केदारनाथ धाम को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने के पीछे मंशा खतरनाक, आग से क्यों खेलना चाहती है भाजपा ?
1 min read15/04/2022 6:39 pm
दिनेश शास्त्री / देहरादून ।।
केदारनाथ धाम के साथ भाजपा सरकार एक बार फिर खिलवाड़ करने जा रही है। यानी केदारनाथ धाम के पुनर्निर्माण पर खर्च किये गए चार पाँच सौ करोड़ रुपए की पाई पाई ही नहीं वसूल होगी बल्कि सूद भी लगातार वसूला जाएगा। शासन ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को प्रस्ताव भेजा है कि केदारनाथ धाम को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाए। देवभूमि के साथ यह बड़ा खिलवाड़ होने जा रहा है। दरअसल यह प्रस्ताव तैयार करवाया गया है। सवाल यह है कि जब सरकार का ही नियंत्रण मंदिरों पर बनाये रखना मकसद है तो देवस्थापन बोर्ड का निर्णय सिर्फ चुनाव जीतने के लिए ही वापस ले लिया गया था न। इस बार इरादतन यह प्रस्ताव माँगा गया तो समझ लीजिए इरादा सिरे ज़रूर चढ़ जाएगा। अभी फैसला होना बाकी है लेकिन कल्पना कीजिये – अभी आलवेदर रोड का काम चल रहा है। काम पूरा होते ही टोल टैक्स से यात्रा महंगी हो जाएगी। यह तो सुविधा की बात है लेकिन राष्ट्रीय धरोहर में प्रवेश के लिए जब टिकट लेना पड़ेगा तो सोचिये क्या होगा। इरादा कमाई का है, वह भी उन भोले नाथ से जो किसी भक्त से कुछ नहीं लेते, देते ही देते हैं। केंद्र की सरकार इस तीर्थ को दुधारू गाय मान कर चल रही है। मान लेते हैं कि मंदिर की व्यवस्थाओं में ज्यादा अंतर नहीं आएगा लेकिन पुरातत्व विभाग का काम हमें भयभीत करता है। दूसरे शब्दों में यह आग से खेलने की ज़िद सी लगती है। इसमें अगर सरकार फायदे देख रही है तो नुकसान भी उसे ही देखने होंगे।
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वरिष्ठ पत्रकार क्रान्ति भट्ट बताते हैं कि गोपेश्वर के गोपीनाथ मंदिर में स्थापित त्रिशूल का वज्रलेख पुरातत्व सर्वेक्षण ने मिटा ही दिया है। वहाँ का त्रिशूल एतिहासिक धरोहर थी। रसायन के लेप से उस पर अंकित अक्षरों को खत्म कर दिया गया है, केदारनाथ मंदिर और धाम के साथ पुरातत्व वाले क्या प्रयोग करेंगे, अनुमान से ही डर लगता है। पुरातत्व वालों की चली तो वे मंदिर के अंदर तेल का दीपक जलाना भी प्रतिबंधित कर देंगे। पुरातत्व वाले कल तय कर सकते हैं कि आप कितना जल अर्पण कर सकते हैं। सवाल बहुत सारे हैं लेकिन जवाब दूर दूर तक नहीं है। तो क्या व्यवस्था में बदलाव के लिए इस प्रयोग को स्वीकार कर लिया जाए? केदारनाथ धाम को राष्ट्रीय धरोहर बना कर सरकार क्या हासिल करना चाहती है, यह निसंदेह यक्ष प्रश्न है। देवस्थानम बोर्ड बना था तो तब के सीएम ने कई फायदे गिनाये थे लेकिन लोगों को वह स्वीकार न था। नतीजतन सरकार बैक फुट पर आई और उसने चुनावी नुकसान को फायदे में बदला। बेशक राज्य का चुनाव बेशक अब 2027 में होगा लेकिन 2024 तो ज्यादा दूर नहीं है। जो उत्तराखंड पाँच की पाँच सीटें भाजपा को सौंपने वाली जनता का मिजाज बिगडा तो नतीजे का अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा। दूसरे सनातन की परम्पराओं पर ही सरकार क्यों प्रयोग करना चाहती है, यह समझ से परे है। क्या सरकार सिर्फ सनातन के संस्थानों को अपनी आमदनी का जरिया बनाना चाहती है। किसी चर्च या किसी अन्य धार्मिक संस्थान के बारे में सोचने की अगर हिम्मत दिखाने का कोई उदाहरण आपकी नजर में हो तो मुझे ज़रूर बताएं।
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ऐसा लगता है कि सरकार जानबूझकर सुब्रह्मण्यम स्वामी को खुद आमंत्रित करने की ज़िद कर रही है कि आओ, मुझसे दो दो हाथ करो। लेकिन यह तय है कि अगर सचमुच यह इरादा सरकार ने नहीं बदला तो उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। देव्स्थानम बोर्ड का मामला सीमित था लेकिन केदारनाथ धाम का मामला समूचे सनातन का केंद्रीय विषय है। कहना न होगा कि बाबा का तीसरा नेत्र खुलने का सबब बिस्तर बाँधने का सबब भी बन सकता है। हम सिर्फ आगाह कर सकते हैं, कोई अगर अपने गले में बड़ा सा पत्थर बाँध कर सरोवर में उतरने पर आमादा हो तो उसे कोई नहीं रोक सकता।
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