निर्दलीय बनेंगे ‘किंगमेकर’, खामोश वोटरों ने बढ़ाई सियासी बैचेनी
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18/02/20226:52 am
डॉ दलीप सिंह बिष्ट / अगस्त्यमुनि
चुनाव के बाद भले ही राजनीतिक दल नफा नुकसान के गणित में मशगूल है पर आज तक राष्ट्रीय राजनीतिक दलों पर भरोसा करने वाले उत्तराखण्ड के लोगों का आखिर निर्दलीयों और क्षेत्रीय दलों की ओर रुझान, राष्ट्रीय दलों के प्रति यहां के लोगों की विश्वसनीयता खोना या यूं कहें कि यहां के विकास के प्रति खरा न उतरना माना जा सकता है।
14 फरवरी को उत्तराखंड में शांतिपूर्ण चुनाव सम्पन्न हो चुके है और अब सरकार किसकी बनेगी इस पर चर्चा हो रही है और मतदाता से लेकर राजनीतिक पार्टियां चाहे जो कहें किन्तु वास्तविकता में सभी असमंजस की स्थिति में है। भले राजनीतिक दल अपने-अपने सरकार बनाने के दावे जो जरूर कर रही है परंतु उन्हें भी पता है कि बिना बाहरी सहयोग के वह सरकार नही बना सकते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि डर हर राजनीतिक दल को लग रहा है। स्पष्ट है कि जो भी दल सरकार बनाएगा उसकी क्षेत्रीय दलों या निर्दलीयों के बिना सरकार बनना असम्भव लगता है। यदि भाजपा-कांग्रेस में कोई भी दल यदि बहुमत के नजदीक पहुँचती है तो वह निर्दलीयों और क्षेत्रीय दलों की बैसाखी पर निर्भर करेगी।
उत्तराखण्ड में वर्तमान समय के विधानसभा चुनाव में विकास के मुद्दे नदारद रहा और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप पर ज्यादा केंद्रित होकर रह गया। ज्यादा हावी रहे। पहाड़ के अस्मिता के प्रश्न पलायन, पर्यावरण, पर्यटन, पानी, बेरोजगारी दूर-दूर तक कही सुनाई नही दिए, चुनावी घोषणा पत्र भी किसी पार्टी के नजर नही आये हैं। पिछले 21 सालों में 11 मुख्यमंत्री देने वाला उत्तराखण्ड आगे विकास का खाका तैयार करेगा या मुख्यमंत्रियों की संख्या बढ़ाने में ही लगा रहेगा यह भी देखने वाली बात होगी।
70 विधानसभा संख्या वाला उत्तराखण्ड विकास के मामले हर तरह से फिसड्डी ही रहा है। यदपि विकास हुआ है परन्तु जिस अंतिम व्यक्ति के विकास को साकार करने के लिए राज्य निर्माण के लिए 1994 में जो जनआंदोलन किया था वह अभी भी दूर की कौड़ी है। सीमांत राज्य में पलायन का मुद्दा आज भी सबसे चिंतनीय प्रश्न है। कोरोना काल में जिस प्रकार सर देश विदेश से लोग अपने घरों को लौटे आये थे उनको रोकने की कोई नीति न होने के कारण वह लोग भी रोजी-रोटी की तलाश में फिर से मैदान की दौड़ दौड़ने लगे हैं।
ऐसी स्थिति में आज भी विकास का चुनावी मुद्दा न बन पाना बड़ी ही चिंता का विषय है। चुनाव के बाद भले ही राजनीतिक दल नफा नुकसान के गणित में मशगूल है पर आज तक राष्ट्रीय राजनीतिक दलों पर भरोसा करने वाले उत्तराखण्ड के लोगों का आखिर निर्दलीयों और क्षेत्रीय दलों की ओर रुझान, राष्ट्रीय दलों के प्रति यहां के लोगों की विश्वसनीयता खोना या यूं कहें कि यहां के विकास के प्रति खरा न उतरना माना जा सकता है। भाजपा आज भी प्रत्याशी से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी पर निर्भर ज्यादा है, लोग भी समझने लगे है कि प्रत्याशी अगर काम किये होते तो अपने काम के बल पर चुनाव लड़ते। पलायन से ज्यादा धारा 370 हटाने की बात होती रही। पर्यावरण, बेरोजगारी की जगह राम मंदिर की बात होती रही।यानी स्थानीय मुद्दे दूर-दूर तक नजर नही आये, जो कि सीमांत राज्य उत्तराखंड के चिंतनीय प्रश्न है।
डॉ दलीप सिंह बिष्ट / अगस्त्यमुनि
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निर्दलीय बनेंगे ‘किंगमेकर’, खामोश वोटरों ने बढ़ाई सियासी बैचेनी
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डॉ दलीप सिंह बिष्ट / अगस्त्यमुनि
चुनाव के बाद भले ही राजनीतिक दल नफा नुकसान के गणित में मशगूल है पर आज तक राष्ट्रीय राजनीतिक दलों पर भरोसा करने वाले उत्तराखण्ड के लोगों का आखिर
निर्दलीयों और क्षेत्रीय दलों की ओर रुझान, राष्ट्रीय दलों के प्रति यहां के लोगों की विश्वसनीयता खोना या यूं कहें कि यहां के विकास के प्रति खरा न उतरना
माना जा सकता है।
14 फरवरी को उत्तराखंड में शांतिपूर्ण चुनाव सम्पन्न हो चुके है और अब सरकार किसकी बनेगी इस पर चर्चा हो रही है और मतदाता से लेकर राजनीतिक पार्टियां चाहे जो
कहें किन्तु वास्तविकता में सभी असमंजस की स्थिति में है। भले राजनीतिक दल अपने-अपने सरकार बनाने के दावे जो जरूर कर रही है परंतु उन्हें भी पता है कि बिना
बाहरी सहयोग के वह सरकार नही बना सकते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि डर हर राजनीतिक दल को लग रहा है। स्पष्ट है कि जो भी दल सरकार बनाएगा उसकी क्षेत्रीय
दलों या निर्दलीयों के बिना सरकार बनना असम्भव लगता है। यदि भाजपा-कांग्रेस में कोई भी दल यदि बहुमत के नजदीक पहुँचती है तो वह निर्दलीयों और क्षेत्रीय दलों
की बैसाखी पर निर्भर करेगी।
उत्तराखण्ड में वर्तमान समय के विधानसभा चुनाव में विकास के मुद्दे नदारद रहा और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप पर ज्यादा केंद्रित होकर रह गया। ज्यादा हावी
रहे। पहाड़ के अस्मिता के प्रश्न पलायन, पर्यावरण, पर्यटन, पानी, बेरोजगारी दूर-दूर तक कही सुनाई नही दिए, चुनावी घोषणा पत्र भी किसी पार्टी के नजर नही आये हैं।
पिछले 21 सालों में 11 मुख्यमंत्री देने वाला उत्तराखण्ड आगे विकास का खाका तैयार करेगा या मुख्यमंत्रियों की संख्या बढ़ाने में ही लगा रहेगा यह भी देखने वाली
बात होगी।
70 विधानसभा संख्या वाला उत्तराखण्ड विकास के मामले हर तरह से फिसड्डी ही रहा है। यदपि विकास हुआ है परन्तु जिस अंतिम व्यक्ति के विकास को साकार करने के लिए
राज्य निर्माण के लिए 1994 में जो जनआंदोलन किया था वह अभी भी दूर की कौड़ी है। सीमांत राज्य में पलायन का मुद्दा आज भी सबसे चिंतनीय प्रश्न है। कोरोना काल में जिस
प्रकार सर देश विदेश से लोग अपने घरों को लौटे आये थे उनको रोकने की कोई नीति न होने के कारण वह लोग भी रोजी-रोटी की तलाश में फिर से मैदान की दौड़ दौड़ने लगे हैं।
ऐसी स्थिति में आज भी विकास का चुनावी मुद्दा न बन पाना बड़ी ही चिंता का विषय है। चुनाव के बाद भले ही राजनीतिक दल नफा नुकसान के गणित में मशगूल है पर आज तक
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों पर भरोसा करने वाले उत्तराखण्ड के लोगों का आखिर निर्दलीयों और क्षेत्रीय दलों की ओर रुझान, राष्ट्रीय दलों के प्रति यहां के लोगों
की विश्वसनीयता खोना या यूं कहें कि यहां के विकास के प्रति खरा न उतरना माना जा सकता है। भाजपा आज भी प्रत्याशी से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी पर निर्भर
ज्यादा है, लोग भी समझने लगे है कि प्रत्याशी अगर काम किये होते तो अपने काम के बल पर चुनाव लड़ते। पलायन से ज्यादा धारा 370 हटाने की बात होती रही। पर्यावरण,
बेरोजगारी की जगह राम मंदिर की बात होती रही।यानी स्थानीय मुद्दे दूर-दूर तक नजर नही आये, जो कि सीमांत राज्य उत्तराखंड के चिंतनीय प्रश्न है।
[caption id="attachment_24576" align="aligncenter" width="622"] डॉ दलीप सिंह बिष्ट / अगस्त्यमुनि[/caption]