रमेश पहाड़ी / रूद्रप्रयाग ।। आज रेणी चिपको आंदोलन का 48वीं वर्षगाँठ है। 26 मार्च 1974 को आज ही के दिन रेणी के जंगल में वन विभाग द्वारा कटाई के लिए छापे गए 2473 पेड़ों को महिला मंगल दल रेणी की

Featured Image

अध्यक्ष गौरा देवी ने अपनी 20 महिला साथियों और 7 बालिकाओं के साथ बड़ी बहादुरी से, कटने से बचा लिया था। यह पहला सफल आंदोलन था जिसमें महिलाओं ने वनों के साथ स्थानीय लोगों के अंतर्सम्बन्धों की सुस्पष्ट व्याख्या के द्वारा वन विज्ञानियों और सरकारों की आँखों पर पड़े पर्दों को तार-तार कर उतार दिया था। वन विभाग और प्रशासन की पेड़ों को काटने की कुटिल चाल को रेणी जैसे अंतरवर्ती गाँव की साधारण महिलाओं ने सीधी चुनौती दी थी और पूरी गम्भीरता के साथ पेड़ न कटने देने का संकल्प लेते हुए, ठेकेदार के मजदूरों को पेड़ नहीं काटने देकर खाली हाथ वापस लौटने को विवश कर दिया था। महिलाओं के सीधे और सपाट तर्कों के आगे बड़े अधिकारियों की ही नहीं, सरकार की भी एक न चलने पाई थी और हार कर सरकार को कटाई के लिए नीलाम किये गए इस वन-खण्ड को 10 वर्षों के लिए बंद कर देना पड़ा था। गौरा देवी जी के मजबूत नेतृत्व में सफल हुए उस आंदोलन को सारे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था और देश के एक सुदूर हिमालयी कोने से शुरू हुए इस आंदोलन ने वैश्विक स्वरूप धारण कर लिया था। इसकी सफलता के पीछे चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडीप्रसाद भट्ट की सोच व रणनीति और जोशीमठ के ब्लॉक प्रमुख कामरेड गोविंद सिंह रावत की जबर्दस्त मेहनत थी। इसमें तत्कालीन जिला परिषद के सदस्य वासवानन्द नौटियाल व सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा छात्रों की भी विशिष्ट भूमिका रही थी। चिपको मूल रूप से वनों का अव्यावहारिक कटान रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था, जिसकी रूपरेखा 1 अप्रैल 1973 को सर्वोदय केंद्र गोपेश्वर में उसके संस्थापक चंडीप्रसाद भट्ट और उनके साथियों की एक बैठक में बनी थी। 24 अप्रैल 1973 को मंडल (गोपेश्वर) में साइमंन कंपनी को आबंटित अँगू के पेड़ों का कटान रोकने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता और ग्राम प्रधान आलमसिंह बिष्ट की अध्यक्षता में पूरे इलाके के लोगों की एक विशाल सभा आयोजित हुई थी। उस सभा में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि वन-संपदा का उपयोग स्थानीय निवासियों के हित में होना चाहिए और इसलिए इस इलाके में बाहर से आई हुई कम्पनी के लिए छापे गए पेड़ों को नहीं काटने दिया जाएगा। यदि कम्पनी के मजदूरों ने जोर-जबर्दस्ती पेड़ काटने की कोशिश की तो ग्रामीण इसका अहिंसक प्रतिकार करते हुए पेड़ों पर चिपक जायेंगे और पेड़ कटने से पहले अपना शरीर आरे-कुल्हाड़ियों के आगे कर देंगे। बाद में इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए फाटा-रामपुर में केदारसिंह रावत के नेतृत्व में यही बात कहकर चिपको आंदोलन चलाने की घोषणा की गई और दोनों स्थानों पर जनता के भारी विरोध से बाद ठेकेदार अपने मज़दूरों को लेकर खाली हाथ वापस लौटने को मजबूर हो गया था। रेणी में 24 सौ से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लड़ाने को तैयार बैठे थे जिसे गौरा देवी जी के नेतृत्व में रेणी गाँव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था। इसके बाद डॉ. वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में सरकार द्वारा गठित समिति ने भी यह कटान अगले 10 साल तक के लिए पूरी तरह रोकने की संस्तुति की, जिसे सरकार ने स्वीकार किया। इसके बाद चिपको आंदोलन विश्वव्यापी हो गया लेकिन वनों पर वनवासियों की जीविका व अस्तित्व के अधिकार की माँग से भटक कर यह आंदोलन पर्यावरण की पीड़ा का आंदोलन बना दिया गया, जिसमें वनों का अस्तित्व व वनवासियों की जीविका के सवाल दफन होकर रह गए। इसीलिए चिपको आंदोलन को एक दिशाभटक आंदोलन कहा जाता है, जिसकी गूँज तो विश्वव्यापी हुई लेकिन वनवासियों के हाथ कुछ नहीं आया और दुर्भाग्यपूर्ण रूप से न वनों के भले की कोई पक्की इबारत लिखी जा सकी, न वनवासियों के। इसके उलट चिपको आंदोलन में शामिल लोग भी अपने को ठगा-सा महसूस करते हैं।