हेमन्त चौकियाल / अगस्त्यमुनि ।

Featured Image

फुलारी, फूलदेई और घोघा नाच का बाल पर्व आज मनाया जाएगा बच्चों का अठ्वाड़ा पर्व विश्व का एकमात्र पर्व /त्योहार है जो बच्चों द्वारा, बच्चों के लिए अपने तरीके से मनाया जाता है। चैत्र संक्रांति के दिन से प्रारंभ होने वाले इस त्योहार के पहले आठ दिनों बच्चे अपने - अपने सेवित क्षेत्रों, कस्बे, गांवों की सीमाओं में अवस्थित हर घर की देहरी (दरवाजों) पर रंग-बिरंगे फूल बिखरते हैं। ये फूल घर की देहरी पर इस तरह से रखे(बिखेरे) जाते हैं कि एक भी फूल या फूल की कोई भी पंखुड़ी किसी के भी पाँवों के नीचे न आने पाये।घर के दरवाजों पर फूल बिखेरने की इस परम्परा के पीछे की भावना यह है कि इस घर में पूरे सम्वत (पूरे साल) इसी तरह खुशियां बिखरती रहें, अर्थात इस घर में पूरे वर्ष खुशियां प्रदान करने वाले कार्य सम्पन्न होते रहें। बच्चों द्वारा अपने बड़ों और समाज को शुभकामनाएं देने की यह परम्परा हिन्दू संस्कृति की "वसुधैव कुटुम्बकम" की परम्परा की वाहक और पोषक है। त्योहार की तैयारी बच्चे इस त्योहार के आगमन के लिए, कुछ विशेष तैयारी फाल्गुन मास में ही कर लेते हैं।इसमें सबसे पहला काम होता है रिंगाल से बनी सुन्दर और सजीली टोकरी बनाना। जिसे जंगलों से रिंगाल नामक लकड़ी लाकर, उसे लम्बाई में बारीक सीखें बनाकर काटा/छीला जाता है। फिर इससे बच्चों की टोकरियाँ बनाई जाती थी।जिसे स्थानीय भाषा में सजोळी कहा जाता है।कहीं कहीं इसे हथकण्डी भी कहा जाता है।इस टोकरी का आकार(साइज) बच्चे की उम्र और सुविधा के अनुरूप रखा जाता था। (टोकरी बनाने की इस कला के प्रत्येक गांव में कुछ विशेषज्ञ लोगों की सहायता ली जाती थी।) जहां अन्य कामों में प्रयोग के लिए यदि इस टोकरी/हथकण्डी का प्रयोग करना हो तो इसे गाय के गोबर से अन्दर-बाहर लीपा जाता था। परन्तु फूल डालने के लिए इसे बिना गोबर से लीपे ही (कोरा) प्रयोग में लाया जाता है। अब यह टोकरी /हथकण्डी बहुत कम जगहों देखी जाती है। आधुनिकता की चकाचौंध में यह लगभग प्रचलन से बाहर हो गई है, और टोकरी का स्थान वर्तमान में पॉलीथिन या प्लास्टिक मिश्रित थैलियों ने ले लिया है, लेकिन बहुत से गाँवों में अब भी यह टोकरी/हथकण्डी बनाने का काम रिवाज के तौर पर ही सही, पर जिंदा है। [caption id="attachment_26140" align="alignleft" width="1080"] हथकंडी - फोटो कमल भट्ट[/caption] टोकरी फाल्गुन मासन्त (फाल्गुन माह के अन्तिम दिन) तक तैयार कर ली जाती थी। अब अपनी अपनी इन्ही टोकरियों में बच्चे मासान्ति के दिन(फाल्गुन माह के अन्तिम दिन) गोधूलि बेला में सामूहिक रूप से टोलियाँ बनाकर अपने पर्यावरण का भ्रमण कर, इस मौसम में उगने वाले विभिन्न रंग - बिरंगे फूल चुनकर अपनी - अपनी टोकरियाँ भर लेते हैं। फूलों के रंग उस क्षेत्र के अनुरूप होता है, जहां बच्चे निवास करते हैं । उदाहरणार्थ - हिमालय की तराई में बसे वे गांव जहाँ बुरांस पैदा होता है, उन क्षेत्रों के बच्चे बुरांस के लाल फूलों को जादा चुनते हैं । अब इसमें उपलब्ध अन्य फूल मिलाये जाते हैं। एक सूर्ख पीले फूल होता है, जो लगभग पूरे उत्तराखंड में पाया जाता है फ्योंली। इसका प्रयोग जरूर हर गांव के बच्चों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार अपने अपने क्षेत्रों की उपलब्धता के अनुसार बुरांस, सिन्टाई(सफेद रंग का ट्यूलिप की प्रजाति की तरह का फूल), गोंदा, गुलाब, कनेर, गुड़हल, सिलपाड़ी(बांज-बुराश के जंगलों में आद्र भूमि, जिसमें मिट्टी से जादा पत्थरों की बहुतायत होती है), बासिंगा, राडू-घर्या (सरसों) आदि आदि फूल चुनकर अपनी अपनी टोकरी भर ली जाती है। फूलों के साथ- साथ पंया की पत्तियों (जिसे उत्तराखंड में देव वृक्ष के साथ साथ पितृों का वृक्ष भी कहा जाता है), फूलों से भरी इन टोकरियों को घर के बाहर ऐसे स्थानों पर टाँक लिया जाता है, जहाँ पर फूलों से भरी ये टोकरियां ताजी हवा और नमी के सम्पर्क में रहें और ताजगी बरकरार रहे। अब बच्चे उत्सुकता से अगली सुबह (चैत्र संक्रांति) का इन्तजार करते हैं, ताकि वे अपनी अपनी टोकरियाें में भरे फूलों को अपने घर की देहरी से प्रारंभ कर, फिर टोली में इकट्ठा होकर अपने सेवित क्षेत्र के हर घर की देहरियों पर डाल सकें। फूल डालने का यह क्रम भोर होते ही(जिसे स्थानीय भाषा में रतब्यांण या हुरमुर कहा जाता है) प्रारंभ कर दिया जाता है। कहाँ कितने दिन डाले जाते हैं फूल कोस-कोस पर बदले पानी, तीन कोस पर बानी" वाली बात इस त्योहार में भी देखने को मिलती है। उत्तराखंड के कुमाऊँ मण्डल के अधिकांश क्षेत्रों में फूल एक ही दिन अर्थात चैत्र संक्रांति के दिन ही डाले जाते हैं। गढ़वाल की मध्य नागपुर पट्टी में फूल डालने की परम्परा जहां केवल एक दिन चलती है तो नागपुर की अन्य पट्टियों सहित पूरे जनपद रूद्रप्रयाग में यह प्रक्रिया आठ दिनों तक चलती है, वहीं टिहरी जनपद के अधिकांश क्षेत्रों में फूल डालने की यह प्रक्रिया चैत्र संक्रांति से बैशाख की संक्रांति तक चलती है। चन्द्रबदनी पट्टी के ग्राम रूमधार निवासी सेवानिवृत्त अध्यापक अनसुया प्रसाद उनियाल बताते हैं कि उनके क्षेत्र में नव वर्ष (नया सम्वत) मनाने की यह प्रक्रिया चैत्र संक्रांति से लेकर बैशाख संक्रांति (14 मार्च से लेकर 13 अप्रैल) तक प्रतिदिन हर घर की देहरी पर फूल डाले जाते हैं, बैशाखी के दिन से लेकर इसी माह की 19 गते तक न्याय पंचायत स्तर पर, मेलों का आयोजन होता है, जिन्हें स्थानीय भाषा में "थौळ" कहा जाता है। प्राचीन समय में इन थौळ (मेलों) में एक ओर जहां लोग दूर दूर से आकर एक दूसरे से मेल मिलाप करते थे तो वहीं दूसरी ओर इन मेलों में दूर दूर से आये व्यापारियों से अपनी दैनिक जरूरतों का सामान भी क्रय किया करते हैं। अनुसूया प्रसाद उनियाल आगे बताते हैं कि आज भी लोग यदि किसी से कोई व्यापार करते हैं तो बैशाख के इन थौळों तक रकम अदायगी की कसम ले लेते हैं। आगे वे बताते हैं कि समय के थपेड़ों और मनोरंजन के आधुनिक तौर तरीकों नें भले ही इन थौळों पर भी अपना प्रभाव डाल लिया हो, लेकिन इन मेलों की आत्मा जिंदा हैं, अभी भी बारगुर, माद्यूं,हिण्डोलाखाल, अंजनीसैंण के थौळ प्रसिद्ध हैं और अपनी पौराणिकता और परम्परा को जीवित रखे हैं,बस एक बात जो बदली है वो ये कि अब इन थौळों में बेला (नर भैंसों) की आपसी लड़ाई नहीं होती। आज से 30-35वर्षों पूर्व इन मेलों का (आकर्षण कहें या विद्रूपता)यह लड़ाई एक प्रमुख कार्य था। कैसे होता है बाल पर्व समापन - क्या हैं कारण और उद्देश्य जैसा कि पूर्व में उद्धृत कर दिया गया है कि - उत्तराखंड के बहुत से हिस्सों में बाल पर्व का यह फूलदेई त्योहार पहले ही दिन मनाया जाता है। बच्चे जैसे ही फूलदेई के गीत गाते सुनाई देते हैं, परिवार की मुखिया (घर की वरिष्ठ महिला बच्चों के लिए चावल, गुड़-तिल लेकर तैयार रहती थी, जैसे ही बच्चे घर की देहरी पर फूल डालते, वैसे ही घर की मुखिया बच्चों के प्रमुख को गुड़-तिल का भेंट करती और प्रत्येक बच्चे को सामर्थ्यानुसार चावल भेंट करती।बच्चों का मुखिया हाथ में पिंठाईं का थाल लिए रहता है जो मुखिया का तिलक करता है। परम्परागत रूप से टोली के बच्चों को एक - एक मुट्ठी भर चावल मिलता जिसके लिए बच्चे अपने कन्धों पर थैला भी लटकाये रखते। अगर एक ही परिवार के एक से जादा बच्चे टीम में शामिल होते तो परिवार के सबसे बड़े बच्चे के थैले में ही सबके बदले के चावल दे दिये जाते।अब आधुनिक होते समाज में गुड़ तिल चावल की परम्परा ने नकदी का रूप ले लिया है परन्तु फिर भी कुछ गांवों में ये परम्परा निर्बाध रूप से गतिमान है। जहाँ फूल डालने की ये परम्परा आठ दिन चलती है, वहां पिंठाईं का थाल लिए हुए मुखिया की थाली में उस परिवार की मुखिया अपनी सामर्थ्यानुसार कुछ नकदी या सिक्के रख देती। यहां विशेषता की बात यह है कि इस टोली में चावल सामुहिक रूप से एक ही बच्चे को दिए जाते हैं। दो बच्चे अपने कन्धों पर घोघा डोली लिए रहते हैं, वे डोली को नचाते हैं, टोली के अन्य बच्चे फुलारी गीत गाते हुए फूल डालते बढ़ते रहते हैं। क्या है घोघा -जिन क्षेत्रों में यह बाल पर्व आठ दिनों तक चलता है, वहाँ बच्चों की इस फूल डालने वाली प्रभात फेरी में दो बच्चों के कन्धों पर एक देव डोली सदृश डोली होती है। जहां देव डोली में किसी न किसी देवता की प्रतिमा विराजित होती है, वहीं घोघा डोली में कोई प्रतिमा नहीं होती। इसमें डोली के मध्य में लगी एक लकड़ी के सहारे कुछ रंग - बिरंगी चुन्निया /कपड़े बांध कर लटका दिए जाते हैं, जिन्हें साड़ा या साड़े कहा जाता है। इस डोली को ही घोघा देवता कहा जाता है। इन पंक्तियों के लेखक को अपने अब तक के शोध में कहीं यह कोई प्रमाण हीं मिला कि घोघा पुल्लिंग देवता है या स्त्रीलिंग (देवी)। लेकिन शोध के दौरान बहुत सी जनश्रुतियां और किंवदन्तियाँ सामने आई हैं, जिन्हें पाठकों के समक्ष रखा जा रहा है- 1-बहुत से लोग घोघा को श्रीकृष्ण के कालिय नाग दमन के साथ जोड़कर देखते हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि घोघा हिन्दुओं के देवता भगवान श्रीकृष्ण का रूप है। लेखक को वर्ष 1995 में इस विषय पर अपनी शोध बातचीत में ऊखीमठ ब्लॉक के ग्राम स्याँसू निवासी स्व० थेपड़ सिंह रावत जी और श्री अब्बल सिंह रावत जी ने बताया कि हिन्दू धर्म ग्रंथों में वर्णित उस कथा, जिसमें बताया गया है कि - गायों को चराते समय ग्वाल-बालों के संग खेलते समय जब गेंद यमुना में गिर गई थी, और जब कृष्ण गेंद लेने यमुना में कूद पढ़ते हैं तो वहां कालिय नाग के साथ युद्ध करके परास्त करने में देर हो जाती है, और ग्वाल-बाल उन्हें यमुना में डूब कर मृत समझ लेते हैं, परन्तु कुछ देर बाद जब श्री कृष्ण वापस लौटते हैं तो ग्वाल-बाल उन्हें जीवित पाकर खुशी से कन्धों पर उठाकर गोकुल का चक्कर लगाते हैं।श्रीकृष्ण के इसी रूप को अब घोघा के रूप में कन्धों पर उठाकर घुमाया जाता है। 2- कुछ लोग गोवर्धन पर्वत को उठाकर गोकुल की रक्षा करने की खुशी और इन्द्र के घमण्ड चूर करने के लिए घोघा को श्री कृष्ण के प्रतीक रूप में भी बताते हैं। जबकि फूल डालने की इस परम्परा के बारे में कुछ लोगों की मान्यता है कि कैलाश पर्वत पर तपस्यारत शंकर को जगाने के लिए माता पार्वती ने कैलाश के नजदीक बर्फ रहित भूमि पर अपने तपोबल से नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्प खिला(पैदा) कर, उन पुष्पों को बीन कर शंकर के आसन के आस पास बिखेर कर पुष्पों की सुगंध से शंकर को तपस्या से बाहर लाने की खुशी में माता पार्वती के भक्तों से कालांतर में यह, पर्व के रूप में प्रचलित हो गया। ये तथ्य वास्तविकता के कितने नजदीक हैं, इसके लिए अभी तक कोई लिखित या ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो सका है, जिसपर विभिन्न लोगों और संस्थाओं द्वारा शोध कार्य करने की जानकारी मिली है। क्या है अठ्वाड़ा मनाने का कारण हमारी सनातन पद्धति का यदि आप बिना पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए बिना विश्लेषण करें तो आप पायेंगे कि इसके हर नियम और हर जीवन पद्धति सूत्र के पीछे *सर्वे भवन्तु सुखिनः* का भाव निहित है। भारतीय जीवन पद्धति का एक भी सूत्र ऐसा नहीं है, जिसमें केवल स्व का हित निहित हो, बल्कि इसके हर सूत्र में *सर्वे भवन्तु सुखिनः* की मूल भावना निहित है।अतः यह अठ्वाड़ा पर्व एक तरह से प्रकृति से लगातार आठ दिनों तक फूल बीनते हुए उसे हुई क्षति की क्षमा प्रार्थना का पर्व भी है। लेखक का मानना भी है कि अठ्वाड़ा प्रकृति से विभिन्न प्रकार के फूलों को चुनने के कारण हुए दोहन के लिए क्षमा प्रार्थना है, क्योंकि इस दिन फुलारी(फूल डालने वाले बच्चे) वन में जाकर वन देवता की पूजा - अर्चना करते हैं। जिसका अप्रत्यक्ष अर्थ यही है कि "हे वन देवता हमारे दोहन के लिए हमें इस बात के लिए क्षमा करना कि हमने फूलों के रूप में आपका दोहन किया है। अट्वाडे के दिन बच्चे आठ दिनों तक प्राप्त सामग्री व धन से प्राप्त भोज्य पदार्थ क्रय कर सर्व प्रथम प्रकृति (वन देवता) को ही भोग लगाते हैं। *आइए जानते हैं अब इस त्यौहार और बाल पर्व के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक पर्यावरणीय और वैज्ञानिक कारण* 1- *मनोवैज्ञानिक कारण*- यदि आप तनिक पीछे मुड़कर देखें तो पाएंगे कि फरवरी माह तक मौसम में सर्दी होने के कारण प्रात: बिस्तर छोड़ने का मन नहीं करता, विशेषकर बच्चे इस मौसम में (मार्च आने पर भी) बिस्तर से आदतन उठ नहीं पाते, लेकिन (धार्मिक से जादा इसे मनोवैज्ञानिक कहें तो जादा उचित होगा)बच्चों को यदि यह कहा जाता है कि तुम्हें सुबह फूल डालने जाना है तो बच्चे स्वाभाविक रूप से जल्दी उठ जाते हैं, जो उनके बढ़ते स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभकारी होता है। इस त्योहार में फूल बीनने के लिए बच्चे अपने आस पास के पर्यावरण में जाते/घूमते हैं, जिससे उन्हें विभिन्न प्रकार के फूलों, वनस्पतियों का अवलोकन करने का मौका मिलता है, अतः उनमें जल्दी उठने, समूह में काम करने, आपसी संवाद स्थापित करने, अवलोकन करने जैसी *2-सामाजिक कारण*-अमूमन हम (बच्चे) अपने पास-पड़ोस से परिचित नहीं होते, ना ही पास - पड़ोस उनसे (बच्चों से) परिचित होते हैं, ऐसे माहौल में (फूलदेई के अवसर पर) वे एक दूसरे से परिचित हो जाते हैं, जिससे समाज में आपसी सामंजस्य और सौहार्द में वृद्धि होती है। चैत्र में बसंत का आगमन होने से प्रकृति में नाना प्रकार के फूलों के खिलने का क्रम प्रारंभ हो चुका होता है, जिस कारण इस मौसम में वातावरण में नाना प्रकार के औषधीय पादपों की सुगन्ध से वातावरण सुगन्धित हुआ रहता है, अतः ऐसे माहौल में प्रातः बढ़ती उम्र के बच्चों के लिए सैर करना संजीवनी पाने जैसा होता है। चैत्र याने मार्च आते आते मौसम में भयंकर सर्दी की ठिठुरन काफी कम हो जाती है, ऐसे मौसम में भयंकर सर्दी के कारण अपनी प्रात:सैर करने की आदत को पुनः प्रारंभ किया जा सकता है, अतः फूलदेई याने चैत्र का महीना सर्वाधिक उपयुक्त है। 3- *वैज्ञानिक कारण*- सम्पूर्ण उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो इ की भौगोलिक बनाबट के कारण जहाँ सर्दियों में (नवम्बर से फरवरी तक) यहाँ का औसत तापमान जहाँ 1से 6 डिग्री सेल्सियस होता है, वहीं मार्च आते आते यह औसत तापमान 6 से 16 डिग्री सेल्सियस हो जाता है।ऐसे खुशनुमा माहौल में सैर करना डाक्टरी नजरिये से शरीर के लिए किसी वरदान से कम नहीं होता। बच्चों को अपने आस पास के वातावरण /परिवेश में फूल बीनने के दौरान उनका परिचय विभिन्न फूलों, लताओं, बेलों से हो जाता है, जिससे उनकी अवलोकन की क्षमता के साथ - साथ विश्लेषण की क्षमता का भी विकास होता है। बच्चों में फूल डालने के लिए जाने के कारण सुबह उठने और सैर करने की आदत स्वत: ही बन जाती है, साथ ही समूह में घुलने - मिलने, साथ काम करने की प्रवृत्ति भी विकसित हो जाती है। जो बातें किताबें महीनों में नहीं सिखा पाती उन्हें बच्चे बड़ी उमंग, उत्साह और आनंद के साथ चैत्र मास के इस हफ्ते में ही सीख जाते हैं। अतः वैज्ञानिक अनुसंधान के दृष्टिकोण से भी देखें तो फूलदेई महोत्सव के इस बाल पर्व को बच्चों के शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास के लिए बहुत ही उपयुक्त, उपयोगी और महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम पश्चिम का अंधानुकरण न करते हुए, अपनी विशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति की जीवन शैली को महत्व देते हुए उसे अपनाने के लिए अपने बच्चों को प्रेरित करें, और साथ ही मंच और मौके भी उपलब्ध करायें। मैं इस अपील के साथ ही माननीय उत्तराखंड सरकार से निवेदन करता हूँ कि वे बच्चों की बाल भावनाओं का सम्मान करते हुए इस फूलदेई महोत्सव पर्व को राज्य पर्व घोषित करते हुए फूलदेई के आठवें दिन (अठ्वाड़े को) सार्वजनिक अवकाश घोषित करते हुए इसे *राज्य बाल पर्व* भी घोषित करे। यह केवल भारत ही नहीं, वरन पूरे विश्व के बच्चों का बहुत बड़ा सम्मान होगा।सरकार की इस छोटी सी मुहिम पर जल्दी ही यह बाल पर्व विश्व धरोहरों की श्रेणी में सम्मिलित हो सकता है, क्योंकि यह विश्व भर का एकमात्र त्योहार है जो बच्चों द्वारा, बच्चों के लिए अपने तरीके से मनाया जाता है। रूद्रप्रयाग में विगत एक दशक से भी अधिक समय से इस पर्व को सामूहिकता से मनाने के लिए दस्तक की घोघा जात्रा और घोघा प्रतियोगिता इस पर्व के अभिवर्धन और संरक्षण में अति सराहनीय कदम है। पाठकों को बताते चलें कि इस प्रतियोगिता में सामाजिक सहभागिता के साथ सबसे आकर्षक घोघा डोली, सबसे सुन्दर फुलारी भुला, सबसे सुन्दर फुलारी भुलि जैसे पुरस्कार और सम्मान बच्चों को दिये जाते हैं। दस्तक की इस सराहनीय पहल को हमारा दिस से सलाम। ( लेखक हेमन्त चौकियाल, रचनात्मक शिक्षक है, निरन्तर लेखन और नवाचारी प्रयोगों से बच्चों के सृजनात्मक विकास में कार्य करते रहते हैं।) [caption id="attachment_25293" align="alignleft" width="576"] हेमन्त चौकियाल[/caption]     -