जानिए क्या है भगवान केदारनाथ का महात्म्य और इतिहास, क्यों प्रिय है भोलेनाथ को केदारभूमि
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12/05/20226:58 am
रामाकांत बेंजवाल / वरिष्ठ साहित्यकार :-ऋषिकेश से सोनप्रयाग 210 किमी सड़क मार्ग से बस या टैक्सी का सफर तय करने के बाद यहाँ से स्थानीय छोटे वाहन से गौरीकुंड और फिर केदारनाथ के लिए पैदल चलना होता है। पैदल चलने में असमर्थ यात्री गुप्तकाशी या सोनप्रयाग से हेली सेवा से या गौरीकुुंड से घोड़ा या कंडी से जा सकते हैं। हरे-भरे वन, बर्फ की चादर ओढ़े ऊँचे-ऊँचे पर्वतों से झरते झरने और ‘जय केदार’ का उद्घोष करते यात्रियों के साथ चलते हुए गौरीकुंड से रामबाड़ा की चढ़ाई महसूस ही नहीं होती है। लिनचौली में यात्री हल्का-फुल्का चाय-नाश्ता करता है। जो यात्री थक गया हो तथा यहाँ से आगे चलने की हिम्मत न रखता हो, रात्रि विश्राम लिनचौली में भी कर सकता है। वैसे केदारनाथ में ही ठहरना उचित है।
गौरीकुंड से 16 किमी की दूरी तय करने के बाद दूर से ही भगवान केदारनाथ मंदिर के दर्शनों से एक नई स्फूर्ति शरीर में आ जाती है। केदार का अर्थ दलदल माना जाता है। शिव प्रसाद डबराल केदार को किरात का अपभ्रंश मानते हैं। क्योंकि भगवान शिव यहाँ किरात भेष में रहे थे। केदारनाथ मंदिर तीन हिमशिखरों के नीचे 3584 मी- ऊँचाई पर एक पवित्रतम दृश्य है।
केदारनाथ बड़े-बड़े तराशे गए पत्थरों का भव्य एवं विशाल मंदिर है। गर्भ गृह के बाहर एक मंडप है। मंडप में द्रौपदी सहित पांडवों की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में पत्थर के चार खम्बे हैं जिन्हें देखने से लगता है कि ये मंदिर के बाहरी भाग से प्राचीन होंगे। मुख्य रूप से यहाँ पर भैंसे की पीठ की तरह एक शिला है। यही शिला असली केदारनाथ भगवान के रूप में पूजी जाती है। शिव पुराण कोटि संहिता (अध्याय 19ः1-9) के अनुसार जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ तो वेद व्यास ने पांडवों को अपना राज-पाट छोड़ शिवजी से आशीर्वाद लेने के लिए हिमालय की ओर भेजा। पांडवों को अपना ही गोत्र हत्यारा समझ शिवजी उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। महिष (भैंसा) का रूप धारण कर शिव अन्य भैंसों के बीच विचरण करने लगे। पांचों पाडवों में से भीमसेन शिव को महिष रूप में पहचान लेते हैं। यह मान्यता है कि जब शिवजी को आभास हुआ कि मुझे महिष रूप में भी भीम द्वारा पहचान लिया गया है तो वे पृथ्वी में समाविष्ट होने लगे। तभी भीम ने महिषरूपी शिव का पिछला भाग पकड़ लिया। वह भाग पत्थर बन गया। आज वही पिछला भाग शिलारूप में केदारनाथ, नाभि मद्महेश्वर, भुजा तुंगनाथ, मुख रुद्रनाथ और जटा कल्पनाथ के नाम से जाने जाते हैं। ये पांचों स्थान पंचकेदार के नाम से प्रसिद्ध हैं।
केदारनाथ तीर्थ का वर्णन पौराणिक धर्म ग्रंथों में विशेष रूप से आता है। महाभारत में वर्णित है-
उक्त श्लोकों में केदार तीर्थ में स्नान का महात्म्य तथा शिव का किरात वेष में अर्जुन से युद्ध का वर्णन मिलता है। देवी पुराण के केदार महात्म्य में लिखा है कि केदार के जल को पीकर पुनर्जन्म नहीं होता है। इसी प्रकार कूर्म पुराण के सैंतीसवें अध्याय में केदार तीर्थ का वर्णन किया गया है। स्कंद पुराण के केदारखंड में केदारमंडल (हरिद्वार सहित संपूर्ण गढ़वाल) का विस्तृत वर्णन मिलता है। केदारखंड के अध्याय 42 में केदारतीर्थ का महात्म्य वर्णित हैः-
केदारेश्वरलिंग्स्य घृताम्यक्तमुदग्वम्।
अंगमंगेनस्वस्यापि स्पृशन्प्रेरणा सकृत्पुमान् (75)
श्री केदारेश्वर लिंग (पृष्ठ शिला) में उत्तम घृत मलकर श्रद्धापूर्वक अपने शरीर का स्पर्श करवाना चाहिए। केदारनाथ मंदिर के अंदर महिषपृष्ठ शिलाकृति को ही श्रद्धालु पूजा करने के बाद घृत मलकर अंकमाल (अंग छुवाना) करते हैं।केदारखंड 62ः42 में वर्णित है कि केदारनाथ के दर्शनों के बिना बदरीनाथ के दर्शन निष्फल हैं।
केदारनाथ के पीछे 6 किमी की दूरी पर एक लंबी श्वेत जलधारा दिखाई पड़ती है। वहीं सीधी खड़ी चट्टान पर एक भेल (खाई) है जिसे महापंथ, भृगुपंथ, भैंरोझाप आदि नामों से जाना जाता है। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि पांडवों द्वारा इसी स्थान से स्वर्गारोहण किया गया था। ब्रिटिश काल सन् 1831 तक भी कई तीर्थयात्री मोक्ष प्राप्ति हेतु गाजे-बाजों के साथ इसी स्थल से गिर कर अपने प्राणों का त्याग कर देते थे। ब्रिटिश शासन काल में इस प्रथा पर रोक लगने से अब यह प्रथा समाप्त हो गई है। प्राचीन धर्म ग्रंथों में इस तीर्थ को भृगुपंथ भी लिखा गया है। वाल्मीकि रामायण में भगवान राम का भृगुपंथ आने का वर्णन मिलता हैः-
सपुत्र सहितं तात सभार्य रघुनंदन भृगु तुंगे। (बालकांड-61ः11) सातवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित के पांचवें उल्लास में भृगुपंथ से मोक्ष प्राप्ति हेतु प्राणों के उत्सर्ग का वर्णन मिलता है। केदारकल्प के अध्याय-41 में शिवजी पार्वती से कहते हैं कि जिस प्रकार मैं प्राचीन हूँ उसी प्रकार यह स्थान भी प्राचीन है। ब्रह्म मूर्ति को धारण करके मैं सृष्टि की रचना करने में इसी स्थान पर स्थित हुआ था। उसी दिन से यह स्थान विद्यमान है। केदार पर्वतमाला से निकलने वाली पवित्र नदी मंदाग्नि (मंदाकिनी) का वर्णन महाभारत के भीष्म पर्व 9ः34 में मिलता है। केदारनाथ के दक्षिणी- पूर्वी भाग में बहने वाली मंदाकिनी में स्नान का विशेष महात्म्य है।
पूजा-अर्चना-
केदारनाथ मंदिर की प्राचीन बहियों का हवाला देते हुए पं० हरिकृष्ण रतूड़ी ‘गढ़वाल का इतिहास’ में लिखते हैं- ‘जब पांडु पुत्र युधिष्ठिर स्वर्गारोहण को गए थे, उस काल में गणों के स्वामी वीरभद्र से कुछ अवज्ञा हो जाने के कारण शिवजी के शाप से उसे चोल देश में वेदपाठी ब्राह्मण के घर में भुकुंड नाम से जन्म लेना पड़ा। युवावस्था में वह काशी, गंगोत्तरी होकर केदारपुरी आया और तुंगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर आदि स्थानों में तपस्या करता रहा।’ इसी भुकुंड के शिष्य सम्प्रदाय में तब से केदारलिंग की पूजा-अर्चना चली आ रही है। रतूड़ी जी ने भुकुंड से प्रारम्भ 319 रावलों (महंत) की सूची दी है। इस बही वाली कथा तथा रावलों की सूची पर कितना विश्वास किया जाए, यह शोध का विषय है। क्योंकि इसकी प्रामाणिकता अपुष्ट है। केदारनाथ मंदिर से लगभग 2 फर्लांग ऊपर भुकुंड भैरव की मूर्ति भी स्थापित है।
रावल की उपाधि गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह ने सन् 1776 ई० के आसपास बदरीनाथ के अर्चक को दी थी। केदारनाथ के महंत को रावल कब से कहा जाने लगा, स्पष्ट नहीं है। केदारनाथ के रावल दक्षिण मालावर में जंगम जाति के होते हैं। रावल के शिष्यों में से ही अगला रावल नियुक्त किया जाता है। रावल स्वयं पूजा नहीं करता। उसके शिष्य या गुरु भाई पूजा करते हैं। रावल को विवाह का अधिकार नहीं है। केदारनाथ के रावल का गद्दी मठ ऊखीमठ में है। रावल के अधीन पंच केदार के मंदिर तथा अन्य 11 मंदिर आते थे। वर्तमान में अधिकांश मंदिर, मंदिर समिति के अधीन हैं। केदारनाथ के तीर्थ पुरोहित तीर्थ यात्रा पर आए यात्रियों से पूजा-पाठ, पितृ-तर्पण आदि करवाते हैं। मंदिर के दर्शन सुबह से दिन के एक बजे तक तथा सायं 5 बजे से 8 बजे तक किए जा सकते हैं। दिन में यात्रियों के दर्शनार्थ मंदिर बंद रहता है।
केदारनाथ हिमनद से बने मोरेन पर सुंदरतम स्थलाकृति है। केदारनाथ मंदिर के संबंध में माना जाता है कि इसे पांडवों द्वारा बनवाया तथा शंकराचार्य द्वारा जीर्णोद्धार करवाया गया। पुरातत्व की दृष्टि से मंदिर का निर्माण अलग-अलग चरणों में हुआ। यह मंदिर ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। गर्भगृह में कत्यूरी शैली के अभिलेखों से मंदिर का निर्माण काल आठवीं-नौवीं सदी से पूर्व ही माना जा सकता है। उदयपुर-प्रशस्ति के अनुसार धारा के परमार नरेश भोज ने 1043 ई० के आसपास केदार मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। (उद्धरण- उत्तराखंड का इतिहास-11-डबराल पृ- 31)। सन् 1803 के भूकंप से भी मंदिर का ऊपरी भाग क्षतिग्रस्त हुआ था जिसे पुनः बनवाया गया। राहुल सांकृत्यायन ने भी इसे हिमालय का भव्य एवं विशाल मंदिर कहा है। केदारनाथ मंदिर के पट मई प्रथम सप्ताह के आसपास दर्शनों के लिए खुलते हैं। मंदिर के गर्भ गृह में अखंड ज्योति के दर्शनों का विशेष महात्म्य माना जाता है। अक्टूबर अंत तथा नवम्बर प्रथम सप्ताह के आसपास दीपावली तक मंदिर के कपाट बंद हो जाते हैं। सर्दियों में यह क्षेत्र बर्फ से ढक जाता है। केदारनाथ की पंचमुख उत्सव मूर्ति कपाट बंद होने पर रावल द्वारा ऊखीमठ गद्दी स्थल तक लाई जाती है। शीतकाल में यहीं पर पूजा-अर्चना की जाती है। मुख्य मंदिर के अलावा शंकराचार्य समाधि, कुंड, वासुकीताल आदि भी यहां दर्शनीय हैं।
शंकराचार्य समाधि
कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में ही यहाँ पर देहत्याग किया था। मंदिर के पीछे शंकराचार्य की मूर्ति तथा समाधि दर्शनीय हैं। केदारनाथ मंदिर के पीछे पत्थरों का ढेर था जिसे अब शंकराचार्य स्मारक के रूप में विकसित किया गया है। यह भी इतिहासकार मानते हैं कि यहीं पर मूल मंदिर की स्थापना हुई थी। डॉ० शिव प्रसाद नैथानी ने उत्खनन की आवश्यकता बताते हुए वहीं पर मूल मंदिर की बात कही है।
कुंड
मंदिर के पिछले भाग में अमृत कुंड, उत्तर पूर्वी भाग में हंस कुंड जिसमें पर्वतीय यात्री श्राद्ध करते हैं। रेतस कुंड के चढ़ावे को पंडा वर्ग आपस में बांटता है। पश्चिम में सुबलक कुंड और मंदिर के सामने उदक कुंड के पानी से यात्री आचमन करते हैं। वर्ष 2013 की भीषण त्रसदी में ये कुण्ड मलवे से ढक गए थे, इन्हें पुनर्जीवित किया जा रहा है। पौराणिक ग्रंथों में इन कुंडों के दर्शनों का महात्म्य बताया गया है।
वासुकीताल
खरचा, भारखंड तथा केदार शिखर की तीन उजली हिम चोटियों के अलावा यहाँ से पश्चिम दिशा की ओर 5 कि-मी- की दूरी पर रहस्यमय झील वासुकीताल है। प्रकृति की अद्भुत छटा, वनस्पति के बीच ब्रह्म कमलों, बर्फ की धवल चोटियों तथा रास्ते में असंख्य जड़ी-बूटियों की महक अलौकिक अनुभूति कराती है। समुद्रतल से 4600 मी०की ऊँचाई पर होने से वासुकीताल आम आदमी के जाने के लिए नहीं है। यहाँ पर झुंड बनाकर ही जाना चाहिए। क्याेंकि बर्फ में खो जाने का भय रहता है। अकेले जाना जोखिम भरा ही है।
आवासीय तथा अन्य सुविधाएँ- सभी आवश्यक वस्तुएँ यहाँ पर उपलब्ध हो जाती हैं। आवासीय व्यवस्था के लिए यहाँ वर्ष 2013 के पश्चात् सीमित लोगों को ठहरने के लिए रखी गई है। स्वास्थ्य केन्द्र के साथ-साथ आवश्यक दवाइयाँ भी मिल जाती हैं। केदारनाथ से वापस गौरीकुंड होकर गुप्तकाशी आना पड़ता है।
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रामाकांत बेंजवाल / वरिष्ठ साहित्यकार :-ऋषिकेश से सोनप्रयाग 210 किमी सड़क मार्ग से बस या टैक्सी का सफर तय करने के बाद यहाँ से स्थानीय छोटे वाहन से गौरीकुंड
और फिर केदारनाथ के लिए पैदल चलना होता है। पैदल चलने में असमर्थ यात्री गुप्तकाशी या सोनप्रयाग से हेली सेवा से या गौरीकुुंड से घोड़ा या कंडी से जा सकते हैं।
हरे-भरे वन, बर्फ की चादर ओढ़े ऊँचे-ऊँचे पर्वतों से झरते झरने और ‘जय केदार’ का उद्घोष करते यात्रियों के साथ चलते हुए गौरीकुंड से रामबाड़ा की चढ़ाई महसूस ही
नहीं होती है। लिनचौली में यात्री हल्का-फुल्का चाय-नाश्ता करता है। जो यात्री थक गया हो तथा यहाँ से आगे चलने की हिम्मत न रखता हो, रात्रि विश्राम लिनचौली में
भी कर सकता है। वैसे केदारनाथ में ही ठहरना उचित है।
गौरीकुंड से 16 किमी की दूरी तय करने के बाद दूर से ही भगवान केदारनाथ मंदिर के दर्शनों से एक नई स्फूर्ति शरीर में आ जाती है। केदार का अर्थ दलदल माना जाता है।
शिव प्रसाद डबराल केदार को किरात का अपभ्रंश मानते हैं। क्योंकि भगवान शिव यहाँ किरात भेष में रहे थे। केदारनाथ मंदिर तीन हिमशिखरों के नीचे 3584 मी- ऊँचाई पर एक
पवित्रतम दृश्य है।
पौराणिक महात्म्य-
केदारनाथ बड़े-बड़े तराशे गए पत्थरों का भव्य एवं विशाल मंदिर है। गर्भ गृह के बाहर एक मंडप है। मंडप में द्रौपदी सहित पांडवों की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में
पत्थर के चार खम्बे हैं जिन्हें देखने से लगता है कि ये मंदिर के बाहरी भाग से प्राचीन होंगे। मुख्य रूप से यहाँ पर भैंसे की पीठ की तरह एक शिला है। यही शिला
असली केदारनाथ भगवान के रूप में पूजी जाती है। शिव पुराण कोटि संहिता (अध्याय 19ः1-9) के अनुसार जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ तो वेद व्यास ने पांडवों को अपना
राज-पाट छोड़ शिवजी से आशीर्वाद लेने के लिए हिमालय की ओर भेजा। पांडवों को अपना ही गोत्र हत्यारा समझ शिवजी उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। महिष (भैंसा) का
रूप धारण कर शिव अन्य भैंसों के बीच विचरण करने लगे। पांचों पाडवों में से भीमसेन शिव को महिष रूप में पहचान लेते हैं। यह मान्यता है कि जब शिवजी को आभास हुआ कि
मुझे महिष रूप में भी भीम द्वारा पहचान लिया गया है तो वे पृथ्वी में समाविष्ट होने लगे। तभी भीम ने महिषरूपी शिव का पिछला भाग पकड़ लिया। वह भाग पत्थर बन गया।
आज वही पिछला भाग शिलारूप में केदारनाथ, नाभि मद्महेश्वर, भुजा तुंगनाथ, मुख रुद्रनाथ और जटा कल्पनाथ के नाम से जाने जाते हैं। ये पांचों स्थान पंचकेदार के
नाम से प्रसिद्ध हैं।
केदारनाथ तीर्थ का वर्णन पौराणिक धर्म ग्रंथों में विशेष रूप से आता है। महाभारत में वर्णित है-
तत्र सप्तर्षिकुण्डेषु स्नातस्य नर पुघवः।
केदारे चैव राजेन्द्र कपिलस्य महात्मनः।। (वन पर्व-83ः72)
किरात वेषसंच्छनः सीभिश्चापि सहस्रशः।
अशोभित तदा राजन् स देशोतीव भारत।। (वन पर्व 39ः5)
उक्त श्लोकों में केदार तीर्थ में स्नान का महात्म्य तथा शिव का किरात वेष में अर्जुन से युद्ध का वर्णन मिलता है। देवी पुराण के केदार महात्म्य में लिखा है
कि केदार के जल को पीकर पुनर्जन्म नहीं होता है। इसी प्रकार कूर्म पुराण के सैंतीसवें अध्याय में केदार तीर्थ का वर्णन किया गया है। स्कंद पुराण के केदारखंड
में केदारमंडल (हरिद्वार सहित संपूर्ण गढ़वाल) का विस्तृत वर्णन मिलता है। केदारखंड के अध्याय 42 में केदारतीर्थ का महात्म्य वर्णित हैः-
केदारेश्वरलिंग्स्य घृताम्यक्तमुदग्वम्।
अंगमंगेनस्वस्यापि स्पृशन्प्रेरणा सकृत्पुमान् (75)
श्री केदारेश्वर लिंग (पृष्ठ शिला) में उत्तम घृत मलकर श्रद्धापूर्वक अपने शरीर का स्पर्श करवाना चाहिए। केदारनाथ मंदिर के अंदर महिषपृष्ठ शिलाकृति को ही
श्रद्धालु पूजा करने के बाद घृत मलकर अंकमाल (अंग छुवाना) करते हैं।केदारखंड 62ः42 में वर्णित है कि केदारनाथ के दर्शनों के बिना बदरीनाथ के दर्शन निष्फल हैं।
केदारनाथ के पीछे 6 किमी की दूरी पर एक लंबी श्वेत जलधारा दिखाई पड़ती है। वहीं सीधी खड़ी चट्टान पर एक भेल (खाई) है जिसे महापंथ, भृगुपंथ, भैंरोझाप आदि नामों से
जाना जाता है। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि पांडवों द्वारा इसी स्थान से स्वर्गारोहण किया गया था। ब्रिटिश काल सन् 1831 तक भी कई तीर्थयात्री मोक्ष
प्राप्ति हेतु गाजे-बाजों के साथ इसी स्थल से गिर कर अपने प्राणों का त्याग कर देते थे। ब्रिटिश शासन काल में इस प्रथा पर रोक लगने से अब यह प्रथा समाप्त हो गई
है। प्राचीन धर्म ग्रंथों में इस तीर्थ को भृगुपंथ भी लिखा गया है। वाल्मीकि रामायण में भगवान राम का भृगुपंथ आने का वर्णन मिलता हैः-
सपुत्र सहितं तात सभार्य रघुनंदन भृगु तुंगे। (बालकांड-61ः11) सातवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित के पांचवें उल्लास में भृगुपंथ से
मोक्ष प्राप्ति हेतु प्राणों के उत्सर्ग का वर्णन मिलता है। केदारकल्प के अध्याय-41 में शिवजी पार्वती से कहते हैं कि जिस प्रकार मैं प्राचीन हूँ उसी प्रकार
यह स्थान भी प्राचीन है। ब्रह्म मूर्ति को धारण करके मैं सृष्टि की रचना करने में इसी स्थान पर स्थित हुआ था। उसी दिन से यह स्थान विद्यमान है। केदार
पर्वतमाला से निकलने वाली पवित्र नदी मंदाग्नि (मंदाकिनी) का वर्णन महाभारत के भीष्म पर्व 9ः34 में मिलता है। केदारनाथ के दक्षिणी- पूर्वी भाग में बहने वाली
मंदाकिनी में स्नान का विशेष महात्म्य है।
पूजा-अर्चना-
केदारनाथ मंदिर की प्राचीन बहियों का हवाला देते हुए पं० हरिकृष्ण रतूड़ी ‘गढ़वाल का इतिहास’ में लिखते हैं- ‘जब पांडु पुत्र युधिष्ठिर स्वर्गारोहण को गए थे,
उस काल में गणों के स्वामी वीरभद्र से कुछ अवज्ञा हो जाने के कारण शिवजी के शाप से उसे चोल देश में वेदपाठी ब्राह्मण के घर में भुकुंड नाम से जन्म लेना पड़ा।
युवावस्था में वह काशी, गंगोत्तरी होकर केदारपुरी आया और तुंगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर आदि स्थानों में तपस्या करता रहा।’ इसी भुकुंड के शिष्य सम्प्रदाय
में तब से केदारलिंग की पूजा-अर्चना चली आ रही है। रतूड़ी जी ने भुकुंड से प्रारम्भ 319 रावलों (महंत) की सूची दी है। इस बही वाली कथा तथा रावलों की सूची पर कितना
विश्वास किया जाए, यह शोध का विषय है। क्योंकि इसकी प्रामाणिकता अपुष्ट है। केदारनाथ मंदिर से लगभग 2 फर्लांग ऊपर भुकुंड भैरव की मूर्ति भी स्थापित है।
रावल की उपाधि गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह ने सन् 1776 ई० के आसपास बदरीनाथ के अर्चक को दी थी। केदारनाथ के महंत को रावल कब से कहा जाने लगा, स्पष्ट नहीं है। केदारनाथ
के रावल दक्षिण मालावर में जंगम जाति के होते हैं। रावल के शिष्यों में से ही अगला रावल नियुक्त किया जाता है। रावल स्वयं पूजा नहीं करता। उसके शिष्य या गुरु
भाई पूजा करते हैं। रावल को विवाह का अधिकार नहीं है। केदारनाथ के रावल का गद्दी मठ ऊखीमठ में है। रावल के अधीन पंच केदार के मंदिर तथा अन्य 11 मंदिर आते थे।
वर्तमान में अधिकांश मंदिर, मंदिर समिति के अधीन हैं। केदारनाथ के तीर्थ पुरोहित तीर्थ यात्रा पर आए यात्रियों से पूजा-पाठ, पितृ-तर्पण आदि करवाते हैं। मंदिर
के दर्शन सुबह से दिन के एक बजे तक तथा सायं 5 बजे से 8 बजे तक किए जा सकते हैं। दिन में यात्रियों के दर्शनार्थ मंदिर बंद रहता है।
केदारनाथ हिमनद से बने मोरेन पर सुंदरतम स्थलाकृति है। केदारनाथ मंदिर के संबंध में माना जाता है कि इसे पांडवों द्वारा बनवाया तथा शंकराचार्य द्वारा
जीर्णोद्धार करवाया गया। पुरातत्व की दृष्टि से मंदिर का निर्माण अलग-अलग चरणों में हुआ। यह मंदिर ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। गर्भगृह में
कत्यूरी शैली के अभिलेखों से मंदिर का निर्माण काल आठवीं-नौवीं सदी से पूर्व ही माना जा सकता है। उदयपुर-प्रशस्ति के अनुसार धारा के परमार नरेश भोज ने 1043 ई० के
आसपास केदार मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। (उद्धरण- उत्तराखंड का इतिहास-11-डबराल पृ- 31)। सन् 1803 के भूकंप से भी मंदिर का ऊपरी भाग क्षतिग्रस्त हुआ था जिसे
पुनः बनवाया गया। राहुल सांकृत्यायन ने भी इसे हिमालय का भव्य एवं विशाल मंदिर कहा है। केदारनाथ मंदिर के पट मई प्रथम सप्ताह के आसपास दर्शनों के लिए खुलते
हैं। मंदिर के गर्भ गृह में अखंड ज्योति के दर्शनों का विशेष महात्म्य माना जाता है। अक्टूबर अंत तथा नवम्बर प्रथम सप्ताह के आसपास दीपावली तक मंदिर के कपाट
बंद हो जाते हैं। सर्दियों में यह क्षेत्र बर्फ से ढक जाता है। केदारनाथ की पंचमुख उत्सव मूर्ति कपाट बंद होने पर रावल द्वारा ऊखीमठ गद्दी स्थल तक लाई जाती
है। शीतकाल में यहीं पर पूजा-अर्चना की जाती है। मुख्य मंदिर के अलावा शंकराचार्य समाधि, कुंड, वासुकीताल आदि भी यहां दर्शनीय हैं।
शंकराचार्य समाधि
कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में ही यहाँ पर देहत्याग किया था। मंदिर के पीछे शंकराचार्य की मूर्ति तथा समाधि दर्शनीय हैं। केदारनाथ मंदिर
के पीछे पत्थरों का ढेर था जिसे अब शंकराचार्य स्मारक के रूप में विकसित किया गया है। यह भी इतिहासकार मानते हैं कि यहीं पर मूल मंदिर की स्थापना हुई थी। डॉ०
शिव प्रसाद नैथानी ने उत्खनन की आवश्यकता बताते हुए वहीं पर मूल मंदिर की बात कही है।
कुंड
मंदिर के पिछले भाग में अमृत कुंड, उत्तर पूर्वी भाग में हंस कुंड जिसमें पर्वतीय यात्री श्राद्ध करते हैं। रेतस कुंड के चढ़ावे को पंडा वर्ग आपस में बांटता
है। पश्चिम में सुबलक कुंड और मंदिर के सामने उदक कुंड के पानी से यात्री आचमन करते हैं। वर्ष 2013 की भीषण त्रसदी में ये कुण्ड मलवे से ढक गए थे, इन्हें
पुनर्जीवित किया जा रहा है। पौराणिक ग्रंथों में इन कुंडों के दर्शनों का महात्म्य बताया गया है।
वासुकीताल
खरचा, भारखंड तथा केदार शिखर की तीन उजली हिम चोटियों के अलावा यहाँ से पश्चिम दिशा की ओर 5 कि-मी- की दूरी पर रहस्यमय झील वासुकीताल है। प्रकृति की अद्भुत छटा,
वनस्पति के बीच ब्रह्म कमलों, बर्फ की धवल चोटियों तथा रास्ते में असंख्य जड़ी-बूटियों की महक अलौकिक अनुभूति कराती है। समुद्रतल से 4600 मी०की ऊँचाई पर होने से
वासुकीताल आम आदमी के जाने के लिए नहीं है। यहाँ पर झुंड बनाकर ही जाना चाहिए। क्याेंकि बर्फ में खो जाने का भय रहता है। अकेले जाना जोखिम भरा ही है।
आवासीय तथा अन्य सुविधाएँ- सभी आवश्यक वस्तुएँ यहाँ पर उपलब्ध हो जाती हैं। आवासीय व्यवस्था के लिए यहाँ वर्ष 2013 के पश्चात् सीमित लोगों को ठहरने के लिए रखी गई
है। स्वास्थ्य केन्द्र के साथ-साथ आवश्यक दवाइयाँ भी मिल जाती हैं। केदारनाथ से वापस गौरीकुंड होकर गुप्तकाशी आना पड़ता है।