✍️ हेमन्त चौकियाल / अगस्त्यमुनि

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आम इन्सान जब एक ही दिन में भूख और प्यास से व्याकुल हो उठता हा तो हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं कि कोई शख्स दुश्मन की मांद में घुसकर कैसे सात दिनों तक भूख और प्यास को भी मात देकर दुश्मन की मांद में छिपकर वहाँ की टोह लेता रहा होगा, और मौत को मात देकर सुरक्षित अपनी सरजमीं पर लौट आया हो। जी हाँ हम आज बात कर रहे हैं, भारतीय सेना के एक ऐसे ही जांबाज ठाकुर उदय सिंह रावत की। जो 1965 के भारत - पाक युद्ध के समय 7 दिनों तक दुश्मनों का पीछा करते हुए अपने साथी सैनिकों से अलग होकर पाकिस्तान की सीमा में घुस कर,अपने मिशन को पूरा कर सही सलामत वापस अपने वतन को लौट आये। यह वीर जवान था उत्तराखंड प्रदेश के तत्कालीन गढ़वाल जिले के (अब जिला रूद्रप्रयाग) धारकोट गाँव निवासी उदय सिंह रावत। भारतीय सेना के इस बार सैनिक उदय सिंह रावत का जन्म 1942 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के गढ़वाल जिले के धारकोट गाँव में श्री झगड़ सिंह रावत के घर में हुआ। पिता झगड़ सिंह रावत एक सामान्य कृषक थे तो माँ छोटी देवी सामान्य गृहणी। आम पहाड़ियों की तरह ही पिता झगड़ सिंह गरीबी में अपने परिवार और बच्चों का पालन पोषण कर रहे थे। परिवार में बड़ा बेटा होने की वजह से उदय सिंह को बहुत छोटी सी उम्र में ही खेती बाड़ी में माँ-बाप का हाथ बँटाना पड़ता था। प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए पिता ने उदय को नजदीकी आधारिक विद्यालय चोपड़ा में दाखिला करवा दिया। गाँव के अन्य बच्चों के साथ उदय भी सुबह पाठशाला जाता और शांम को घर लौटकर जीवन यापन के लिए जद्दोजहद करते माँ-बाप के साथ हाथ बँटाता। माँ बाप की कठिन दिनचर्या को देखकर नन्हे उदय के मन में पिता का सहारा बनने की ललक बार बार बलवती हो उठती थी। अतः कक्षा 3में ही उदय ने स्कूल छोड़ दिया और अपने हल-बैलों के साथ अपनी उपजाऊ जमीन से पैदावार शुरू कर दी। मेहनती होने के कारण जल्दी ही उदय ने खेती से इतनी पैदावार शुरू कर दी कि परिवार को भरपेट भोजन मिल सके। खेती के अतिरिक्त उन दिनों आज की तरह बहुत रोजगार के साधन नहीं थे। बस रोजगार का एक और साधन यह था कि परिवार का कोई एक पुरुष सेना में भर्ती हो जाय। पर अब यह उम्मीद परिवार के दूसरे बेटे, याने उदय के छोटे भाई में ही थी, जिसे पिता इस उम्मीद से स्कूल भेज रहे थे कि वह पढ़ लिख कर सेना में भर्ती हो और परिवार के दिन बहुरें। चीन के साथ 1962 के युद्ध के बाद देश के हालात तेजी से बदल रहे थे। भारत जल्दी ही जल्दी अपनी सेना को संभावित अगले युद्ध के लिए अपनी सामरिक तैयारियों में लगा था, इसी के चलते देश के अलग अलग हिस्सों से मजबूत खद काठी के युवाओं को सेना में भर्ती किया जा रहा था। 1964 में एक ऐसी ही भर्ती के समय उदय ने भी चुपचाप हिस्सा लिया। अपनी मजबूत कद काठी के कारण उदय सेना में ले लिया गया। जब यह बात घरवालों को पता चली तो माँ ने की दिनों तक खाना पीना छोड़ दिया, लेकिन अंतत: परिवार की जिम्मेदारियों का हवाला देकर उदय माँ को मनाने में सफल रहे, और अपनी ट्रेनिंग के लिए लैन्सीडॉन पहुंच गये। अभी ट्रेनिंग पूरी भी नहीं हुई थी कि पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। उदय सिंह को थर्ड गढ़वाल जिसे रॉयल गढ़वाल के नाम से जाना जाता था, में शामिल कर पंजाब की सीमा पर तैनात कर दिया गया। पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान ही उदय पाकिस्तान की सीमा में घुसकर बिना कुछ खाये - पिये 7 दिनों तक एक नहर की ओट में अपने आपको छिपाते हुए, दुश्मन देश की गतिविधियों पर नजर रखी। सातवें दिन दुश्मन देश के संतरी को चकमा देकर, नदी को पार कर भारतीय सीमा में प्रवेश किया। भारतीय सेना की गोरखा रेजीमेंट 5वीं बटालियन ने इनकी तृतीय गढ़वाल रेजीमेंट को सकुशल वापस पहुंचने का संदेश प्रेषित किया। पहचान तथा अन्य औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद उदय अपनी यूनिट में लौट आये। उदय के कमाण्डिंग ऑफिसर श्री लक्ष्मण सिंह गुसाईं ने, जो नंदप्रयाग के निवासी थे, ने उदय को अपना लक्ष्य पूरा कर सकुशल लौट आने के लिए बधाई दी। 1971 के पाकिस्तान के साथ युद्ध में उदय पठानकोट, स्याल कोट आदि स्थानों पर तैनात रहे। इन स्थानों पर तैनाती के दौरान उदय ने अपनी वीरता से अपने उच्च अधिकारियों और सहकर्मी साथियों को खासा प्रभावित किया। 1980 में सेवानिवृत्ति के बाद उदय गांव लौट आये। इसी दौरान धर्मपत्नी का निधन हो गया, जिस कारण खेती बाड़ी के साथ बच्चों के लालन पालन की जिम्मेदारी भी इनके कन्धों पर आन पड़ी। लोगों को लगने लगा कि उदय इस जिम्मेदारी को सही ढंग से नहीं निभा पायेंगे, इसलिए परिजनों और शुभेच्छाओं ने दूसरा विवाह करने की सलाह दी, लेकिन युद्ध के मौर्चे पर अपना साहस दिखाने वाले सेना के इस बीर ने घरेलू मोर्चे को भी बखूबी संभाला। विवाह न करने का कारण बताते हुए उदय सिंह बताते हैं कि मन में यह डर था कि पता नहीं दूसरी माँ बच्चों को पूरा प्यार देती है या नहीं, क्योंकि तब सौतेली माँओं के किस्सों पर आधारित कई गीत पहाड़ की वादियों में सुनने को मिलते थे। उदय बताते हैं कि अक्सर जब भी रेडियो पर इन गानों को सुनता तो काल्पनिक डर मन पर हावी हो जाता, इसलिए पुनर्विवाह पर विचार ही नहीं किया। बच्चों की परवरिश के साथ साथ सामाजिक दायित्वों का निर्वहन भी उदय ने भली भांति किया। सेना में कई स्थानों पर रहने के अनुभव को उन्होने आज से 45साल पहले गांव के सुख दुख के संदेशों को पहुंचाने के लिए कई अनदेखी जगहों की यात्रा पगडण्डियों को पार कर की। उस समय संदेशों को पहुंचाने का जरिया मौखिक संदेश लेकर व्यक्ति को ही जाना होता था। बचपन से ही निडर स्वभाव का होने के कारण उदय सिंह कई बार सुख दुख के ऐसे संदेशों को लेकर रात भर यात्रा भी करते थे। 80वर्ष की उम्र में भी उदय सिंह आज भी गाँव के सामाजिक और धार्मिक कार्यों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हैं। राजनैतिक मुद्दों पर भी उदय अपनी राय बड़ी बेबाकी और साफगोई से रखते हैं। रामलीला, पाण्डव लीला, शादी ब्याह जैसे मौकों पर भी उनकी सक्रियता आज से 45साल पहले की जैसी ही है, जो गाँव के युवाओं के लिए प्रेरणा का काम करती है। @हेमंत चौकियाल रा0उ0प्रा0वि0डाँगी गुनाऊँ अगस्त्यमुनि (रूद्रप्रयाग)