मतदान के दौरान की ऐसी तस्वीरों को अक्सर ‘ग्लोरीफाई’ करके प्रस्तुत करने का चलन है. इस बार भी ऐसी कुछ तस्वीरें नज़र में आई हैं. उत्तराखण्ड के बागेश्वर ज़िले की यह तस्वीर दिल्ली में आज के ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपी है. कैप्शन लगा है, ‘जहां चाह वहां वोट’. इसे लोकतंत्र की ताक़त के रूप में प्रचारित किया गया है. लेकिन असुविधाओं से घिरे पहाड़ों में दरअसल ऐसी तस्वीरें गर्व से ज्यादा शर्मिंदगी का मसला हैं. ये पालकी सरकारों के नकारेपन की निशानी है.
पहाड़ के दूरदराज़ इलाक़ों में, जहां सड़क नहीं है, अस्पताल नहीं है, उचित इलाज नहीं है, मरीज़ को या प्रसूता को ऐसी ही पालकी या डोली (इसे गढ़वाली में कई जगह ‘डन्डी’ और कुमाऊं में कुछ जगह ‘कंडी’ भी कहते हैं) में अपने कंधे पर उठाकर और कई किलोमीटर पैदल चलकर लोग शहर के स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचाते हैं. कई बार ऐसा भी हुआ है जब मरीज़ ने पालकी में ही दम तोड़ दिया या महिला का प्रसव रास्ते में ही हो गया. अफसोस कि ये सब इस बार भी चुनावी विमर्श से ग़ायब था.
संभवत: इस महिला को भी ऐसे इलाके/गांव से पालकी में लाकर मतदान केंद्र तक पहुंचाया गया जहां रोड नहीं थी. ये बुजुर्ग महिला अपनी सरकार चुनने के लिए इस पालकी से तो पोलिंग बूथ तक पहुंच गई. वोट भी डाल आई. लेकिन इन वोट से बनने वाली सरकारों ने अब तक किया क्या? पहाड़ के लोगों को इस पालकी वाली नियति से आज तक छुटकारा नहीं दिला पाईं।
वीडियो साभार: रघुवीर सिंह नेगी
इनपुट : उर्गम घाटी की ग्राम पंचायत देवग्राम के गीरा बांसा गांव में भले ही सरकार सड़क न पहुंचा सकी हो फिर भी वहां के बीमार व्यक्ति ने मतदान किया। दरअसल सड़क स्वीकृति के बाद भी गीरा बांसा गांव में सड़क निर्माण नहीं हुआ। ठेकेदार ने आधे रास्ते में कटिंग कर काम छोड़ दिया। बावजूद फिर भी देवग्राम पंचायत में 86 प्रतिशत मतदान हुआ।
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उन्होंने ‘पालकी’ से पहुंचकर सरकार बनाई, सरकार उनसे ‘पालकी’ भी न छुड़वा पाई !
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मनु पंवार / पौड़ी
मतदान के दौरान की ऐसी तस्वीरों को अक्सर 'ग्लोरीफाई' करके प्रस्तुत करने का चलन है. इस बार भी ऐसी कुछ तस्वीरें नज़र में आई हैं. उत्तराखण्ड के बागेश्वर ज़िले
की यह तस्वीर दिल्ली में आज के 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में छपी है. कैप्शन लगा है, 'जहां चाह वहां वोट'. इसे लोकतंत्र की ताक़त के रूप में प्रचारित किया गया है. लेकिन
असुविधाओं से घिरे पहाड़ों में दरअसल ऐसी तस्वीरें गर्व से ज्यादा शर्मिंदगी का मसला हैं. ये पालकी सरकारों के नकारेपन की निशानी है.
[caption id="attachment_25142" align="aligncenter" width="610"] फोटो महीपाल नेगी[/caption]
पहाड़ के दूरदराज़ इलाक़ों में, जहां सड़क नहीं है, अस्पताल नहीं है, उचित इलाज नहीं है, मरीज़ को या प्रसूता को ऐसी ही पालकी या डोली (इसे गढ़वाली में कई जगह
'डन्डी' और कुमाऊं में कुछ जगह 'कंडी' भी कहते हैं) में अपने कंधे पर उठाकर और कई किलोमीटर पैदल चलकर लोग शहर के स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचाते हैं. कई बार ऐसा भी
हुआ है जब मरीज़ ने पालकी में ही दम तोड़ दिया या महिला का प्रसव रास्ते में ही हो गया. अफसोस कि ये सब इस बार भी चुनावी विमर्श से ग़ायब था.
संभवत: इस महिला को भी ऐसे इलाके/गांव से पालकी में लाकर मतदान केंद्र तक पहुंचाया गया जहां रोड नहीं थी. ये बुजुर्ग महिला अपनी सरकार चुनने के लिए इस पालकी से
तो पोलिंग बूथ तक पहुंच गई. वोट भी डाल आई. लेकिन इन वोट से बनने वाली सरकारों ने अब तक किया क्या? पहाड़ के लोगों को इस पालकी वाली नियति से आज तक छुटकारा नहीं
दिला पाईं।
वीडियो साभार: रघुवीर सिंह नेगी
इनपुट : उर्गम घाटी की ग्राम पंचायत देवग्राम के गीरा बांसा गांव में भले ही सरकार सड़क न पहुंचा सकी हो फिर भी वहां के बीमार व्यक्ति ने मतदान किया। दरअसल
सड़क स्वीकृति के बाद भी गीरा बांसा गांव में सड़क निर्माण नहीं हुआ। ठेकेदार ने आधे रास्ते में कटिंग कर काम छोड़ दिया। बावजूद फिर भी देवग्राम पंचायत में 86
प्रतिशत मतदान हुआ।