अजय रावत  / सचिव पलायन एक चिंतन ।- बीस बरस से देहरादून में बैठकर पहाड़ पर राज कर रहे हुक्मरानों को इस बात का जरा भी इल्म नहीं कि कि केंद्र सरकार से लेकर देश दुनिया से तुम्हे सूबा चलाने के लिए दिल खोल कर जो खाद पानी यानी बज़ट मिल रहा,वह सिर्फ पहाड़ के नाम पर मिल रहा है। लेकिन उसी सूबे में पहाड़ की सांस दिन ब दिन उखड़ती जा रही हैं। एक सप्ताह के अंदर पिथौरागढ़ के मुनस्यारी के बौना क्षेत्र में एक बीमार महिला को लोमहर्षक परिस्थितियों में अस्पताल ले जाने का वीडियो हो या उत्तरकाशी के मोरी क्षेत्र में कुछ गांवों की लाइफ लाइन बने मात्र दो माह पुराने पैदल पुल के जल समाधि लेने के चित्र ने इस सूबे में 2 दशक से राज कर रहे हुक्मरानों के

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निकम्मेपन या पहाड़ के प्रति उनकी हेय सोच को बेपर्दा कर दिया है, वह भी तब जब अभी तक इस सूबे की गद्दी पर फिलहाल पहाड़ी मूल के सियासतदां काबिज़ रहे हैं। यह सोचकर सिहरन पैदा हो जाती है कि जब वर्तमान में सूबे की विधान सभा में पहाड़ का प्रतिनिधित्व अधिक है ऐसे हालात में भी नेताओं व अधिकारियों द्वारा पहाड़ को सिर्फ योजनाओं के जरिये पैसा बनाने का साधन मात्र मान लिया गया है तो आने वाले वर्षों में पहाड़ का कौन पुरसाहाल होगा जब परिसीमन के पश्चात मैदानी प्रतिनिधित्व पहाड़ पर हावी हो जाएगा। सरकारों ने जो हालात पैदा कर दिए हैं उसके नतीजे हुए पलायन के कारण आने वाले परिसीमन से पहाड़ का प्रतिनिधित्व और सिकुड़ जाएगा। आगामी 2025 में विस् क्षेत्रों का संभावित परिसीमन है, आखिरी मौका है देहरादून में बैठी सरकार के पास कि उत्तराखंड की आत्मा "पहाड़" को बचाने की खातिर किसी चमत्कारिक कार्यसंस्कृति को अंगीकार करे, जिसमे "पहाड़" जुमला न हो, बल्कि जुनून हो..युवा मुख्यमंत्री Pushkar Singh Dhami चाहें तो ऐसा कर सकते हैं।