अगस्त्यमुनि / हरीश गुसाईं जब हमारा ही प्रतिनिधि अब पहाड़ चढ़ने से कतरा रहा है तो उससे हम किस विकास की आस करें। इन्हें तो उत्तराखण्ड केवल देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर

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में ही नजर आता है, बाकी तो सिर्फ पहाड़ और पहाड़ी हैं। उत्तराखण्ड बनने पर सबकी भावना थी कि अब कम से कम हमारे विकास की योजनायें हमारे लोग बनायेंगे परन्तु अफसोस है कि इन्हीं हमारे लोंगो ने हमें ही बुरी तरह से छला। उत्तर प्रदेश में रहते जब किसी योजना का शिलान्यास अथवा लोकार्पण होता था तो कम से कम जहां पर योजना बन रही होती थी, वहीं पर कार्यक्रम आयोजित कर मंत्री के हाथों यह कार्य होता था। वह भी तब जब मंत्री उप्र के मैदानी क्षेत्र का होता था। परन्तु राज्य बनने के बाद हमारे जनप्रतिनिधियों ने जिस गांव की योजना है वहां तक जाने की जहमत भी उठाना गवारा नहीं किया। उन्होंने इस कार्य के लिए जिले में एक जगह पर आकर एक साथ सभी योजनाओं का शिलान्यास या लोकार्पण करने की नई रीत चला दी है। कई बार तो जिस गांव की योजना है उसी गांव वालों को पता ही नहीं चल पाता है। जब हमारा ही प्रतिनिधि अब पहाड़ चढ़ने से कतरा रहा है तो उससे हम किस विकास की आस करें। इन्हें तो उत्तराखण्ड केवल देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर में ही नजर आता है, बाकी तो सिर्फ पहाड़ और पहाड़ी हैं।  उत्तराखण्ड वासियों ने जिन सपनों को लेकर उत्तराखण्ड राज्य की मांग की थी। राज्य बनने के बाद बनी सरकारों ने उन सपनों को नेस्तानाबूत करने में कोई कमी नहीं की। राज्य बनने के बाद बारी-बारी से राज करने वाली भाजपा एवं कांग्रेस एक दूसरे पर दोषारोपण करने के सिवाय कुछ नहीं कर पाये। वहीं राज्य बनने से पूर्व राज्य की लड़ाई को जोर शोर से लड़ने वाली क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखण्ड क्रान्ति दल अपने आपस की लड़ाई में ही निपट गई। इस दौरान राज्य में न केवल बेरोजगारी ही बड़ी बल्कि भ्रष्टाचार भी बढ़ता चला गया। विकास की राह देखता उत्तराखण्ड वासी भाजपा एवं कांग्रेस के एक दूसरे पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के लिए बैठाये जांच कमीशनों की रिपोर्टों का इन्तजार करता ही रह गया। इन बीस वर्षों में यहां के पानी के साथ जवानी भी बह गई। और इसके साथ ही राज्य के लिए लड़ने वालों के द्वारा देखे सपने भी बह गये। राज्य बनने के इन 21वर्षों में इसके विकास का ढ़िंढोरा पीटने वाले रहमतदार कोई ऐसी योजना नहीं बना पाये जो यहां के पानी और जवानी को रोक सके। जोर शोर से एक पलायन आयोग का गठन तो ऐसे किया गया मानो इस आयोग के गठन से यहां का पानी और जवानी दोनों रूक जायेंगे। परन्तु पलायन रूकना तो दूर और भी अधिक हो गया। हद तो तब हो रही है जब पहाड़ में अपनी राजनति को परवान चढ़ाने वाले हमारे चुने प्रतिनिधि भी मैदानी क्षेत्रों में पलायन करने लगे हैं। पलायन के कारण पहाड़ी क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व घट कर मैदानी क्षेत्रों में बढ़ने लगा है। पलायन आयोग को लेकर सरकार की संजीदगी ऐसी है कि रिपोर्ट मिले साल भर से अधिक हो गया परन्तु अभी तक उसकी सिफारिशों पर कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है। पलायन आयोग की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ है कि पहाड़ से पलायन करने वाली 42 प्रतिशत आबादी 26 से 35 वर्ष के युवाओं की है। 50 प्रतिशत आबादी ने रोजगार एवं आजीविका की खोज में पलायन किया तो 15 प्रतिशत आबादी ने शिक्षा एवं 8 प्रतिशत ने ईलाज की सुविधा की कमी को लेकर पलायन कर दिया। पिछले एक दशक में 3946 ग्राम पंचायतों के लगभग सवा लाख लोगों ने स्थाई रूप से घर बार छोड़ दिया। जो लोग यहां रह गये वे न तो रोजगार पा सके और नहीं खेती के जरिये आजीविका। जंगली सूअरों एवं बन्दरों से खेती को नुकसान होने तथा सिंचाई के अभाव में किसानों ने खेती करना छोड़ दिया। सरकारों की गलत नीतियों से अधिकांश खेत बंजर हो गये। राज्य गठन के बाद 24 हजार हैक्टेयर खेती की जमीन कम हो गई, जिसमें से एक तिहाई खेती की जमीन बंजर हो गई। कोरोना काल में बड़ी संख्या में प्रवासी ग्रामीण घरों को लौटें हैं। सरकार ने ऐसे प्रवासियों को पहाड़ में ही रोकने के लिए बड़ी बड़ी बातें की। कई योजनाओं की घोषणायें की। परन्तु यह सब घोषणायें खोखली ही साबित हुई। स्वरोजगार के लिए बैंकों से )ण लेने के लिए प्रोत्साहित किया। परन्तु बैंक की लाल फीताशाही एवं बिना गारण्टी के लोन पास न करने से मायूस प्रवासी लोग मजबूरन वापस दूसरे प्रदेशों की ओर जाने को मजबूर हो गये। हरिद्वार, सहारनपुर एवं दिल्ली से जाने वाली रेलगाड़ियों की वेटिंग लिस्ट इस बात की गवाह हैं कि बड़ी संख्या में उत्तराखण्डी प्रवासी मोह भंग के बाद वापस लौटने लगे हैं। यही स्थिति यहां की स्वास्थ्य सेवाओं की भी है। कोरोना काल की आपात स्थितिमें डाॅक्टरों की कमी तो किसी हद तक पूरी हो गई है परन्तु अस्पतालों की बदइन्तजामी के साथ उपकरणों एवं दवाइयों की कमी के कारण डाॅक्टर भी असहाय बने हैं। जनता की अपेक्षाओं के बोझ तले डाॅक्टर एवं अन्य सहकर्मी पिसते जा रहे हैं। कहीं कहीं तो यह अपेक्षायें हिंसक रूप भी लेने लगी हैं। ऐसे में आये दिन किसी न किसी अस्पताल में डाॅक्टर एवं मरीज की हिंसक भिड़न्त आम होने लगी है। ऐसी परिस्थितियों में चिकित्साकर्मी भी ईलाज करने से कतराने लगे हैं। और प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र, सीएचसी और यहां तक कि जिला अस्पताल भी केवल रैफरल सेण्टर बनकर रह गये हैं। ऐसी परिस्थितियों में जनता का विश्वास इनसे उठ गया है। सक्षम व्यक्ति तो ईलाज के लिए सीधे ही बड़े शहरो की ओर चला जाता है परन्तु गरीब व्यक्ति इन केन्द्रों में रैफर होते होते अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। या निराश होकर घर लौटकर मृत्यु की राह देखने को मजबूर हो जाते हैं। इन 21 वर्षों में सरकारों ने उत्तराखण्ड वासियों से केवल छलावा ही किया है। पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो यह हर उत्तराखण्डी का सपना है। परन्तु बारी बारी से राज करने वाली भाजपा एवं कांग्रेस ने इस मामले में हमेशा ही राजनीति की है और इसके लिए गैरसैण सबसे मुफीद मुद्दा हो गया है। राष्ट्रीय दलों के लिए यह पहाड़वासियों के जजबातों से खेलने के लिए एक खिलौना इनकर रह गया है। सरकार में रहते हुए गैरसैण को भुलाना और विपक्ष में रहते हुए गैरसैण को भुनाना इनकी रीति रही है। इन 21 वर्षों में उत्तराखण्ड अपनी स्थाई राजधानी के लिए तरसता रहा परन्तु इन सरकारों ने स्थाई राजधानी के बजाय गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाकर जनता पर बोझ डाल दिया। यह विडम्बना ही है कि जिस राज्य में स्थाई राजधानी बनाने को न जगह मिली न बजट उसी राज्य में ग्रीष्मकालीन राजधानी के लिए 25 हजार करोड़ रू0 की घोषणा हो जाती है। ऐसा नहीं है कि इन बीस वर्षों में यहां की सरकारों ने कुछ नहीं किया। अस्थाई राजधानी देहरादून से इतर भराड़ीसैण (गैरसैण) को ग्रीष्मकालीन राजधानी बना दिया। अब इस छोटे से अविकसित राज्य के लोगों पर दो दो अस्थाई राजधानियों का भरण पोषण की जिम्मेदारी का बोझ आ गया है। यहीं नहीं दो दो सचिवालय, तीन तीन विधान सभा भवन का बोझ भी उठाना होगा। पहाड़ की राजधानी पहाड़ पर हो, ऐसा सपना देखने वाले उत्तराखण्ड वासियों को अब प्रतिनिधित्व में भी हिस्सेदारी कम हो रही है। आखिर हो भी क्यों नहीं जब सरकारी कर्मचारी, अधिकारी और यहां तक कि हमारे जनप्रतिनिधि भी धीरे धीरे पहाड़ से मैदान की ओर खिसकने लगे हैं तो फिर हिस्सेदारी बढ़ाने की बात करना ही बेमानी लगता है। चार धाम जो पहाड़ की आर्थिकी की रीढ़ है उसे भी धीरे धीरे पहाड़ वालों से दूर करने का षड़यंत्र किया जा रहा है। आॅल वेदर रोड़, जिसे चार धाम यात्रा को सुगम बनाने के लिए प्रचारित किया जा रहा है। और इसके लिए पहाड़ों, जंगलों एवं पर्यावरण का बलिदान कर दिया गया। परन्तु इसके दूरगामी परिणामों से पहाड़ वासियों को अंधेरे में रखा गया। भूकम्प एवं भूस्खलन के लिए अतिसंवेदनशील पहाड़ों को बेतरतीब काटकर पहाड ़वासियों को इसके खतरों से जूझने के लिए छोड़ दिया गया। यह सोचने वाली बात है कि क्या तेज रफ्तार वाली गाड़ियों को दौड़ाने के लिए पहाड़ों, जंगलों और हरे पेड़ों को काटकर बनाई जा रही इन सड़कों से पहाड़ वासियों को कुछ लाभ भी होगा या नहीं। या ये चैड़ी सड़कें सिर्फ ओर सिर्फ पहाड़ वासियों को मैदान की ओर पलायन करने के लिए और आने वाले यात्रियों को पहाड़ों से दूर करने के लिए बनाई जा रही हंै। सड़कें चैड़ी और तेज रफ्तार गाड़ियों के लिए बनने से यात्री सुबह हरिद्वार से चलेगा और सांय को हरिद्वार पहुंच जायेगा। जबकि होना तो यह चाहिए था कि जो यात्री यात्रा पर आयें वे अधिक से अधिक समय पहाड़ पर गुजारें। जिससे यात्रियों को उत्तराखण्ड के बारे में अधिक से अधिक जानकारी मिल सके और स्थानीय लोगों की आर्थिकी भी मजबूत हो सके। परन्तु सरकार इससे एकदम उलट कर रही है। ऐसे में चार धाम यात्रा से आजीविका चलाने वाले स्थानीय लोगों को मायूस होना पड़ेगा। यह ठीक है कि राज्य के विकास के लिए पक्की एवं चैड़ी सड़कों का होना आवश्यक है परन्तु इन सड़कों को केवल शहरों को शहरों से जोड़ने के लिए ही नहीं होना चाहिए बल्कि गांवों से भी जोड़ा जाना और ग्रामीण सड़कों का भी पक्की होना आवश्यक है। इन सबके बीच यह भी आश्चर्यजनक है कि इस आॅल वेदर रोड के लिए पर्यावरण कहीं पर भी रोड़ा नहीं बन पाया। जबकि उत्तराखण्ड में कई गांव पर्यावरण की अनुमति न मिलने से आज भी सड़क से कोसों दूर हैं तथा ग्रामीण कई किमी पैदल चलने को मजबूर हैं। परन्तु सरकारों पर कोई फर्क पड़ता नजर नहीं आ रहा है। सरकार को भी पता है कि ग्रामीण कुछ दिन आन्दोलन करेंगे, और थक हार कर चुप हो जायेंगे। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां ग्रामीणों ने सड़कों के लिए आमरण अनशन, राष्ट्रीय राजमार्ग पर चक्का जाम के साथ ही विधान सभा चुनाव का बहिष्कार भी किया। परन्तु शासन प्रशासन द्वारा उन्हें केवल आश्वासन ही मिल पाया। सरकारों की इसी लेटलतीफों के कारण आज राज्य बनने के 21 वर्ष बाद भी गांवों को जोड़ने वाली अधिकांश सड़कों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। और ग्रामीण जान जोखिम में डालकर अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को ढो रहे हैं तथा बीमार व्यक्तियों को मुख्य सड़कों तक ला रहे हैं। उत्तराखण्ड अब 22 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। परन्तु अभी तक इसके सर्वागींण विकास के लिए सरकारों की सोच स्पष्ट नहीं हो पाई है। इन 22 वर्षों में हम कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बना पाये जो हमारी पहचान बन सके। कहने के लिए यहां शीतकालीन पर्यटन, तीर्थाटन, बागवानी, साहसिक खेलों की अपार सम्भावनायें हैं। लेकिन ये सम्भावनायें सरकारों की दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी के चलते धरातल पर नहीं उतर पा रही हैं। पूरा प्रदेश पहाड़ बनाम मैदान की लड़ाई का रणक्षेत्र बना हुआ है। उत्तराखण्ड बनने पर सबकी भावना थी कि अब कम से कम हमारे विकास की योजनायें हमारे लोग बनायेंगे परन्तु अफसोस है कि इन्हीं हमारे लोंगो ने हमें ही बुरी तरह से छला। उत्तर प्रदेश में रहते जब किसी योजना का शिलान्यास अथवा लोकार्पण होता था तो कम से कम जहां पर योजना बन रही होती थी, वहीं पर कार्यक्रम आयोजित कर मंत्री के हाथों यह कार्य होता था। वह भी तब जब मंत्री उप्र के मैदानी क्षेत्र का होता था। परन्तु राज्य बनने के बाद हमारे जनप्रतिनिधियों ने जिस गांव की योजना है वहां तक जाने की जहमत भी उठाना गवारा नहीं किया। उन्होंने इस कार्य के लिए जिले में एक जगह पर आकर एक साथ सभी योजनाओं का शिलान्यास या लोकार्पण करने की नई रीत चला दी है। कई बार तो जिस गांव की योजना है उसी गांव वालों को पता ही नहीं चल पाता है। जब हमारा ही प्रतिनिधि अब पहाड़ चढ़ने से कतरा रहा है तो उससे हम किस विकास की आस करें। इन्हें तो उत्तराखण्ड केवल देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर में ही नजर आता है, बाकी तो सिर्फ पहाड़ और पहाड़ी हैं। [caption id="attachment_23858" align="aligncenter" width="531"] हरीश गुसाईं,, वरिष्ठ पत्रकार[/caption]