अब तक फ़िल्म जगत और देश दुनिया की घटनाओं पर पैनी नज़र रखने वाले मेरे दोस्त इतना तो जान ही चुके होंगे कि विवेक अग्निहोत्री की यह फ़िल्म कश्मीर में 19 जनवरी 1990 की तिथि से प्रारम्भ हुए कश्मीरी पंडितों/हिंदुओं के सिलसिलेवार जनसंहार और उसके उपजे त्रासद पलायन, दमन, पीड़ा, भय, आर्थिक-सामाजिक अवसाद और अंतर्द्वंद पर आधारित है…
ये फ़िल्म हम सब भारतीयों के लिए एक आईना है : असुविधाजनक और पीड़ाजनक इतिहास के आईने में अपने -अपने चेहरों और चरित्रों के पुनर्पाठ करने का… दर्द की केवल अनुभूति होती है, उसका मंचन नहीं हो सकता… और सफलतापूर्वक दर्द की अनुभूति दर्द निवारण की दिशा में पहला कदम कहा जा सकता है…
साहित्य और संगीत की तरह फ़िल्म का भी एक बड़ा उदेश्य हमें इंसान बनाना होता है, barbarity को रूपांतरित करके उसकी जग़ह humanity और humility को दृढ़ता से स्थापित करना होता है…The Kashmir Files # का प्रत्येक ‘शो’ हम भारतीयों (जिसमें हिन्दू-मुसलमान सहित सभी मज़हबों और समुदायों के लोग शामिल हैं) की चित्तशुद्धि भी करेगा…
मेरा मानना है कि चित्तशुद्धि करना इस फ़िल्म का एक केंद्रीय उदेश्य है….नहीं है, तो होना चाहिए।हम सबकी रूह तक उतरनी चाहिए यह फ़िल्म …The Kashmir Files की मूल सफ़लता इस बात से नहीं आँकी जानी चाहिए कि इसने बॉक्स ऑफिस पर कितने करोड़ का कारोबार किया और फ़िल्म समीक्षकों ने इसे कितने स्टार दिए। शायद आर्थिक लाभ निर्देशक/निर्माता का लक्ष्य है भी नहीं…वे जो लाभ कमाना चाहते हैं वह है : भारत के लोग अपने मादरेवतन से अकारण बेदख़ल इस अनकही …अनदेखी पीड़ा को सुनें, देखें और महसूस करें उस त्रासद काल को…
इस फ़िल्म की सफलता यह होगी कि :
1. एक बार हर भारतीय इसे देख ले और उस दर्द का सतही आभास कर ले जो 32 साल पहले हमारे 4 लाख भाई बहिनों को पूस की एक सर्द रात को मिला था और जिसकी पीड़ा आँसू, अवसाद और आक्रोश बनकर उनकी स्वासों से प्रतिपल अभिव्यक्त होती रहती है….कश्मीरी पंडितों/हिंदुओं की एक बड़ी पीड़ा यह है कि उनके अपने देश के लोग उनकी पीड़ा के प्रति लगभग अनजान हैं और न उसे जानने के इच्छुक हैं।
2. इस फ़िल्म की दूसरी बड़ी सफ़लता यह होगी कि आज़ादी की फंतासी के नाम पर अब बूढ़ी या अधेड़ हो चुकी कश्मीरी मुसलमानों की जिस पीढ़ी ने पिछले 32 सालों में अपने बच्चों से लगातार झूठ बोला कि ‘पंडितों पर कोई ज़ुल्म हुआ ही नहीं और वे तो गवर्नर जगमोहन के कहने पर घाटी छोड़कर गए हैं’ ! –वे अब झूठ बोलने से बाज़ आएं और स्वीकार करें कि हाँ मज़हब या मौत के ख़ौफ़ ने उन्हें शैतान बना दिया था और उनके हमसायों ने जो झेला, उसमें उनकी भी मूक संलिप्तता रही है… वे denial mode से बाहर आएं….अन्यथा ये फ़िल्म उन्हें ऐसा करने पर विवश कर देगी…
3. दुर्भाग्य से श्रीनगर में कोई सिनेमा हॉल नहीं है लेकिन मेरा मानना है कि इस फ़िल्म को आज के उन युवा कश्मीरी नौजवानों को जरूर देखना चाहिए जो निशात और शालीमार बाग के टूलिप्स से साथ भले ही बड़े हुए हों लेकिन जिन्होंने हेरथ की रात को वितस्ता के किनारे झिलमिलाते दीयों को नहीं देखा…जिन्होंने रैनाबाड़ी से लेकर हब्बाकदल तक केवल वीरान और भुतवा ‘त्रिपोर’ मकानों को तो खड़े देखा लेकिन कभी इन ओलों के बाशिंदों की तलाश नहीं की…. सबसे ज़्यादा चित्तशुद्धि आज के इसी युवा कश्मीरी नौजवान की होनी चाहिए जिसे अपने आसपास साँझी संस्कृति और नुन्द ऋषि की तर्बियत का कोई निशान नहीं दिखा… या दिखाया गया….
4. इस फ़िल्म की चौथी बड़ी सफ़लता यह मानी जायेगी जब ‘बट्टा मज़ार’ जैसी जग़हों के नाम बदलकर ‘बट्टा बाज़ार’ होगा और पंडितों के सज़ग, सबल एहसास , कूरों की खनकती हँसी , मंदिरों की घंटियों के गीत एक बार फिर गुनगुनायेंगे… जब हारी पर्तत फिर गुलज़ार होगा… जब 100 कश्मीरी पंडितों के गाँव हाल में एक बार फ़िर रौनक आएगी… जब सोपोर और पाम्पोर में केसर के खेत फ़िर झूमकर गाएंगे…. जब प्रवासी लौटकर आएंगे
स्त्रीदेश में, जहाँ दिद्दा और कोटारानी की शूरता के अनगिनत किस्से हैं, जहाँ ललद्यद के बाख हैं, जहाँ पतंजलि और पंचतंत्र के मंत्र हैं, जहाँ ललितादित्य मुक्तपीढ़ का श्रम सौरभ है, जहाँ शारदापीठ के अनगढ़ पत्थरों ने अपनी गौरव गाथा को भित्तिचित्र के देवों के कानों में सीलबंद कर दिया है…. उस काशिर मे एक बार फ़िर ज़िन्दगी झूम उठे पंडितों के एहसास और अट्टहास से….उनकी ज्ञान-ध्यान की परंपराओं से….
समोवार शहनाई बन जाये…. उम्मीद के उजाले की !
हिमालय से अपने हमवतनों के लिए मेरी यही दुआ है…
चरणसिंह केदारखंडी, ज्योतिर्मठ
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The Kashmir Files: ये फ़िल्म हम सब भारतीयों के लिए एक आईना है
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चरणसिंह केदारखंडी / ज्योतिर्मठ
The Kashmir Files फ़िल्म कल से पूरे देश में चुनिंदा सिनेमा हॉल्स में रिलीस हो चुकी है...इसे देखने वाले बहुत भावुक हो रहे हैं, देखिए वीडियो-
अब तक फ़िल्म जगत और देश दुनिया की घटनाओं पर पैनी नज़र रखने वाले मेरे दोस्त इतना तो जान ही चुके होंगे कि विवेक अग्निहोत्री की यह फ़िल्म कश्मीर में 19 जनवरी 1990 की
तिथि से प्रारम्भ हुए कश्मीरी पंडितों/हिंदुओं के सिलसिलेवार जनसंहार और उसके उपजे त्रासद पलायन, दमन, पीड़ा, भय, आर्थिक-सामाजिक अवसाद और अंतर्द्वंद पर
आधारित है...
ये फ़िल्म हम सब भारतीयों के लिए एक आईना है : असुविधाजनक और पीड़ाजनक इतिहास के आईने में अपने -अपने चेहरों और चरित्रों के पुनर्पाठ करने का... दर्द की केवल
अनुभूति होती है, उसका मंचन नहीं हो सकता... और सफलतापूर्वक दर्द की अनुभूति दर्द निवारण की दिशा में पहला कदम कहा जा सकता है...
साहित्य और संगीत की तरह फ़िल्म का भी एक बड़ा उदेश्य हमें इंसान बनाना होता है, barbarity को रूपांतरित करके उसकी जग़ह humanity और humility को दृढ़ता से स्थापित करना होता है...The Kashmir
Files # का प्रत्येक 'शो' हम भारतीयों (जिसमें हिन्दू-मुसलमान सहित सभी मज़हबों और समुदायों के लोग शामिल हैं) की चित्तशुद्धि भी करेगा...
मेरा मानना है कि चित्तशुद्धि करना इस फ़िल्म का एक केंद्रीय उदेश्य है....नहीं है, तो होना चाहिए।हम सबकी रूह तक उतरनी चाहिए यह फ़िल्म ...The Kashmir Files की मूल सफ़लता इस
बात से नहीं आँकी जानी चाहिए कि इसने बॉक्स ऑफिस पर कितने करोड़ का कारोबार किया और फ़िल्म समीक्षकों ने इसे कितने स्टार दिए। शायद आर्थिक लाभ
निर्देशक/निर्माता का लक्ष्य है भी नहीं...वे जो लाभ कमाना चाहते हैं वह है : भारत के लोग अपने मादरेवतन से अकारण बेदख़ल इस अनकही ...अनदेखी पीड़ा को सुनें, देखें और
महसूस करें उस त्रासद काल को...
इस फ़िल्म की सफलता यह होगी कि :
1. एक बार हर भारतीय इसे देख ले और उस दर्द का सतही आभास कर ले जो 32 साल पहले हमारे 4 लाख भाई बहिनों को पूस की एक सर्द रात को मिला था और जिसकी पीड़ा आँसू, अवसाद और
आक्रोश बनकर उनकी स्वासों से प्रतिपल अभिव्यक्त होती रहती है....कश्मीरी पंडितों/हिंदुओं की एक बड़ी पीड़ा यह है कि उनके अपने देश के लोग उनकी पीड़ा के प्रति लगभग
अनजान हैं और न उसे जानने के इच्छुक हैं।
2. इस फ़िल्म की दूसरी बड़ी सफ़लता यह होगी कि आज़ादी की फंतासी के नाम पर अब बूढ़ी या अधेड़ हो चुकी कश्मीरी मुसलमानों की जिस पीढ़ी ने पिछले 32 सालों में अपने बच्चों से
लगातार झूठ बोला कि 'पंडितों पर कोई ज़ुल्म हुआ ही नहीं और वे तो गवर्नर जगमोहन के कहने पर घाटी छोड़कर गए हैं' ! --वे अब झूठ बोलने से बाज़ आएं और स्वीकार करें कि हाँ
मज़हब या मौत के ख़ौफ़ ने उन्हें शैतान बना दिया था और उनके हमसायों ने जो झेला, उसमें उनकी भी मूक संलिप्तता रही है... वे denial mode से बाहर आएं....अन्यथा ये फ़िल्म उन्हें
ऐसा करने पर विवश कर देगी...
3. दुर्भाग्य से श्रीनगर में कोई सिनेमा हॉल नहीं है लेकिन मेरा मानना है कि इस फ़िल्म को आज के उन युवा कश्मीरी नौजवानों को जरूर देखना चाहिए जो निशात और
शालीमार बाग के टूलिप्स से साथ भले ही बड़े हुए हों लेकिन जिन्होंने हेरथ की रात को वितस्ता के किनारे झिलमिलाते दीयों को नहीं देखा...जिन्होंने रैनाबाड़ी से
लेकर हब्बाकदल तक केवल वीरान और भुतवा 'त्रिपोर' मकानों को तो खड़े देखा लेकिन कभी इन ओलों के बाशिंदों की तलाश नहीं की.... सबसे ज़्यादा चित्तशुद्धि आज के इसी
युवा कश्मीरी नौजवान की होनी चाहिए जिसे अपने आसपास साँझी संस्कृति और नुन्द ऋषि की तर्बियत का कोई निशान नहीं दिखा... या दिखाया गया....
4. इस फ़िल्म की चौथी बड़ी सफ़लता यह मानी जायेगी जब 'बट्टा मज़ार' जैसी जग़हों के नाम बदलकर 'बट्टा बाज़ार' होगा और पंडितों के सज़ग, सबल एहसास , कूरों की खनकती हँसी ,
मंदिरों की घंटियों के गीत एक बार फिर गुनगुनायेंगे... जब हारी पर्तत फिर गुलज़ार होगा... जब 100 कश्मीरी पंडितों के गाँव हाल में एक बार फ़िर रौनक आएगी... जब सोपोर और
पाम्पोर में केसर के खेत फ़िर झूमकर गाएंगे.... जब प्रवासी लौटकर आएंगे
स्त्रीदेश में, जहाँ दिद्दा और कोटारानी की शूरता के अनगिनत किस्से हैं, जहाँ ललद्यद के बाख हैं, जहाँ पतंजलि और पंचतंत्र के मंत्र हैं, जहाँ ललितादित्य
मुक्तपीढ़ का श्रम सौरभ है, जहाँ शारदापीठ के अनगढ़ पत्थरों ने अपनी गौरव गाथा को भित्तिचित्र के देवों के कानों में सीलबंद कर दिया है.... उस काशिर मे एक बार फ़िर
ज़िन्दगी झूम उठे पंडितों के एहसास और अट्टहास से....उनकी ज्ञान-ध्यान की परंपराओं से....
समोवार शहनाई बन जाये.... उम्मीद के उजाले की !
हिमालय से अपने हमवतनों के लिए मेरी यही दुआ है...
चरणसिंह केदारखंडी, ज्योतिर्मठ