जन-जन की है यही पुकार, बंदर सीखें शौच का व्यवहार !
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02/02/20227:26 am
प्रियंका नेगी / श्रीनगर गढ़वाल
पहले मैंने कहा था कि बंदर-गूणी का इंतजाम करने वाले को ही हमें नेता चुनना चाहिए। उस तरफ तो कुछ नहीं हुआ। अब चूंकि भगाने के लिए तो प्रत्याशी, पार्टी या प्रतिनिधि कोई भी आगे नहीं आया तो इसलिए अब मेरी बस इतनी गुजारिश है कि बंदरों को शौच की शिक्षा दी जाए।
पहले मैंने कहा था कि बंदर-गूणी का इंतजाम करने वाले को ही हमें नेता चुनना चाहिए। उस तरफ तो कुछ नहीं हुआ। अब चूंकि भगाने के लिए तो प्रत्याशी, पार्टी या प्रतिनिधि कोई भी आगे नहीं आया तो इसलिए अब मेरी बस इतनी गुजारिश है कि बंदरों को शौच की शिक्षा दी जाए। अगर वो एक निश्चित जगह चुन लें तो हमें कोई दिक्कत नहीं उनके साथ सामंजस्य बिठाने में। खेती तो चौबट हो ही रखी है; दरवाजों को बंद करने की आदत पर हम काम कर ही रहे हैं; तड़के उठकर ही परात भर पत्थर रख दिए जाते हैं; डस्टबिन और कल्चोणि को जितना जल्दी हो पाता है खाली कर देते हैं या छुपा कर रखते हैं; भ्यूंल या बांस की एक-एक छड़ी परिवार के हर सदस्य को दे ही रखी है। मनुष्य होने के चलते हम दो कदम आगे रहने की कोशिश कर तो रहे हैं पर बस अब एक ही समस्या है जिसके लिए ऊपर नारा दिया है। मेरी सलाह यही है कि कुछ चतुर लोगों को प्रशिक्षण दिया जाए और वो फिर बंदरों के सरदार से बात करें, उन्हें प्रशिक्षित करने हेतु मनाएं। खेत बहुत हैं हमारे पास किसी को भी चुनकर ‘जहाँ सोच, वहाँ शौचालय’ वाली अवधारणा पर काम किया जा सकता है। भविष्य में हम फिर बेहतर मॉडल की तरफ जाने का भी सोच सकते हैं।
प्रियंका नेगी
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प्रियंका नेगी / श्रीनगर गढ़वाल
पहले मैंने कहा था कि बंदर-गूणी का इंतजाम करने वाले को ही हमें नेता चुनना चाहिए। उस तरफ तो कुछ नहीं हुआ। अब चूंकि भगाने के लिए तो प्रत्याशी, पार्टी या
प्रतिनिधि कोई भी आगे नहीं आया तो इसलिए अब मेरी बस इतनी गुजारिश है कि बंदरों को शौच की शिक्षा दी जाए।
पहले मैंने कहा था कि बंदर-गूणी का इंतजाम करने वाले को ही हमें नेता चुनना चाहिए। उस तरफ तो कुछ नहीं हुआ। अब चूंकि भगाने के लिए तो प्रत्याशी, पार्टी या
प्रतिनिधि कोई भी आगे नहीं आया तो इसलिए अब मेरी बस इतनी गुजारिश है कि बंदरों को शौच की शिक्षा दी जाए। अगर वो एक निश्चित जगह चुन लें तो हमें कोई दिक्कत नहीं
उनके साथ सामंजस्य बिठाने में। खेती तो चौबट हो ही रखी है; दरवाजों को बंद करने की आदत पर हम काम कर ही रहे हैं; तड़के उठकर ही परात भर पत्थर रख दिए जाते हैं;
डस्टबिन और कल्चोणि को जितना जल्दी हो पाता है खाली कर देते हैं या छुपा कर रखते हैं; भ्यूंल या बांस की एक-एक छड़ी परिवार के हर सदस्य को दे ही रखी है। मनुष्य
होने के चलते हम दो कदम आगे रहने की कोशिश कर तो रहे हैं पर बस अब एक ही समस्या है जिसके लिए ऊपर नारा दिया है। मेरी सलाह यही है कि कुछ चतुर लोगों को प्रशिक्षण
दिया जाए और वो फिर बंदरों के सरदार से बात करें, उन्हें प्रशिक्षित करने हेतु मनाएं। खेत बहुत हैं हमारे पास किसी को भी चुनकर 'जहाँ सोच, वहाँ शौचालय' वाली
अवधारणा पर काम किया जा सकता है। भविष्य में हम फिर बेहतर मॉडल की तरफ जाने का भी सोच सकते हैं।
[caption id="attachment_24647" align="aligncenter" width="150"] प्रियंका नेगी[/caption]
प्रियंका नेगी