केदार आपदा की नौवीं बरसी पर उस घटना में मृत सभी लोगों को श्रद्धांजलि । अखिलेश डिमरी  /  दस्तक पहाड़ न्यूज पोर्टल  - इस सूबे की नजर से देखें तो 15-16 जून 2013 को हुई उस घटना से महज मानव और आर्थिक हानि ही नहीं हुई बल्कि धीरे धीरे सूबे के अस्तित्व पर भी सवालिया निशान छोड़े हैं।आज

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नौ साल बाद उस घटना का कुछ अलग ढंग से विश्लेषण करना जरूरी है, एक ऐसा विश्लेषण जो इस राज्य की आवश्यकता , उसके लिए लड़ी गयी लड़ाई और नीति नियंताओं के मानसिक दिवालियेपन को जता सके। इसी आपदा की बात करें तो गौर करियेगा कि सवाल खड़े करता तब का विपक्ष आज का पक्ष है और तब के सवाल आज न पक्ष के पास हैं और न विपक्ष में ही हैं। तथाकथित तब के दोषी आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध सत्ता के घोषित धर्मयुद्ध के सारथी बन पोस्टरों में लटक कर न अब जाने कहां हैं..? राज्य गठन की मूल अवधारणा के विरुद्ध वर्ष 2013 से पहले इस सूबे के पहाड़ी क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर 93 व्यक्ति प्रतिदिन होने वाला पलायन आज बढ़ कर लगभग 189 व्यक्ति प्रतिदिन हो गया है, और हम इस राज्य की स्थापना के बीस सालों का यशोगान कर रहे हैं। समझना होगा कि इस सूबे के नीति नियंता किस कदर मानसिक विक्षप्तता में इस सूबे को ऐशगाह बनाये हुए हैं, एक ऐसी ऐशगाह जहां कोई पायलेट, गांधी , उपाध्याय, आदि आदि तो प्रासंगिक बना दिए गए लेकिन राजेश रावत, यशोधर बेंजवाल, हँसा धनाई , बेलमती चौहान को भुला दिया गया.....? और कोफ़्त कीजिये खुद पर कि आज के लग रहे जयकारों में जयजयकार की आवाज हमारी ही है। मैं भी यूँ ही कुछ सवालों को उठाकर हमेशा ही यह समझने का प्रयास कर रहा हूँ कि लोकतन्त्र की अवधारणा में सत्ता के चरित्र के सामने क्या हम असल लोकतन्त्र में जी रहे हैं या यहाँ अभी भी सांकेतिक लोकतन्त्र है जहां लोक सत्ता के समानांतर आज भी खड़ा नहीं हो पाया......? राजनैतिक जमात की गुलामी स्वीकार कर बिना सवाल उठाये भक्तिभाव अथवा अंधविरोध की पराकाष्ठा को भी पार करता हुआ समाज आखिर कह कैसे रहा है कि वो एक मजबूत लोकतन्त्र का हिस्सा है ..? खैर आज के दिन वर्ष 2013 की उस आपदा को याद कीजिये और समझने का प्रयास कीजिये कि हम आखिर आज भी खड़े कहाँ पर हैं ....?