दीपक कुंवर / चमोली गढ़वाल - लिखना एक त्रासदी है हम दुःख में भी लिखते और सुख में भी, क्योंकि तटस्थ रहकर सब कुछ झेल जाना लिखने वालों के बस में नहीं होता है। जिंदगी के मुड़े हुए पन्नों पर खींची हुई आड़ी-तिरछी रेखाओं से इतना जरूर समझ पाया हूँ कि जब भी 'उदासी' दरवाजे से अंदर आती है तो 'इंकलाब' खिड़की से बाहर हो जाती है। कोटद्वार की यह घटना बहुत से युवाओं के जीवन में हमेशा जीवंत रहेगी, जिसे वे कभी नहीं भुला पायेंगे। इधर भर्तियों में पेपर लीक की घटना और उधर अग्निवीरों की दुःखद घटना। युवाओं के जीवन में इस बरस के श्रावन-भाद्र मास में इतनी बारिश हुई कि उनके जीवन के रास्ते में पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा टूटकर आ गिरा, जिसके कारण उनके सफर का रास्ता कुछ समय के लिए बन्द हो गया। सफर सिर्फ रास्ता बन्द होने तक ही नहीं रुका, बल्कि बहुत से युवाओं ने रास्ता बन्द होने के कारण वहीं से वापस लौट आना

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उचित समझा और इस रास्ते से जीवन के आगे के सफर का पड़ाव हमेशा के लिए बन्द कर दिया, जिसके एवज़ में इस बरस के स्वतन्त्रता दिवस के अमृत महोत्सव के बाद युवाओं को समझ आया कि ‘उन्हें आज़ादी तो मिल गई है पर पता नहीं कि उस आज़ादी का करना क्या है’?? क्योंकि एक साथ अनेक हादसा को सहने की क्षमता जब तक दर्द से अर्राए युवाओं में पनपती, तब तक जीवन की इस छोटी सी उम्र में उनके भाग्य में हादसा का अंबार लग जाना, मेरे लिए एक संवेदनशील विरह है। एक असफल प्रदेश की असफल कहानी के दर्द को जब युवाओं के कंठ से सुन रहा हूँ तो लग रहा है कि कानों में कोई ज्वालामुखी का लावा डाल रहा हो। अतः फोन कटते ही आँखें मूंदकर तमाम तरीक़े सोचने लगता हूँ, जिससे की युवाओं के चेहरे पर इस मुश्किल दौर में एक मुस्कान तो आये। प्रदेश में चारों तरफ वबा फैली हुई है, जिससे युवाओं के सपने मर रहे हैं और मरते हुए सपनों को देखते हुए कुछ आने वाले युवाओं के सपने मर रहे हैं। पैरों में चप्पल पहने, लाचारी से झुके कंधों पर हाईस्कूल-इंटरमीडिएट के दस्तावेजों से भरे बैग टाँगे युवा, जिस युवा पर दुनिया तरस खा रही है। वो इस दुःखी दौर में अपनी दुःखी आँखों से इधर-उधर की भर्तियों की तस्वीर कैद कर रहा है, जिन तस्वीरों से आने वाला भविष्य अपने भविष्य से डर रहा है।