क्या है फूलदेई त्यौहार, जानिए फूलदेई के प्रिय फूल “फ्योंलि” की लोककथा

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हेमन्त चौकियाल / अगस्त्यमुनि-


  • वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं उत्तराखंड के तीज – त्यौहार
  • किशोरों में फूलदेई संवेगात्मक विकास के लिए सर्वथा उपयुक्त

उत्तराखंड भौगोलिक रूप से जितनी विविधताओं से भरा है, उतनी की विविधता इसके तीज त्योहारों, रस्मो-रिवाजों और परम्पराओं में भी दिखती है। मकर संक्रांति हो या श्रावणी, माघ पंचमी हो या बैशाखी, दीपावली हो या एकादशी, इसके हर त्यौहार में कहीं न कहीं प्रकृति से एकरूपता के दर्शन के साथ वैज्ञानिकता का पुट समाहित है।प्रकृति ने जो अप्रतिम उपहार मानव को दिये हैं उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए जहाँ उत्तराखंड में माघ माह की पंचमी तिथि को जौ की बालियाँ हर घर की देहरी के शीर्ष कोनों (दरवाजे के ऊपरी किनारों) पर गोमय (गाय के गोबर) के साथ लटकाई जाती हैं तो वहीं, शीत ऋतु के अवसान के बाद वसंत आगमन के बाद नवीन ऊर्जा से पूरित धरती से भाँति-भाँति के रंगीन पुष्प चुनकर शुभकामनाओं के रूप में हर घर की देहरी पर चढ़ाये(बिखेरे) जाते हैं। ऐसे ही हिन्दु नववर्ष (संवत) के प्रथम माह चैत्र की संक्रांति से मनाये जाने वाले फूलदेई त्योहार से बात प्रारंभ करते हैं – 

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क्या है फूलदेई त्योहार

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चैत्र मास की संक्रांति के साथ ही बच्चों का फूलदेई का त्योहार शुरू हो गया है। उत्तराखंड के अधिकांश हिस्सों में यह त्योहार आठ दिनों तक चलता है, जबकि दशज्यूला नागपुर परगने में फूल डालने की इस परम्परा को केवल संक्रांति को ही करते हैं। उत्तराखंड के अधिकांश हिस्सों में ये फूल डालने का क्रम माह की आठ गते तक मनाया जाता है। कुमाऊँ मण्डल के भी लगभग पूरे क्षेत्र में यह त्योहार एक दिन अर्थात संक्रांति को ही मनाया जाता है। टिहरी जनपद के अधिकांश हिस्सों में फूल डालने का यह क्रम पूरे चैत्र माह चलता है। यों तो हिन्दू नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है, लेकिन चैत्र मास प्रारंभ होने से बच्चे इसे नव संवत्सर के प्रारंभ होने के रूप में मनाते हैं।

परम्परा के पीछे निहित भावनाएं और विज्ञान

इस परम्परा के पीछे की भावना को समझने का प्रयास करें तो यह बच्चों के द्वारा प्रत्येक घर को अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करने का एक अनोखा लेकिन विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक और भारतीय तरीका है। हमारे वेद पुराणों में फूल देकर और फूल-पुष्प से पूजित कर सम्मानित करने का विधान है। इसी भावना के तहत बच्चे बसुधैव कुटुम्बकम की परम्परा का निर्वहन करते हुए प्रत्येक घर को प्रेम, स्नेह, खुशी और सुख-शान्ति के प्रतीक फूलों को घर की देहरी पर बिखेर कर यह कामना की जाती है कि इस घर में पूरे सम्वत (पूरे साल) इन फूलों की तरह खुशियां बरसती रहें।

परम्परा में निहित है पूरी वैज्ञानिकता

इस परम्परा का दूसरा पहलू यह है कि इस प्रभात फेरी और इस पूरी प्रक्रिया के पीछे कई वैज्ञानिक कारण हैं, जिनमें बच्चे फूल बीनने के लिए अपने नजदीकी क्षेत्रों का भ्रमण कर प्रकृति के सौन्दर्य को निहारते हुए उससे तादात्म स्थापित करते हैं, वहीं प्रकृति की जैव विविधता को भी जानते/समझते हैं, और उसके संरक्षण- संवर्धन के बारे में, अपने बड़ों से सुनते/समझते हैं। आइए उन वैज्ञानिक कारणों का अवलोकन करते हैं-

पहला कारण यह कि बसंत पंचमी के बाद जहाँ प्रकृति में बसन्त का आगमन प्रारंभ हो जाता है। पतझड़ से अनावृत हुए (नंगे) पौधों में नईं कोंपलें विकसित होने लगती हैं। चैत्र संक्रांति आते-आते अधिकांशतः प्रकृति में रंग-बिरंगे फूल और औषधीय गुणों वाले लता-बेल-पौधे अपने यौवन पर होते हैं, जिससे वातावरण सुगन्धमय बना रहता है। फ्योंली के पीले फूल धरती को मानो पीली साड़ी पहनाने का उपक्रम कर रहे हों, वहीं बुरांश के सुर्ख लाल फूल उसे नवयौवना का रूप देने को आतुर हों। मोळू, आरू, घिघारूं, बासिंगा के फूल प्रकृति का अभिनंदन अपने रूप और खुशबू से करते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में अब तक मौसम की नमी में भी काफी कमी आ जाती है, जिस कारण मौसम काफी सुहावना हो जाता है, ऐसे वातावरण में बच्चे जब फूल डालने के लिए प्रभात फेरी करते हैं, तो सुबह सुबह की यह सैर उनकी बढ़ती उम्र के लिए संजीवनी का सा काम करता है। प्रकृति से शुद्ध और औषधीय वायु उनके फेफड़ों में जाती है तो उनमें नया रक्त निर्माण, बल, बुद्धि, ताजगी व उत्तक निर्माण की प्रक्रिया बहुत तेजी से प्रारंभ होती है।

किशोरावस्था के बच्चों में संवेगात्मक विकास के लिए अनोखा पर्व

दूसरा कारण कि यह त्योहार बच्चों के आपसी मेल- मिलाप से बच्चों के संवेगात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। केवल और केवल यही एक मात्र त्योहार है जिसमें बच्चे अपने अनुसार, अपने कार्यों को संपादित करते हैं, जिससे बच्चों की नेतृत्व क्षमता भी निखरती है।

बच्चों के आपसी मेल- जोल से पास-पड़ोस में भी बच्चों ही नहीं, बल्कि उनके बड़े – बुजुर्गो के भी पारिवारिक संबंध मजबूत होते हैं, जिससे आपसी प्यार प्रेम में भी बढ़ोतरी होती है। शहरों में अगल – बगल रहने वालों पड़ोसियों में भी जान-पहचान न होना, जहाँ एक अलग तरह का भय व्याप्त रहता है, वहीं इस त्योहार के माध्यम से बच्चे एक दूसरे से बातचीत करके उस भय के माहौल को समाप्त करने और परिवारों के बीच सौहार्द बढ़ाने की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करते हैं।पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो केवल और केवल उत्तराखंड का ही यह एक मात्र त्योहार है जो पूरी वैज्ञानिकता लिए हुए केवल बच्चों का, बच्चों के लिए बना त्योहार है।

त्योहार में खाश महत्व है फ्योंली का

उत्तराखंड के लगभग सम्पूर्ण क्षेत्र में उगने वाले एक पीले रंग के फूल का नाम हैं फ्योंली। पीले रंग का धरती से चिपका यह फूल चैत्र माह के प्रारंभ में अपने पूर्ण यौवन पर होता है। इस फूल के बिना बच्चे फूलदेई के त्योहार को अधूरा सा मानते हैं। इस फूल उगने के पीछे की मान्यताएं भी उतनी सुन्दर और रोचक हैं जितना कि इस फूल का आकर्षण।

क्या है फ्योंली के फूल

 

फ्योंली के फूल उगने के पीछे की एक मान्यता पौराणिक समय से ही उत्तराखंड की किंवदंतियों और मान्यताओं में है। इस फूल को याद का फूल भी कहा जाता है। “उत्तराखंड की परम्पराओं में निहित वैज्ञानिकता” के अध्ययन के दौरान यह कहानी मुझे ऊखीमठ विकास खण्ड के स्यासूँ गाँव निवासी स्व० थेपड़ सिंह रावत जी से सुनने को मिली थी।शोध के दौरान बहुत से लोगों से इसी तरह की मिलती जुलती अन्य कहानियाँ/किंवदंतियाँ/जनश्रुतियाँ भी सुनने को मिली। लेकिन सबसे जादा लोगों के मुंह यही कहानी गढ़वाळी भाषा में सुनने को मिली, जिसका हिन्दी अनुवाद उन्ही के शब्दों में –

पुराने समय में फ्योंली नाम की एक लड़की एक गांव में अपने माता-पिता के साथ रहती थी। उस गांव में उसकी उम्र के अन्य बच्चे नहीं थे, इसलिए आस पास के पशु पक्षी उसके सखी-सहेली बन गये थे। ज्यों ज्यों फ्योंली बड़ी होती गई उसकी बाल क्रीड़ाओं का क्षेत्र भी बढ़ता गया। वह अपने इन पशु-पक्षी मित्रों के साथ दूर तक खेलने निकल जाती। इसी क्रम में समीपस्थ जंगल के पेड़-पौधे, वृक्ष – लताएं भी उसकी दोस्त बन गईं। वे सब आपस में बड़े हेल-मेल और प्रेम से रहते। एक बार एक दूर देश का राजकुमार शिकार का पीछा करते करते, भटकते हुए वहाँ पहुँच गया। राजकुमार फ्योंली पर मोहित हो गया।उसने फ्योंली के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, लेकिन फ्योंली ने हां नहीं की। कारण यह था कि फ्योंली इस क्षेत्र को और अपने सखी – सहेलियों को (जिसमें जंगल के पशु-पक्षी, लता-वृक्ष सम्मिलित थे) छोड़कर नहीं जाना चाहती थी। जब फ्योंली राजकुमार के साथ जाने को राजी नहीं हुईं तो राजकुमार बलपूर्वक फ्योंली का हरण कर अपने महल ले गया। जहाँ उसने फ्योंली से विवाह किया। फ्योंली दिन हर दिन राजकुमार से अपने देश जाने की जिद करती पर राजकुमार तैयार न होता। धीरे धीरे फ्योंली कमजोर होते गयी और उसका शरीर कमजोर होकर पीला पढ़ने लगा। अन्तिम समय में फ्योंली ने राजकुमार से वचन लिया कि यदि तुम मुझसे सच्चा प्रेम करते हो तो मेरे मरने के बाद मुझे तुम वहीं छोड़ आना जहाँ मेरे माता-पिता और सखी सहेली रहते थे। फ्योंली की मृत्यु के बाद राजकुमार ने उसके शरीर को उन्ही पहाडियों पर रखा, जहां उसकी मुलाकात फ्योंली से हुई थी। कहते हैं तब से फ्योंली अपने मित्रों से मिलने और उन्हें देखने के लिए फूल के रूप में जन्म लेती है। अपने बाल दोस्तों से मिलने और बाल क्रीड़ाएं करने के लिए फ्योंली हर दिन पहले की ही तरह नया रूप ले लेती है, क्योंकि बच्चे हर दिन फ्योंली को बीनते हैं लेकिन उसी पौधे पर दूसरे दिन वह पहले दिन की तरह ही हंसते हुए मिलती है।मान्यता है कि फ्योंली अपने इन दोस्तों के हाथों बिनकर (डाली से तोड़े जाने के बाद) अपने हर प्यार करने वाले का दर्शन, उसकी देहरी पर पहुंच कर करती है।

हेमन्त चौकियाल

आओ बच्चों के इस त्योहार में हम भी अपने बच्चों को सम्मिलित करें, और उनके शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास में सहयोगी की भूमिका निभाएं, लेकिन कोरोना बीमारी की सावधानी में कोताही कतई ना बरतें। । बच्चों को मास्क पहना कर ही घर से बाहर इस त्योहार में सम्मिलित करें।

 

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