दीपक बेंजवाल  / अगस्त्यमुनि  दस्तक पहाड न्यूज : उत्तराखंड वीरों की धरती है, सदियों से यहाँ की वीरगाथाएँ पहाड़ की सर गर्व से उठाती रही है। इन वीरगाथाओं में शामिल है केदारघाटी के एक वीर सपूत शहीद गजेंद्र सिंह बिष्ट की कहानी। आज उनकी शहादत को 14 साल पूरे होने को है लेकिन देश उनके बलिदान को नहीं भूला है। दस्तक पत्रिका परिवार केदारघाटी के अपने वीर सपूत शहीद गजेंद्र सिंह बिष्ट को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती है।

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26 नवंबर 2008 को आर्थिक राजधानी मुंबई में देश का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था। इस हमले में 26 विदेशी नागरिकों समेत 166 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी। इस हमले को आज 14 साल का लंबा वक्त बीत चुका है, लेकिन उससे जुड़ी खौफनाक यादें आज भी जहन में जिंदा हैं। 26/11 की वह काली रात किसे याद नहीं, जब देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में घुसे आतंकियों ने शहर की सड़कों पर मौत का तांडव मचाया था। 26 नवंबर 2008 के उस हमले ने डेढ़ करोड़ की आबादी वाले मुंबई शहर की सांसें रोक दी थी। मुंबई हमले का टीवी पर लाइव टेलीकास्ट देखकर जब हर देशवासी सहमा हुआ था, तो उस मुश्किल वक्त में भी कुछ लोग थे, जो आतंकियों से लोहा लेने के लिए आगे बढ़े और तब जाकर लोगों ने राहत की सांस ली।आतंकियों का मुकाबला करने वाले जवान नेशनल सिक्योरिटी गार्ड के थे। नेशनल सिक्योरिटी गार्ड यानी एनएसजी के इस 200 कमांडो वाले दल ने ऑपरेशन टोरनेडो चला कर मुंबई में मौत का तांडव मचा रहे 10 आतंकियों में से नौ को मार गिराया, जबकि एक को मुंबई पुलिस ने जिंदा पकड़ लिया। इस कार्रवाई में दो एनएसजी जवान शहीद हुए थे, जिसमें से एक गजेंद्र सिंह बिष्ट थे, जो उत्तराखंड के रहने वाले थे। 'जबतक सिर पर टोपी है तब तक देश का हूं'। शहीद गजेंद्र की पत्नी विनीता बताती हैं कि गजेंद्र हमेशा कहते थे कि 'जब तक मेरी कमर में सेना की बेल्ट और सिर पर टोपी है तब तक मैं देश का हूं'। 26 नवंबर 2008 को रोज की तरह वे अपने पति गजेंद्र, 11 वर्षीय पुत्र गौरव और 10 वर्षीय पुत्री प्रीति के साथ हरियाणा में मौजूद एनएसजी 20 मानेसर कैंप में मौजूद थीं। [caption id="attachment_29323" align="alignnone" width="759"] विनीता, अपने बच्चों गौरव और प्रीति के साथ देहरादून निवास। फोटो कविता उपाध्याय द्वारा[/caption] उन्होंने बताया कि मुंबई में हमला होने के कुछ ही घंटों बाद एनएसजी 20 में तेज आवाज में सायरन बजने लगा।यह उनकी लाइफ का पहला अलर्ट था और उन्हें कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है ? इसके बाद उनके पति गजेंद्र भी जल्दी से तैयार होकर बिना कुछ बताए हेडक्वार्टर चले गए और वहीं से मुंबई रवाना हो गए। विनीता बताती हैं कि मुंबई हमलों को लेकर टीवी पर चल रही खबरों से वे काफी परेशान थीं। उन्हें अंदाजा हो गया था कि उनके पति भी इसी ऑपरेशन के लिए गए हैं। हालांकि, तब तक गजेंद्र ने घर में कुछ नहीं बताया था, लेकिन 28 नवंबर की सुबह 6 बजे गजेंद्र का फोन आया और उन्होंने बताया कि वो ताज होटल से नरीमन हाउस की तरफ जा रहे हैं। उनके एक सीनियर ऑफिसर को गोली लगी है। गजेंद्र ने घर का हाल जाना और कहा कि बच्चों का ख्याल रखना और कुछ ही सेकंड की हुई इस बातचीत के बाद फोन कट गया। विनीता बताती है कि वह पूरे दिन उस रोज टीवी देखती रहीं। उनकी नजर एक सेकंड के लिए टीवी से नहीं हटी और 3:00 बजे जब बच्चे स्कूल से आए, तो टीवी पर एक फ्लैश चलने लगा, जिसमें एनएसजी के बिजेंद्र नाम के एक कमांडो के शहीद होने की खबर थी। घर में माहौल बिगड़ गया, लेकिन भरोसा था कि पति का नाम गजेंद्र है न कि बिजेंद्र, लेकिन भरोसा तब चूर-चूर हो गया, जब देर शाम आर्मी के कुछ घर आए और सांत्वना देने लगे। कारगिल में भी निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका  गजेंद्र की पहली पोस्टिंग नागालैंड में हुई थी, जहां उन्होंने कई बार आतंकियों के खिलाफ सफलतम ऑपरेशन को अंजाम दिया। कारगिल युद्ध के दौरान ही उनका एनएसजी में चयन हुआ था। उन्होंने साल 2002 में अक्षरधाम में हुए आतंकी हमले में भी आतंकियों से लोहा लिया था। मुंबई हमले के दौरान ऑपरेशन टारनेडो को अंजाम देते हुए नरीमन हाउस में गजेंद्र ने आतंकियों का डटकर मुकाबला किया और आतंकियों का डटकर मुकाबला किया और वह इस दौरान शहीद हो गए। आतंकियों ने नरीमन हाउस में 6 लोगों को बंधक बना रखा था। गजेंद्र के पास बिल्डिंग में घुसे आतंकियों को बाहर खदेड़ने और बंधकों को छुड़ाने का जिम्मा था। अपनी टीम को लीड करते हुए गजेंद्र छत को पार कर उस जगह के करीब पहुंच गए थे, जहां आतंकी छिपे थे। तभी आतंकियों ने ग्रेनेड से हमला कर दिया, जिसमें गजेंद्र बुरी तरह घायल हो गए. इसके बावजूद उन्होंने फायरिंग करना जारी रखा। आतंकी तो मारे गए मगर उस दौरान गजेंद्र शहीद हो गए। उनकी वीरता के लिए उन्हें अशोक चक्र से नवाजा गया। रुद्रप्रयाग के करने वाले थे गजेंद्र मूल रूप से रुद्रप्रयाग जिले के अरखुण्ड गांव के निवासी गजेंद्र सिंह बिष्ट का जन्म देहरादून के गणेशपुर में हुआ था। गजेंद्र की शिक्षा दीक्षा देहरादून में ही हुई। अपने चाचा से प्रेरित होकर ही वो सेना में भर्ती हुए। इसके कुछ सालों बाद ही उनका एनएसजी में चयन हो गया। गजेंद्र के बड़े भाई बीरेन्द्र सिंह बिष्ट उत्तराखंड में पुलिस अधिकारी हैं। बीरेन्द्र बताते हैं- 'वो हमेशा फोर्स में ही जाना चाहता था और एक हीरो की तरह शान से मरने की बातें करता था। उसकी इच्छा पूरी हुई।' गजेंद्र सिंह को उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। बीरेन्द्र कहते हैं- 'मेरा भाई शेर था, वो कभी किसी से डरा नहीं, बस यही कहा करता था कि अगर देश के लिए जान भी देनी पड़ी तो पीछे नहीं हटूंगा।' गजेंद्र ने नया गांव के जनता इंटर कॉलेज से पढ़ाई की थी। वो 1980 से लेकर 1990 तक यहां के छात्र थे। इस स्कूल के अध्यापक सुभाष चंद जसोला समेत पूरा स्टाफ और छात्र गजेंद्र के अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे। जसोला बताते हैं- 'मैं उसे भूल नहीं सकता, खेलों में उसकी ज्यादा रुचि थी, खासकर बॉक्सिंग में।' ये कहते-कहते जसोला का गला भर आता है। अपने शिष्य के बारे में वो आगे बताते हैं- 'गजेंद्र एक अनुशासित छात्र था और स्कूल के हर प्रोग्राम में हिस्सा लेता था, चाहे खेल हो या कोई कल्चरल इवेंट।' शहीद की याद में स्मारक [caption id="attachment_29322" align="alignnone" width="759"] एनएसजी के हवलदार गजेंद्र सिंह बिष्ट का स्मारक उनके निवास से लगभग तीन किलोमीटर दूर उनके पैतृक गांव गणेशपुर में है। फोटो कविता उपाध्याय द्वारा[/caption] अपने घर से लगभग तीन किलोमीटर दूर, गणेशपुर में बिष्ट के पैतृक गांव में, एक स्मारक है जिसे विनीता ने 2012 में अपने दिवंगत पति के लिए बनवाया था। 250 वर्ग गज के भूखंड पर निर्मित, स्मारक बिष्ट की शहादत के गणेशपुर में लोगों को याद दिलाता है। लेकिन विनीता और उनके बच्चों के लिए, उनकी वर्दी में बिष्ट का स्मारक और आदमकद प्रतिमा बस एक सुकून देने वाली उपस्थिति है। विनीता कहती हैं, ''जब भी मुझे उनकी याद आती है, मैं यहां आ जाती हूं।''