सुरेन्द्र भण्डारी / दस्तक पहाड / परिक्रमा उत्तराखंड में स्थित, कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग जिले के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है एवम् इस मंदिर को भारत के प्रमुख सिद्ध शक्ति पीठों में से एक माना जाता है । कालीमठ मंदिर हिंदू “देवी काली” को समर्पित है । कालीमठ मंदिर तन्त्र व साधनात्मक दृष्टिकोण से यह स्थान कामख्या व ज्वालामुखी के सामान अत्यंत ही उच्च कोटि का है । स्कन्दपुराण के अंतर्गत केदारनाथ के 62 अध्धाय में माँ काली के इस मंदिर का वर्णन है | कालीमठ मंदिर से 8 किलोमीटर की खड़ी ऊंचाई पर स्थित दिव्य

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चट्टान को ‘काली शिला’ के रूप में जाना जाता है , जहां देवी काली के पैरों के निशान मौजूद हैं और कालीशीला के बारे में यह विश्वास है कि माँ दुर्गा ने शुम्भ , निशुम्भ और रक्तबीजदानव का वध करने के लिए कालीशीला में 12 वर्ष की बालिका के रूप में प्रकट हुयी थी | कालीशीला में देवी देवता के 64 यन्त्र है , माँ दुर्गा को इन्ही 64 यंत्रो से शक्ति मिली थी | कहते है कि इस स्थान पर 64 योगनिया विचरण करती रहती है | मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी । तब मां प्रकट हुई और असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर युद्ध में दोनों दैत्यों का संहार कर दिया। कालीमठ मंदिर के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसके एक मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है , मंदिर के अन्दर भक्त कुंडी की पूजा करते है , यह कुंड रजतपट श्री यन्त्र से ढखा रहता है । केवल पूरे वर्ष में शारदे नवरात्री में अष्ट नवमी के दिन इस कुंड को खोला जाता है और पूजा केवल मध्यरात्रि में की जाती है | कालीमठ मंदिर सबसे ताकतवर मंदिरों में से एक है, जिसमें शक्ति की शक्ति है | यह केवल ऐसी जगह है जहां देवी माता काली अपनी बहनों माता लक्ष्मी और माँ सरस्वती के साथ स्थित है । कालीमठ में महाकाली, श्री महालक्ष्मी और श्री महासरस्वती के तीन भव्य मंदिर है | इन मंदिरों का निर्माण उसी विधान से संपन्न है जैसा की दुर्गासप्तशती के वैकृति रहस्य में बताया है अर्थात बीच में महालक्ष्मी, दक्षिण भाग में महाकाली और वाम भाग में महासरस्वती की पूजा होनी चाहिए । स्थानीय निवासीओं के अनुसार, यह भी किवदंती है कि माता सती ने पार्वती के रूप में दूसरा जन्म इसी शिलाखंड में लिया था। वहीं, कालीमठ मंदिर के समीप मां ने रक्तबीज का वध किया था । उसका रक्त जमीन पर न पड़े, इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उसके रक्त को चाटना शुरू किया । रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है । इस शिला पर माता ने उसका सिर रखा था । रक्तबीज शीला वर्तमान समय में आज भी मंदिर के निकट नदी के किनारे स्थित है | इस मंदिर में एक अखंड धूनी निरंतर जली रहती है एवम् कालीमठ मंदिर पर रक्तशिला, मातंगशिला व चंद्रशिला स्थित हैं | कालीमठ मंदिर में दानवो का वध करने के बाद माँ काली मंदिर के स्थान पर अंतर्ध्यान हो गयी , जिसके बाद से कालीमठ में माँ काली की पूजा की जाती है | कालीमठ मंदिर की पुनर्स्थापना शंकराचार्य जी ने की थी |  कालीमठ के नजदीक एक प्राचीन गांव ‘कवल्था’ जो अब कविल्ठा के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि भारतीय इतिहास के अद्वितीय लेखक कालिदास का साधना स्थल भी यही रहा है । इसी दिव्य स्थान पर कालिदास ने माँ काली को प्रसन्न कर विद्वता को प्राप्त किया था । इसके बाद कालीमठ मंदिर में विराजित माँ काली के आशीर्वाद से ही उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं , जिनमें से संस्कृत में लिखा हुआ एकमात्र काव्य ग्रन्थ “मेघदूत” जो कि विश्वप्रसिद्ध है | “रुद्रशून” नामक राजा की ओर से यहां शिलालेख स्थापित किए गए हैं , जो बाह्मी लिपि में लिखे गए हैं । इन शिलालेखों में भी इस मंदिर का पूरा वर्णन है। मंदिर के नदी के किनारे स्थित कालीशीला के बारे में यह मान्यता है कि कालीमठ में माँ काली ने जिस शीला पर दानव रक्तबीज का वध किया , उस शीला से हर साल दशहरा के दिन वर्तमान समय में भी रक्त यानी खून निकलता है | यह भी माना जाता है कि माँ काली शिम्भ , निशुम्भ और रक्तबीज का वध करने के बाद भी शांत नहीं हुई , तो भगवान शिव माँ काली के चरणों के निचे लेट गए थे , जैसे ही माँ काली ने भगवान शिवजी के सीने में पैर रखा , तो माँ काली का क्रोध शांत हो गया और वह इस कुंड में अंतर्ध्यान हो गई , माना जाता है कि माँ काली इस कुंड में समाई हुई है और कालीमठ मंदिर में शिवशक्ति भी स्थापित है | ॥ जय मां काली ॥🚩🛕🚩🛕🚩