कभी टूटी फूटी कारों, कभी बैसाखी तो कभी स्ट्रेचर में लद कर लोग यहां पहुंचते हैं, मुश्किल से चलती सांस को कतरा कतरा संभालते हर साल हजारों लोग मुक्ति की चाह में वाराणसी आते हैं। इनमें से कुछ को पवित्र गंगा के किनारे बने वृद्धाश्रमों में जगह मिलती है, जहां वे गंगा की लहरों को देख देख एक दिन उसी के तट पर अंतिम संस्कार का सपना देखते हैं। इनमें से कुछ लोग काशी लाभ मुक्ति भवन में जगह पाने की कोशिश भी करते हैं। इस भवन में सिर्फ उन्हीं को जगह मिलती है जिनके जीवन के कुछ ही दिन शेष हैं। .ऐेसे लोगों का ठिकाना सिर्फ मुक्ति भवन ही नहीं है. हर महीने करीब 20 स्त्री पुरुष दुनिया भर से अपना आखिरी वक्त बिताने वाराणसी के "डेथ होटल" में भी आते हैं. औपनिवेशिक दौर की एक पुरानी इमारत में चल रहे इस होटल में 12 कमरे हैं।

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हिंदू मानते हैं कि वाराणसी में मर कर वो जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाएंगे यानि उन्हें मोक्ष मिल जाएगा. गंगा के घाट पर अंतिम संस्कार इसका एक और फायदा है जो उन्हें यहां खींच लाता है। मुक्ति भवन जैसे यहां कई गेस्ट हाउस पहले हुआ करते थे लेकिन अब वो सामान्य होटलों में तब्दील हो गए हैं क्योंकि यहां आने वाले सैलानी इनमें जगह पाने के लिए अच्छे पैसे देते हैं. गंगा के घाट पर अनवरत जलती श्मशान की आग लोगों को अभिभूत करती है। चार दशक से मुक्ति भवन की देखरेख कर रहे भैरवनाथ शुक्ला बताते हैं कि मुक्ति भवन में आने वाले ज्यादातर मेहमान कुछ ही दिनों में सिधार जाते हैं. आमतौर पर इन मेहमानों को दो हफ्ते के लिए यहां रहने की अनुमति मिलती है. भैरवनाथ शुक्ला ने कहा, "कुछ अपवाद भी होते हैं. कुछ लोग बहुत बीमार होते हैं लेकिन फिर भी एक हफ्ते से ज्यादा जी जाते हैं. कई बार तो हम परिवार के लोगों से कहते हैं कि उन्हें वापस ले जाएं और थोड़े दिन बाद फिर ले आएं. कभी कभी हम उन्हें ज्यादा दिन रहने देते हैं." वाराणसी में बढ़ते विकास के बाद दान के पैसे से चलने वाले मुक्ति भवन से अब गंगा नहीं दिखाई देती. हालांकि अभी भी उन लोगों की कमी नहीं है जो मुक्ति भवन में आ कर मरने की चाह रखते हैं। कई लोग तो हजारों किलोमीटर दूर से यहां आते हैं और कुछ विदेशों से विमान के जरिए यहां पहुंचते हैं. मुक्ति भवन में रहने के लिए हर दिन करीब 75 रुपये देने पड़ते हैं. रोजाना की आरती के लिए एक बुजुर्ग "पंडित" पुजारी आते हैं जो यहां रहने वालों पर गंगा जल भी छिड़कते हैं। जो लोग थोड़ा और पैसा खर्च कर सकते हैं उनके लिए एक गायक मंडली भी है जो बीमार लोगों के लिए भजन गाती है. भैरवनाथ शुक्ला बताते हैं, "हर वर्ग के और हर तरह की पृष्ठभूमि के लोग यहां आते हैं. पूरब से, दक्षिण से, सुदूर उत्तर पूर्व और विदेशों से भी लोग आते हैं. ज्यादातर लोग यहां परिवार के साथ आते हैं जो प्रार्थना करते हैं और मृत्यु का इंतजार करते हैं." मुक्ति भवन 1908 में शुरू किया गया था औऱ अब तक यहां करीब 15000 लोग मर चुके हैं जिनका गंगा के घाट पर अंतिम संस्कार किया गया। काशी में मरते हैं उन्हें सीधे मोक्ष मिलता है मोक्ष भवन के कमरे में सोने के लिए एक तख्त, एक चादर और तकिया दिया जाता है। यहां आने वालों को कम से कम सामान के साथ अंदर आने की इजाजत मिलती है। यहां के पुजारी रोजना सुबह शाम आरती करने के बाद लोगों पर गंगाजल छिड़कते हैं ताकि उन्हें शांति से मुक्ति मिल सके। ऐसा माना जाता है कि जो लोग काशी में मरते हैं उन्हें सीधे मोक्ष मिलता है। पहले कई मुक्ति भवन हुआ करते थे इसका महत्व एक तरह से मुस्लिमों के हज की तरह है। पुराने वक्त में जब लोग कहा करते, काशी करने जा रहे हैं तो इसका एक मतलब ये भी था कि लौटकर आने की संभावना कम ही है। पहले मुक्ति भवन की तर्ज पर कई भवन हुआ करते थे लेकिन अब वाराणसी के अधिकांश ऐसे भवन कमर्शियल हो चुके हैं और होटल की तरह पैसे चार्ज करते हैं। लेकिन डालमिया ट्रस्ट द्वारा संचालित मुक्त भवन अब भी मरने का इंतजार कर रहे लोगों के लिए काम कर रहा है।