गुणानंद जखमोला / उत्तराखंड
- आखिर बुजुर्गों, महिलाओं और पूर्व फौजियों के सिवाए बचा ही कौन है पहाड़ में?
- रोजगार देते नहीं, छीन रहे हो, मार डालो इन पहाड़ियों को, बड़ा लैंड बैंक बनेगा तुम्हारा।
सात जून 2023 की बात है। मैं पौड़ी के नौगांवखाल बाजार गया था। वहां कुछ दुकानदारों ने लोकनिर्माण विभाग द्वारा तोड़े गये खोखे और नोटिस दिखाए कि बाजार तोड़ दो। मैंने बैजरों के एक्सईएन केसी नेगी से बात की। उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट ने कहा है। डीएम से कहो या सतपाल महाराज से। मैंने देहरादून लौटकर एक पोस्ट बनाई थी। जिसमें ज्वाल्पा देवी, पाबौ, नौगांवखाल बाजार के छोटे-छोटे व्यवापारियों को अतिक्रमण के नाम पर आतंकित किया गया था। किसी नेता के कान में जूं नहीं रेंगी। अब पूरे पहाड़ में अतिक्रमण के नाम पर इन दुकानदारों को उजाड़ा जा रहा है। मानो सरकार ने शहरों को कब्जामुक्त कर दिया हो।
हाईकोर्ट ने जब देहरादून से अतिक्रमण हटाने को कहा तो चूंकि चोर और भ्रष्ट नेताओं ने यहां की सरकारी जमीन पर बंग्लादेशियों और अन्य बाहरी लोगों को बसा दिया था तो उन्हें वो वोट बैंक लगने लगे। गणेश जोशी और प्रेमचंद अग्रवाल के इलाके में सर्वाधिक अतिक्रमण है। इसके बाद काउ के इलाके में। वोट बैंक का खतरा हुआ तो नालायक और भ्रष्ट त्रिवेंद्र सरकार बस्तियों के लिए अध्यादेश ले आयील। सबको बचा लिया। दून स्कूल का कब्जा आज तक नहीं हटा। ईसी रोड पर जजों के बंगले नहीं टूटे। ऊषा कालोनी के अवैध कब्जे नहीं हटे। यह है नेताओं की नंगी सच्चाई।
अब पहाड़ी वोट बैंक का मुद्दा नहीं है। नेताओं ने मान लिया है कि पहाड़ तो वीरान और बर्बाद ही होगा। कोरोना काल में तीन लाख 75 हजार से अधिक लोग पहाड़ों में लौटे। क्या हुआ। योजनाओं के बावजूद कई प्रवासी लोन के लिए ब्लाक, तहसील और जिला मुख्यालय के साथ ही साथ बैंकों का चक्कर काट-काट कर थक गये लेकिन उनको लाख रुपये का लोन भी नहीं मिला तो वो वापस शहरों को लौट गये। तब नेताओं को नहीं सूझा कि उन्हें कैसे रोके? जबकि जितना खर्च पलायन आयोग के उपाध्यक्ष एसएस नेगी पर खर्च किया जा चुका है उससे कम से कम एक हजार प्रवासियों को गांवो में बसाया जा सकता था। लेकिन नेता तो चाहते ही नहीं हैं कि पहाड़ बचे या बसे। 2026 के नए परिसीमन के बाद पहाड़ और बर्बाद हो जाएगा।
हाईकोर्ट की आड़ में अतिक्रमण हटाने के नाम पर नेता पहाड़ के लोगों को तिल-तिल कर मार रहे हैं। उनकी रोजी-रोटी छीन रहे हैं, लेकिन सभी पक्ष-विपक्ष के विधायक चुप्पी साधे बैठे हैं। यदि शहर की बात होती तो पार्षद से लेकर मंत्री तक चिल्लाते, क्योकि ऐसी रेहड़ी-ठेली वालों से ये रोजाना का कमीशन खाते हैं वोट लेते हैं सो अलग। चूंकि नेताओं को पहाड़ से कोई कमाई नहीं होती है, वहां के दुकानदार इनको कमीशन नहीं देते हैं तो सब उनके पीछे पड़ गये।
हमने उत्तराखंड राज्य की लड़ाई हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और देहरादून के लिए नहीं लड़ी। पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते पहाड़ के विकास की उत्कंठा को लेकर लड़ी। अवधारणा थी कि सीमांत गांव के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक विकास की किरणें पहुंचाना। राज्य बना तो वही अपने ही राज्य में पहाड़ और वहां रहने वाले पहाड़ी दोयम दर्जे के नागरिक बन गये। सारी विकास की नीतियां तीन जिलों तक सिमट गयी।
ऐसे में मेरा कहना है कि पहाड़ियो को तिल-तिल मारने की बजाए मार डालो। पहाड़ उजाड़ ही दिया है बाकी भी उजाड़ दो। बर्बाद कर दो। लैंड बैंक बनेगा तो वहां कारपोरेट हाउस के विला और फार्म हाउस बनाना। नेताओं और मंत्रियों की ऐशागाह बनाना ताकि अययाशी के लिए नेताओं को दिल्ली न जाना पड़े।