माँ न ब्वोल्यू छ, नि ज रै अशोक दिल्ली, क्या ल्यूण कू जाणि छै तू वख ….रामपुर तिराहा गोलीकांड के शहीद अशोक कैशिव को शत शत नमन
1 min read02/10/2023 8:08 am
दीपक बेंजवाल / राबिन सिंह मुसाफिर
ऊखीमठ / दस्तक पहाड न्यूज।
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माँ न ब्वोल्यू छ, नि ज रै अशोक दिल्ली, क्या ल्यूण कू जाणि छै तू वख…….महज 20 साल का अशोक कैशिव क्या लेने जा रहा था दिल्ली? कैसे महसूस हुआ होगा उसे जब कुछ लुच्ची गोलियों ने उसका सीना छलनी किया होगा? दर्द से तड़पते हुए गन्ने के खेतों में उसने मां को याद किया होगा, भाई-बहनों और दोस्तों को। खूब तड़पा होगा वो दम तोड़ने से पहले आखिर उस समय उसकी आंखों में क्या सपने रहे होंगे?
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उसकी मां तो जीते-जी मर गयी होगी। आखिर उम्र ही क्या थी उसकी ? महज 20 साल। वीर माधो सिंह भंडारी ने मलेथा की गूल के लिए दी थी अपने बेटे की शहादत। लेकिन अशोक कैशिव तो गुमनाम ही रह गया।
और असहनीय दर्द और आंसुओं के सैलाब में डूब गई उसकी मां। घाव से अब भी रक्त बह रहा है और बहता रहेगा जब तक कि इंसाफ नहीं मिल जाता। मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा नहीं मिल जाती।
ऊखीमठ ब्लॉक के डंगवाड़ी गांव निवासी अशोक कैशिव 20 वर्ष की अवस्था में शहीद हो गए थे। शहीद कैशिव उत्तराखंड राज्य में प्रथम पंक्ति के आंदोलनकारी थे। अशोक कैशिव दो अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर पुलिस की गोली से घायल हो गए थे। इसके बाद चंडीगढ़ पीजीआइ में एक महीने के उपचार के बाद दस नवम्बर 1994 को उन्होंने प्राण त्याग दिए।
उत्तराखंड के शहीद – ए- आजम (अशोक कैशिव ) को पढें लेख में
“”” हर शहीद के मां की पीड़ा “”””
दोस्तों आइए आज आपको मिलाते हैं उत्तराखंड के शहीद ए आजम भगत सिंह से, वैसे तो उत्तराखंड में हजारों भगत सिंह हैं पर जिसे मैंने बहुत करीब से देखा है, समझा है, पढा है,अपनी संवेदना से उसे महसूस किया है, अपनी आत्मा तक को मिलने और उसके दर्शन के लिए भेजा है । हां वही शहीद-ए-आजम जिसने अपनी छोटी सी उम्र में अपना जीवन उत्तराखंड के लिए समर्पण कर दिया और अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
बात 2 अक्टूबर 1994 रामपुर तिराहा गोलीकांड की है जोकि मानवता और आजाद भारत के इतिहास का काला दिन था जिसमें दिल्ली जा रहे आंदोलनकारियों को पुलिस ने बर्बरता के साथ मारा , लूटा और उत्तराखंड की बहन बेटियों और माताओं के साथ अभद्रता और बलात्कार किया और जो बच गए उन्हें गोलियों से भूना गया । इसी में एक नाम 23 साल का नौजवान था जो लगातार यह नारे लगा रहा था कि ” कोदा – झंगौरा खाएंगे उत्तराखंड बनाएंगे ” वह नौजवान था अशोक कैशिव जो अपने उस सीने में उत्तराखंड के स्वर्णिम भविष्य के लिए गोली खा लेते हैं जिसमें न जाने कितने सपने थे उत्तराखंड के लिए , अपने परिवार के लिए । 2 अक्टूबर को गोली लगने के बाद अशोक को रुड़की अस्पताल ले जाया गया फिर वहां से देहरादून अस्पताल और अंत में वहां से चंडीगढ़ अस्पताल जिसमें उन्होंने 10 नवंबर 1994 को हम सब से विदाई ली और सूरज , चांद सा हमारे बीच हमेशा के लिए यादों में रह गए ।. हम उनके संघर्ष और बलिदान के ऋण को कभी नहीं चुका पाएंगे।अशोक और भगत सिंह जैसे वीर कभी मरते नहीं हैं वो हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं ।
परंतु भगतसिंह और अशोक जैसे शहीदों को जन्म देने वाली मांओं को कितने लोग याद रख पाते हैं जो उन्हें जन्म देकर संस्कारित करते हैं और उन्हें इस योग्य बनाते हैं कि वो देश या समाज के काम आ सकें और बेटे के शहीद होने पर आजीवन उसके शोक में जीती है ।आज मैं ऐसी ही एक शहीद की मां से आपको मिलाना चाहता हूं जिससे मुलाकात होना किसी गौरवशाली सपने के सच होने जैसा था । वो हैं उत्तराखंड राज्य क्रांतिकारी अमर शहीद अशोक केशव की ( ) वर्षीय मां ।अशोक जी की मां से हुई एक एक मुलाकात के बारे में आप को बचाने चाहता हूँ की कैसे एक शहीद की मां की पीड़ा होती है। उस माँ के दर्द के बारे में जिसने 23 साल के नौजवान बेटे को खो दिया। मेरी मुलाकात उनसे पहली बार मेरी ग्राम सभा रामपुर में अशोक कैशिव विद्यालय के वार्षिकोत्सव कार्यक्रम में हुई । यह विद्यालय पूरे उत्तराखंड में एक मात्र स्कूल है उत्तराखंड के शहीद-ए -आजम अशोक केशव जी की याद में बना। स्कूल और ग्राम सभा ने इस कार्यक्रम में उनकी माताजी को बतौर मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया और उन्होंने सहज स्वीकार भी किया। मैं कार्यक्रम का संचालन कर रहा था। जब भी अशोक जी के बारे में या उनका नाम मेरे संचालन के दौरान आता तो मैं देख रहा था उनकी मां के आंखों से आंसू की धारा बह रही थी । वो बार – बार अपनी बूढ़ी आँखों को साफ करती, पर वो अभी किसी आंदोलनकारी की मां नहीं , वो सिर्फ एक माँ थी सिर्फ अशोक की मां ।उनकी नजर अपने बेटे अशोक की फोटो पर जा रही थी और वही टिक जाती। बूढ़ी आंखें गीली हो जाती। कार्यक्रम के बाद उस मां से मिलने का मन किया क्योंकि ये सब देख मेरी आत्मा हिल सी गई थी। मैं देख रहा था कि जब कार्यक्रम में नाटक, गीत , गाने चल रहे थे इतना शोर हो रहा था उस में भी उनकी मां की नजर सिर्फ अपने बेटे की फोटो पर टिकी थी कार्यक्रम के बाद मुझे उनसे मिलने का मौका मिला , उनसे लंबी भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। फिर उनसे बात करते-करते अशोक कैशिव जी का जिक्र आ गया वो आँसू से भरी आंखों से कहती है कि “बाबू ( बेटा) उसके नाम ( अशोक) पर पता नहीं कहां-कहां कितने कार्यक्रम में लोग ले जाते हैं और मुझे अपने बेटे पर बहुत गर्व है कि वह आज भी लोगों के बीच जिंदा है। पर बाबू ( बेटा) एक मां के लिए यह एक अभिशाप सा लगता है कि वह अपने कलेजे के टुकड़े के नाम पर मरणोपरांत कार्यक्रम में जाना हो। बाबू कलेजा ऐसा लगता है मानो फिर से कुरेदा जा रहा है। जब भी कार्यक्रम में उस का नाम सुनती हूँ तो मेरे सामने उसका बचपन का हंसता हुआ चेहरा आता है, और उसकी वह गोली लगने के बाद 1 महीने की पीड़ा जिस मैं भूल नहीं पाती हूं पर बाबू वह उस पीड़ा में भी मुझे कहता था कि मां मैं ठीक हो जाऊंगा और फिर से उत्तराखंड राज्य के लिए लडूंगा पर निरभागी छोरा (प्यार से अभागा लड़का ) वापस नहीं आया और मुझे बुढ़ापे तक अपनी यादों में अकेला छोड़ दिया। बाबू ! ऐसा किसी मां के साथ ना हो, किसी मां के लिए बेटा या अपना बच्चा खोना अपने प्राण खोना एक नासूर सा होता है जो हमेशा जब तक प्राण रहते हैं तब तक चुभता रहता है , बार-बार काटता रहता है, दुखता रहता है।” ये सब कहते उन सूखी आंखों से मानो सावन फूट रहा हो। अंत में वो कहती है “बेटा! जिसके लिए वह मुझे और हम सब को छोड़ कर गया मैं हमेशा भगवान से प्रार्थना करती हूं वह चीज या सब उत्तराखंड के लोग फले फूले सब खुश रहें मेरे जैसे कोई भी मां ना रोए , यह उत्तराखंड खूब आगे बढ़े , सबको नौकरी मिले , सब खुब उन्नति करें अशोक तो वापस नहीं आ सकता पर उसके सपने पूरे हो सकते हैं और उसके सपने पूरे करने हैं तुझे देख कर मुझे अपने अशोक की याद आ रही है इतनी ही उम्र थी उस की भी, जब घर अंतिम बार जा रहा था अगर पता होता मैं इसे नहीं देख पाऊँगी तो रोक देती उसे उस दिन।”. एक माँ की मार्मिक बातें सुनते मैं भी पूरा पिघलता गया अपने आंसू नहीं रोक पाया ।
धन्य हो अशोक तुम जब तक यह धरा , सूरज, चांद रहेगा तुम हमेशा याद रहोगे। धन्य हो मां तुम तुमने हमें ऐसा बेटा दिया ।एक वीर सपूत दिया।.
उस माँ को देख कर और उसकी बातें सुन कर लगा की हर एक शहीद की माँ की यही स्थिति होती होगी। लोग तो कुछ वक्त के लिए याद रखते है पर एक माँ जन्म- जन्म तक उसे याद करती है और सरकारें शहीद के बाद उस के परिवार को भूल जाती हैं। पर उस माँ के आँसू देख कर उन की बातों को याद कर सोच रहा हूँ क्या हम उस के बेटे के सपनों को साकार पर पाये एक प्रतिशत भी, जिस के लिए उस के बेटे ने अपने प्राण दे दिये थे।अगर आज की स्थिति देखूँ तो शायद ना उन के सपनों का एक प्रतिशत भी उत्तराखण्ड नहीं बना एक भी नही सिर्फ दलाल बैठे हैं सत्ता में, विकास के नाम पर, विकास नाम के बच्चे ही पैदा हुये हैं और कुछ नहीं , अस्पताल के नाम पर खंडहर बने भवन, स्कूल के नाम पर झाडियों जमी हैं बस पता नहीं उत्तराखण्ड कभी उन शहीदों का स्वर्णिम उत्तराखण्ड बनेगा या नहीं? ये उस मां के सवाल हैं ।
शायद वह मेरी पहली और अंतिम मुलाकात थी स्वर्गीय श्री अशोक की माता जी से 5 अप्रैल 2020 को वह भी अपने बेटे के पास चले गई, फिर से 26 साल बाद मुलाकात होगी वही परलोक में एक मां और बेटे की |
उत्तराखंड के सभी शहीद आन्दोलनकारियों को श्रृध्दांजलि और शत् शत् नमन
– रोबिन सिंह मुसाफ़िर
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जो करता है एक लोकतंत्र का निर्माण।
यह है वह वस्तु जो लोकतंत्र को जीवन देती नवीन
माँ न ब्वोल्यू छ, नि ज रै अशोक दिल्ली, क्या ल्यूण कू जाणि छै तू वख ….रामपुर तिराहा गोलीकांड के शहीद अशोक कैशिव को शत शत नमन
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