कालिका काण्डपाल- अगस्त्यमुनि दशज्यूला क्षेत्र की अधिष्ठात्री माँ चण्डिका की दिवारा यात्रा नौ महिनों के भ्रमण के बाद के नौ जून को सम्पन्न होने जा रही है। नौ दसकों के बाद हुई इस देव यात्रा को लेकर न केवल क्षेत्रवासी बल्कि देश विदेश में रह रहे दशज्यूला वासियों, धियाणियां सहित जनपद के सभी भक्त उत्साह के साथ एक जून से नौ जून तक चलने वाली महड़ माँ चण्डिका बन्याथ को भव्य बनाने की स्वागत की तैयारीयों में जुटे हुए है।

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जानकारी देते हुए जय माँ चण्डिका दशज्यूला दिवारा समिति के अध्यक्ष धीर सिंह विष्ट और सचिव देवेन्द्र जग्गी व प्रबन्धक हीरा सिंह नेगी ने बताया कि 226 दिनों में 7 जिलों के 300 से अधिक गांवों का भ्रमण कर भक्तों की कुशलक्षेम जानते हुुए सुख समृद्धि और विश्वकल्याण की कामना के साथ पंचप्रयागों के स्नान सहित बद्री केदार, हरिद्वार, उत्तरकाशी, त्रियुगीनारायण आदि तीर्थों के दर्शन कर देवी इन दिनों बानी गावों की यात्रा कर रही है। 1 जून को कुण्ड खातिक, गरूडछडा और अरूणि मंथन के साथ बन्याथ महायज्ञ का शुभारम्भ होगा। नित्य दैविक-वैदिक परम्पराओं और विधिविधान से वैदिक मत्रोंचार के साथ माँ के सभी रूपों की पूजा अर्चना, शीरा बांटने की परम्परा के साथ 8 जून को जलयात्रा, कंशफाडा के बाद 9 जून को पूर्णाहुति के साथ इस महायज्ञ का समापन किया जायेगा। क्या है दिवारा यात्रा-  पौराणिक मान्यता व विश्वास के अनुसार दक्ष प्रजापति द्वारा एक महायज्ञ का आयोजन किया जाता है जिसमें की शिव पार्वती को आमंत्रित नही किया जाता है। और पर्वती द्वारा बिन बुलाये ही इस महायज्ञ में पहुंचने पर दक्षपजापति द्वारा शिवजी को अपशव्द कहकर अपमानित किया जाता है, जिससे क्रोधित होकर माँ सती ने उसी यज्ञकुण्ड में अपनी आहुती देकर प्राण त्याग दिये। जिससे बाद शिवजी द्वारा अपने गणों को दक्षपत्रापति को दण्ड देने का आदेश दिया जाता है। वीरभद्र द्वारा यज्ञ विध्वंस कर दक्ष प्रजापति का शिर धड से अलग कर दिया जाता है तथा अन्य शिवगणों द्वारा वहां विनाश लीला प्रारम्भ कर ली जाती है। ये शिवगण दिवारा यात्रा में ऐरोला के नाम से आज भी हमारी परंम्परा में जीवित है, जो सदैव मां भगवती के प्रतिरूप की यात्रा कराते है। इसी यज्ञ के भयानक विनाशलीला को देखकर इसे शान्त करने हेतु भगवान विष्णु बालरूप धारण करते हैं जो इस देवयात्रा में बाल्द्यों के नाम से निरंतर माँ की सेवा में लगे रहते है। श्री शिवशिक्त मन्दिर महड़ महड़ (दशज्यूला) स्थित माँ चण्डिका मन्दिर को पौराणिक मान्यताओं और लोक श्रृतियों के आधार पर 9 वीं सदी में स्थापित माना जाता है। शंकराचार्य कालीन मन्दिरों की भातिं इस मन्दिर की स्थापना भी हिन्दुधर्म के प्रचार प्रसार के उद्देश्य से की गयी होगी। धिरे धिरे भक्तों द्वारा इस स्थान पर मन्दिर सूमहों का निमार्ण किया गया, जो आज भी देखे जा सकते हैं। इस मन्दिरों में भगवान शिव और माँ चण्डिका सहित पंचकोटी देवताओं की पूर्तियां स्थापित की गयी है। मान्यताके अनुसार आगर गांव में नन्दा (बाल्य) के स्वरूप में आज भी पूजी जाती है। नन्दा द्वारा गांव के ठीक ऊपर नैणी पर्वत पर भगवान शिव की तपस्या करने के कारण नैणी देवी (युवाअवस्था) के स्वरूप में पूजी जाने लगी। जिसके पश्च्यात गाय के रूप में नैणी देवी महड पहुंचकर शिव की अर्धागनी के स्वरूप में शिव मन्दिर महड़ में चण्डिका के स्वरूप में पूजी जाने लगी है। इसलिए आज भी आगर गांव को माँ का मायका माना जाता है।