समझिये , सोचिये, विचारिये और फिर मतदान कीजिये .... याद रखियेगा ये हँसा धनाई, बेलमती चौहान, राजेश रावत, यशोधर बेंजवाल आदि आदि शहीदों की शहादत का सवाल है और ये वक्त उस सवाल पर गंभीरता से सोचने का । पहचानिए कि वो कौन से लोग हैं जो आपके मुद्दों को लेकर सदन के अंदर मुखर हो सकते हैं, भेजिए उन्हें चुनकर सदन के अंदर, शुरुवात कीजिये एक नयी लोकतांत्रिक परम्परा और परिवेश का जहां यह तय हो सके कि संगठित विकल्पों के उपलब्ध् न होने की दशा में भी इस सूबे की आवाम अब मुद्दों के आधार पर प्रतिनिधियों के निर्वाचन को विकल्प के तौर पर स्वीकार करने की मंशा रखती है।

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होशियार, खबरदार, समझदार .....! लोकतंत्र का जलसा फिलहाल मुद्दों के अभावों में जूझ रहा है , मतदान के लिए महज 5 दिन ही शेष हैं ,14 फरवरी को हमेंइस सूबे के मुस्तक़िल के लिए इंतखाबी जलसे याने चुनाव में शिरकत करनी है। इतिहास गवाह रहा है कि लोकतन्त्र की यह परम्परागत रवायतें हमेशा से मुद्दों पर तय की जाती रही हैं, पर इस चुनाव को देखें तो आपको मुद्दों का अभाव दिखाई देगा , कम से कम राष्ट्रीय दलों के पास तो मुद्दों का ऐसा अभाव है कि शिक्षा रोजगार, स्वास्थ्य तो छोड़िए राज्य गठन के बाद से ही बहसों में जमा रहा गैरसैंण और हाल फिलहाल का भू कानून दोनों पर कोई भी बात करने वाला न मिल रहा। इस सूबे ने इक्कीस सालों में कितना खोया कितना पाया ....? की हद में जनप्रतिनिधियों की चयन की कसौटी पर तय किये जाने वाला निर्वाचन जब राष्ट्रव्यापी छवि का गुलाम हो जाता है तो बेकसूर मौतों को भी जरूरत बताना आसान होता है , अधिनायकवादी दौर में मुद्दों की कमी को यूँ समझिये कि हाल फिलहाल में आक्सीजन और दवाओं से जूझता हुआ आम आदमी फिलहाल अन्यराष्ट्रीय मसलों पर फोकस किया हुआ है। चुनाव और मीडिया के गठजोड़ की भयावह स्थिति का अंदाजा यूँ लगाइये कि लगभग सभी न्यूज चैनलों ने इस बीच चुनावों पर न जाने कितने इवेंट आयोजित कर लिए और न जाने कितने सर्वेक्षण जारी हो गए हैं तमाम सर्वेक्षणों के आस पास जिसका आंकड़ा रहेगा 10 मार्च के बाद वह छाती ठोक ठोक कर कहेगा कि देखो हम कितने सटीक थे...? लोकतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया चुनाव जब बाजारू प्रबंधन परम्पराओं के हवाले हो जाय तो समझ जाना चाहिए कि अब लोकतन्त्र में लोक की समझ को ऐसे मान लिया गया है जैसे किसी डियोडरिंट को दुनिया का सबसे खुशबूदार इत्र बोल कर आज के बाजारवाद के सिद्धांतों की को स्वीकार करते हुए ग्राहकों की बुद्धि विवेक को कम मानते हुए बेचा और खरीदा जाना। खैर इन इक्कीस सालों में राजनीतिक परिपेक्ष में मानसिक रूप से दिवालिया हो गयी समझ और जन प्रतिनिधियों की सत्ता के लिए विकृत हो चुकी मानसिकता का परिणाम ही है कि इस सूबे में वो मुद्दे ही बिसरा दिए गए जिनकी पूर्ति के लिए शहादतों के बाद इस सूबे का जन्म हुआ था, यकीन मानिए कि आज सूबे में मौजूद किसी भी राजनैतिक दल के पास सूबे के लिए कोई विजन नहीं कोई मिशन नहीं कि जिन पर केंद्रित करते हुए चुनावों में जनता के सामने प्रखर हुआ जाए। याद कीजिये कि इस सूबे के मुद्दे क्या हैं ....? उनका समाधान क्या है और उस समाधान के लिए रास्ते क्या हैं ....? कौन उन समाधानों पर बात करने की भी हिम्मत जुटा पा रहा है ...?सवाल आखिर जम्हूरियत का है जिसमें चुने हुए लोग ज़िल्ले इलाही नहीं हो सकते कि उन्हें वजीरियत सौंप दी गयी हो , बादशाह सलामत की चले जो मर्जी चाहे करो ....? आखिर हम इस सूबे को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि आखिर में हम कैसा नेतृत्व चुन कर देते हैं....? और उस नेतृत्व को चुनते समय हमारी सोच और दूरदृष्टि क्या कहती है ...? फिलहाल तो यह चुनाव कांग्रेस और बी जे पी के कुछ प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित रूप से व्यक्तिगत हितों के लिए लड़ रहे हैं शायद इसलिए मुद्दों का अभाव है .....? समझिये , सोचिये, विचारिये और फिर मतदान कीजिये .... याद रखियेगा ये हँसा धनाई, बेलमती चौहान, राजेश रावत, यशोधर बेंजवाल आदि आदि शहीदों की शहादत का सवाल है और ये वक्त उस सवाल पर गंभीरता से सोचने का । पहचानिए कि वो कौन से लोग हैं जो आपके मुद्दों को लेकर सदन के अंदर मुखर हो सकते हैं, भेजिए उन्हें चुनकर सदन के अंदर, शुरुवात कीजिये एक नयी लोकतांत्रिक परम्परा और परिवेश का जहां यह तय हो सके कि संगठित विकल्पों के उपलब्ध् न होने की दशा में भी इस सूबे की आवाम अब मुद्दों के आधार पर प्रतिनिधियों के निर्वाचन को विकल्प के तौर पर स्वीकार करने की मंशा रखती है। चुनिए उसे जो आपके मुद्दों के लिए मुखर हो और तय कीजिये कि आज वो विकल्प कौन हैं.......? [caption id="attachment_24585" align="aligncenter" width="960"] अखिलेश डिमरी[/caption] यह आलेख पहाड़ के जन-सरोकारों पर पैनी नज़र रखने वाले पहाड़ प्रेमी अखिलेश डिमरी द्वारा लिखा गया है।