताजी होने की पुष्टि नहीं की। आयोग के समक्ष दावा किया गया था कि फकाता कूच बिहार की तर्ज पर ही शौलमारी आश्रम बना हुआ है। आयोग के समक्ष कहा गया कि इस आश्रम की स्थापना 1959 के आसपास उक्त साधु ने की थी जिसका विस्तार बाद में 100 एकड़ में किया गया और वहां लगभग 1500 अनुयायी रहने लगे।आश्रम में सशस्त्र गार्ड भी रखे गए थे जिससे स्थानीय लोग आशंकित हुए। सन् 1962 में नेताजी के एक साथी मेजर सत्य गुप्ता ने आश्रम में पहुंच कर साधु से बात की और वापस कलकत्ता लौटने पर उन्होंने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर साधू को नेताजी होने का दावा किया जो कि 13 फरवरी, 1962 के अखबारों में छपा।यह मामला संसद में भी उठा। उक्त साधु की 1977 में मृत्यु हो गई। जांच आयोग ने कुल 12 लोगों के बयान शपथ-पत्र के माध्यम से लिए जिनमें से 8 ने साधू को नेताजी बताया मगर एक वकील निखिल चन्द्र घटक, जो कि साधू के नौ कानूनी मामले भी देखते थे, ने आयोग के समक्ष कहा कि साधु स्वयं कई बार स्पष्ट कर चुके थे कि वह सुभाष चन्द्र बोस नहीं हैं और उनके पिता जानकी नाथ बोस और माता विभावती बोस नहीं, बल्कि वह पूर्वी बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे हैं। आयोग नेताजी के देहरादून में रहने की पुष्टि नहीं कर सका। इसी तरह आयोग के समक्ष शेवपुर कलां मध्य प्रदेश और फैजाबाद के साधुओं के नेताजी होने के दावे किये गये जिन्हें आयोग ने अस्वीकार कर दिया।
चित्र साभार ईटीवी
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नेताजी को उत्तराखण्ड से प्रेरणा ही नहीं शक्ति भी मिली, बेहद खास था उनके लिए गढ़वाल
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आलेख—वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज (आइएनए) का उत्तराखण्ड से गहरा नाता रहा है। हालांकि दावा तो यहां तक किया गया था कि नेताजी ने साधु वेश में 1977
तक अपना शेष जीवन देहरादून में ही बिताया था। उनके प्रवास की सच्चाई जो भी हो, मगर यह बात निर्विवाद सत्य है कि आजाद हिन्द फौज बनाने की प्रेरणा उन्हें
देहरादून के राजा महेन्द्र प्रताप सिंह से और पेशावर काण्ड के हीरो चन्द्र सिंह गढ़वाली से मिली और उनकी फौज को शक्ति गढ़वालियों की दो बटालियनों ने भी दी।
इंडियन नेशनल आर्मी (आइएनए) का गठन रास बिहारी बोस ने जापान में 1942 में कर लिया था और रास बिहारी भी देहरादून के फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में हेड क्लर्क थे।
रास बिहारी 12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली में वायसराय लाॅर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के मामले में वांछित होने पर देहरादून से भाग कर जापान चले गए थे।
महेन्द्र प्रताप सिंह से भी मिली प्रेरणा नेताजी को—
एक के बाद एक जांच समितियों और आयोगों के गठन के बाद भी भले ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु की असलियत सामने नहीं आ पाई हो, मगर उनके जीवन की अंतिम लड़ाई
में उत्तराखण्ड के कनेक्शन से इंकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि नेताजी ने निर्वासित ‘आजाद हिन्द सरकार’ का गठन 21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर में किया था और उस
सरकार की राजधानी को 7 जनवरी, 1944 को सिंगापुर से रंगून स्थानान्तरित किया गया लेकिन इससे पहले आजाद भारत की निर्वासित सरकार का गठन राजा महेन्द्र प्रताप सिंह
ने काबुल में 1915 में कर दिया था। उनके प्रधान मंत्री बरकतुल्ला थे।
क्रांतिकारी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में मुसान के राजा थे, लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियां चलाने के लिए वे देहरादून आ गए थे।
उनकी रियासत को भी अंग्रेजों ने नीलाम कर दिया था। उन्होंने 1914 में देहरादून से ‘निर्बल सेवक’ नाम का अखबार निकाला जो आजादी समर्थक था। इसलिए महेन्द्र प्रताप
को भारत से भागना पड़ा और तब जाकर उन्होंने अफगानिस्तान में आजाद भारत की निर्वासित सरकार बनाई थी। वे 1946 में भारत लौटे और शेष जीवन देहरादून के राजपुर रोड में
बिताया।
नेताजी को चन्द्र सिंह गढ़वाली ने प्रभावित किया—
सन् 1930 में हुआ पेशावर काण्ड भी नेताजी के लिए प्रेरणादायक बना और उस काण्ड में चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों द्वारा निहत्थे आंदोलनकारी
पठानों पर गोलियां बरसाने से इंकार किए जाने की घटना ने नेताजी को भरोसा दिला दिया कि गढ़वाली सैनिक राष्ट्रवादी हैं और मातृभूमि की आजादी के लिए किसी भी हद तक
जा सकते हैं।
आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का वर्चस्व—
दरअसल, आजाद हिन्द फौज (आइएनए) में गढ़वाल रायफल्स की दो बटालियन (2600 सैनिक) शामिल थीं। इनमें से 600 से अधिक सैनिक ब्रिटिश सेना से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे। आजाद
हिन्द फौज में गढ़वाल रायफल्स के गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व करने वाले इन तीन जांबाज कमाण्डरों में कर्नल चन्द्र सिंह नेगी, कर्नल बुद्धिसिंह रावत और कर्नल
पितृशरण रतूड़ी थे।जनरल मोहन सिंह के सेनापतित्व में गठित आजाद हिन्द फौज की गढ़वाली अफसरों और सैनिकों की दो बटालियनें बनाई गईं थीं। इनमें से एक सेकेण्ड
गढ़वाल की कमान कैप्टन बुद्धिसिंह रावत को और 5वीं गढ़वाल रायफल्स की कमान कैप्टन पितृ शरण रतूड़ी को सौंपी गई। कैप्टन चन्द्र सिंह नेगी को ऑफिसर्स ट्रेनिंग
स्कूल में सीनियर इंस्ट्रक्टर बनाया गया। बाद में उन्हें आइएनए के आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल सिंगापुर का कमाण्डेट बना दिया गया। इन तीनों को बाद में एकसाथ
पदोन्नति दे कर मेजर और फिर ले. कर्नल बना दिया गया।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गढ़वाली सैनिकों को बहुत पसंद करते थे। उन्होंने मेजर बुद्धिसिंह रावत को अपने व्यक्तिगत स्टाफ का एडज्यूटैण्ट और रतूड़ी को गढ़वाली
यूनिट का कमांडैण्ट बना दिया था। इसी तरह मेजर देवसिंह दानू पर्सनल गार्ड बटालियन के कमांडर के तौर पर तैनात थे।
आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का शौर्य—
इन तीन अफसरों के अलावा लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट, कैप्टन महेन्द्र सिंह बागड़ी, मेजर पद्मसिंह गुसाईं और मेजर देवसिंह दानू की भी अपनी दिलेरी और निष्ठा के
चलते आजाद हिन्द फौज में काफी धाक रही। लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट जब 17 मार्च, 1945 को टौंगजिन के मोर्चे पर अपनी टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे तो उनके पास केवल 98
गढ़वाली सैनिक थे। जिनके पास रायफलें ही रक्षा और आक्रमण करने के लिए थीं। उन्होंने अंग्रेजी फौज के हवाई और टैंक-तोपों के हमलों का मुकाबला किया। इनमें से 40
ने वीरगति प्राप्त की। स्वयं ज्ञानसिंह भी दुश्मनों के दांत खट्टे करने के बाद सिर पर गोली लगने से शहीद हो गए थे। स्वयं जनरल शहनवाज खां ने अपनी पुस्तक में इन
गढ़वाली सैनिकों और खास कर ज्ञानसिंह बिष्ट की असाधारण वीरता का विस्तार से उल्लेख किया है।
कर्नल जी.एस. ढिल्लों ने भी अपनी रिपोर्ट—'चार्ज ऑफ द इमोर्टल्स' में इन रणबांकुरों के बारे में लिखा है। इसी तरह महेन्द्र सिंह बागड़ी के नेतृत्व में गढ़वाली
सेना ने कोब्यू के मोर्चे पर अंग्रेजों की तोपों और टैंकों से लैस लगभग 1000 सैनिकों की तादात वाली सेना को केवल रायफलों और उन पर लगी संगीनों से ही खदेड़ दिया
था।कर्नल पितृशरण रतूड़ी को सरदारे-जंग का वीरता पदक मिला था। दुर्भाग्यवश दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी पराजय का सामना
करना पड़ा। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 में गिरफ्तार कर लिया। आजाद हिन्द फौज के गिरफ्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज
सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवम्बर 1945 में मुकदमा चलाया।
जांच पर जांच बैठी मगर सच्चाई पर पर्दा बरकार—
जापान ने सबसे पहले 23, अगस्त 1945 को घोषणा की थी कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त, 1945 को एक विमान दुर्घटना में हो गई लेकिन टोकिया और टहैकू के विरोधाभासी बयानों पर
संदेह उत्पन्न होने पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 3 दिसम्बर, 1955 को एक 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन करने की घोषणा की, जिसमें संसदीय सचिव और नेताजी के
करीबी शाहनवाज खान, नेताजी के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस और आइसीएस एन.एन. मैत्रा शामिल थे। इस कमेटी के शाहनवाज खान और मैत्रा ने नेताजी के निधन की जापान की
घोषणा को सही ठहराया तो सुरेश चन्द्र बोस ने असहमति प्रकट की। इसीलिए विवाद बरकार रहा।
इसके बाद 11 जुलाइ, 1970 को जस्टिस जी.डी. खोसला की अध्यक्षता में जांच आयोग बैठाया गया तो आयोग ने विमान दुर्घटना वाले पक्ष को सही माना, मगर नेताजी के परिजनों,
जिनमें समर गुहा भी थे, ने इसे अविश्वसनीय करार दिया। इसी दौरान कलकत्ता हाइकोर्ट ने भी मामले की गहनता से जांच करने का आदेश भारत सरकार को दिया तो 1999 में
सुप्रीम कोर्ट के जज मनोज मुखर्जी की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग बिठाया गया।मुखर्जी आयोग ने माना कि नेताजी अब जीवित नहीं हैं, परन्तु वह 18 अगस्त, 1945 में
ताईपेई में किसी विमान दुर्घटना का शिकार नहीं हुए थे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ताईवान ने कहा—'18 अगस्त, 1945 को कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी और
रेनकोजी मंदिर (टोक्यो) में रखीं अस्थियां नेताजी की नहीं हैं।' आयोग की जांच में यह भी पाया गया कि गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई ठोस सबूत नहीं।
क्या देहरादून का साधू नेताजी थे?—
आयोग ने देहरादून के राजपुर रोड स्थित शौलमारी आश्रम के संस्थापक स्वामी शारदा नन्द के भी नेताजी होने की पुष्टि नहीं की। आयोग के समक्ष दावा किया गया था कि
फकाता कूच बिहार की तर्ज पर ही शौलमारी आश्रम बना हुआ है। आयोग के समक्ष कहा गया कि इस आश्रम की स्थापना 1959 के आसपास उक्त साधु ने की थी जिसका विस्तार बाद में 100
एकड़ में किया गया और वहां लगभग 1500 अनुयायी रहने लगे।आश्रम में सशस्त्र गार्ड भी रखे गए थे जिससे स्थानीय लोग आशंकित हुए। सन् 1962 में नेताजी के एक साथी मेजर सत्य
गुप्ता ने आश्रम में पहुंच कर साधु से बात की और वापस कलकत्ता लौटने पर उन्होंने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर साधू को नेताजी होने का दावा किया जो कि 13 फरवरी, 1962 के
अखबारों में छपा।यह मामला संसद में भी उठा। उक्त साधु की 1977 में मृत्यु हो गई। जांच आयोग ने कुल 12 लोगों के बयान शपथ-पत्र के माध्यम से लिए जिनमें से 8 ने साधू को
नेताजी बताया मगर एक वकील निखिल चन्द्र घटक, जो कि साधू के नौ कानूनी मामले भी देखते थे, ने आयोग के समक्ष कहा कि साधु स्वयं कई बार स्पष्ट कर चुके थे कि वह सुभाष
चन्द्र बोस नहीं हैं और उनके पिता जानकी नाथ बोस और माता विभावती बोस नहीं, बल्कि वह पूर्वी बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे हैं। आयोग नेताजी के
देहरादून में रहने की पुष्टि नहीं कर सका। इसी तरह आयोग के समक्ष शेवपुर कलां मध्य प्रदेश और फैजाबाद के साधुओं के नेताजी होने के दावे किये गये जिन्हें आयोग
ने अस्वीकार कर दिया।
चित्र साभार ईटीवी