■■ डाॅ. राकेश भट्ट की कलम से  ■■ ढोल ईश्वर ने ढोल्या / पार्वती ने बटोल्या /  विष्णु ने उस पर कन्दोटी चढ़ाया / बरमा जी ने चारे जुग घुमाया...ये ढोल की महिमा है। अजीब सा है कुछ कि ढोल की तो हमने महिमा गाई मगर ढोली को सदैव वर्जनाओं में रखा। मगर आज वो वर्जनाएं खंडित हो गईं जब सबसे बड़े अकादमिक मंच पर ढोल और ढोली को उसका यथोचित सम्मान मिल सका। गढ़वाल विश्वविद्यालय को अनेकों साधुवाद जिन्होंने एक सोहन लाल मात्र को ही सम्मानित नहीं किया वरन उस पूरे ढोली समुदाय को गौरवान्वित किया है जो कालांतर से शोषित,

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दमित और उपेक्षित था। इस उपलब्धि के लिए विशेषतः प्रोफ. दाता राम पुरोहित को विशेष बधाई देना चाहूंगा जिनका सपना था कि आज के दिन जैसा कोई एक दिन भी आये, और वह आ गया। 90 और 2000 के दशक में मैं और प्रोफ पुरोहित एक ही मुहल्ले में रहते थे। जब भी कोई ढोल वाला व्यक्ति लोगों को दिखता था तो लोग हंसी उड़ाकर कहते थे- यू औजी य त पुरेत जी का यख होलू जाणु य भट्ट का यख। मगर हमने उनकी उलाहना उन्हीं के पास रहने दीं और काम करते रहे। यहां तक कि बचपन मे मैंने ये भी देखा अगर हमने ढोल- दमाऊं पकड़ लिया तो घर के दकियानूस बुजुर्ग यहां तक कह देते थे- अब ये निर्भगी नैना थें नयोण पड़लू। वस्तुतः ढोल और ढोली ने समय-समय पर अपमान ही पाया जबकि हम उन्हें उचित सम्मान दे सकते थे। मगर चीज़ें अपने पुनर्जागरण काल मे हैं। सांस्कृतिक बोध विकसित होने लगा है। हम अब ये समझने लगे हैं कि जड़ें अगर कट गईं तो सांस्कृतिक रूप से हम छिन्न-भिन्न हो जाएंगे। पंजाबी भांगड़े और बिजनौरी राम ढोल पर झांझ के नृत्य करने वाले समझ गए हैं कि प्रोफेसर पुरोहित जैसे अनेक लोगों का यह प्रयास ग़लत नहीं था। बताता चलूं कि 19 फरवरी 2003 को मेरा विवाह भी सोहन लाल के ही ढोल के अनुष्ठान पर हुआ था। ढोल की गूंज पर जब बारात चली थी तो देखने वालों ने एक टक्क देखकर कहा था"बरात हो त इन हो। आज इस बड़ी उपलब्धि पर सोहन लाल को अनंत बधाई व शुभकामनाएं इन कामनाओं के साथ कि नईं संतति में भी सैकड़ों सोहन लाल पैदा हों। डर है तो इस बात का कि मानद उपाधि के अंहकार में सोहन लाल का ढोल नाद कहीं बेताल न हो जाय। पुनश्च्य बधाई ❤️❤️🇮🇳🇮🇳