माधव सिंह नेगी (प्र०अ०)  / रा० प्रा० वि० जैली पाण्डव नृत्य से हर वो उत्तराखण्डी परिचित है, जिसने अपना जीवन उत्तराखण्ड की सुन्दर वादियों, अनेकों रीति-रिवाजों, सुन्दर परम्पराओं के बीच बिताया हो।

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उत्तराखण्ड में इस दिव्य और भव्य नृत्य के माध्यम से पाण्डव परिवार की पूजा अर्चना करने की लोक परम्परा वर्षों से चली आ रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि पाण्डव गण अपने अवतरण काल में यहाँ लाक्षागृह से बचने के बाद, वनवास काल में, शिव जी की खोज में और अन्त में स्वर्गारोहण के समय आये थे। महाभारत के युद्ध के बाद पाण्डवों ने अपने विध्वंसकारी अस्त्र और शस्त्रों को केदारघाटी के लोगों को ही सौंप दिया था और उसके बाद वे स्वर्गारोहण के लिए निकल पड़े थे, इसलिए अभी भी यहाँ के अनेक गाँवों में उनके अस्त्र- शस्त्रों की पूजा होती है और पाण्डव लीला का आयोजन होता है। पाण्डव नृत्य का आयोजन गढ़वाल (उत्तराखण्ड) के गाँवों में हरिबोधनी एकादशी से प्रारम्भ हो जाता है और लगभग जनवरी प्रथम सप्ताह तक जारी रहता है। इसमें ग्राम देवी-देवता(क्षेत्रपाल, काली, चण्डी, जाख, घण्डियाळ, हनुमान आदि) और पाण्डव अपने-अपने पश्वाओं पर अवतरित होकर पारम्परिक वाद्य यन्त्रों(ढोल-दमाऊँ) की थाप और धुनों पर नृत्य करते हैं। मुख्यतः जिन स्थानों पर पाण्डव अस्त्र छोड़ गए थे वहांँ पाण्डव नृत्य का आयोजन होता है। पाण्डव नृत्य के साथ-साथ पाण्डव लीला का भी आयोजन किया जाता है। इसमें चक्रव्यूह, कमल व्यूह, गरुड़ व्यूह, मकर व्यूह मुख्य आकर्षण के केन्द्र होते हैं। गढ़वाल में पाण्डव नृत्य मुख्यतः रुद्रप्रयाग-चमोली जिलों वाले केदारनाथ- बद्रीनाथ धामों के निकटवर्ती गाँवों में होता है। प्राचीन काल में हमारे धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन कर समन्वय स्थापित करना था। इस प्रकार के कार्यक्रमों के आयोजनों से ध्यो-धियाणियों व प्रवासियों को अपनी मातृभूमि से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त होता है।  रवि की फसल की बुवाई के बाद ग्रामीण इस खाली समय में पाण्डव नृत्य के आयोजन के लिए बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाते हैं।इसके बहुत सारे धार्मिक और वैज्ञानिक कारण भी हैं पाण्डव नृत्य कराने के पीछे ग्रामीणों द्वारा विभिन्न तर्क दिए जाते हैं, जिनमें मुख्य रूप से गांँव में खुशहाली, अच्छी फसल और माना जाता है कि गाय में होने वाला खुरपा रोग पाण्डव नृत्य कराने के बाद ठीक हो जाता है। [caption id="attachment_35110" align="aligncenter" width="1080"] पाण्डव पश्वा के साथ लेखक माधव सिंह नेगी[/caption] ग्राम जैली में पाण्डव नृत्य का हुआ सफल समापन  ग्राम सभा जैली के ग्रामीणों द्वारा दिनाँक 2 दिसंबर से 13 दिसंबर तक पाण्डव नृत्य का आयोजन बड़े धूमधाम से किया गया।  आयोजन मण्डल के सदस्य भगवान सिंह राणा व श्री देवी प्रसाद बहुगुणा (उप प्रधान) जी का कहना है कि इस भव्य और वृहद् आयोजन के दौरान गढ़वाल में भौगोलिक दृष्टि से दूर-दूर रहने वाली पहाड़ की बहू- बेटियाँ अपने मायके आती हैं तथा दिल्ली, मुम्बई जैसे आदि बड़े शहरों में रह रहे प्रवासियों को अपने गाँव से जुड़ने का मौका मिलता है। जिससे उनको वहाँ के लोगों को अपना सुख- दुःख जानने का अवसर मिल जाता है। वयोवृद्ध आदमी श्री जितार सिंह पंवार, श्री ललिता प्रसाद जोशी तथा माँ इन्द्रासणी के पुजारी श्री बुद्धिराम रतूड़ी जी कहना है कि पाण्डव नृत्य के आयोजन में सर्वप्रथम गाँव वालों द्वारा पंचायत बुलाकर आयोजन की रूपरेखा तैयार की जाती है। सभी गांँव वाले तय की गई तिथि के दिन पाण्डव चौक में एकत्र होते हैं। पाण्डव चौक(चौंरा) उस स्थान को कहा जाता है, जहांँ पर पाण्डव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल एवं दमाऊँ जो कि उत्तराखण्ड के पारम्परिक वाद्य यन्त्र हैं, जिनमें अलौकिक शक्तियाँ निहित होती हैं। इन दो वाद्य यन्त्रों द्वारा पाण्डव नृत्य में जो पाण्डव बनते हैं, उनको विशेष थाप द्वारा अवतरित किया जाता है और उनको पाण्डव पश्वा कहा जाता है। वे गांँव वालों द्वारा तय नहीं किए जाते हैं, प्रत्युत विशेष थाप पर विशेष पाण्डव अवतरित होता है, अर्थात् युधिष्ठिर पश्वा के अवतरित होने की एक विशेष थाप है, उसी प्रकार भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पात्रों की अपनी-अपनी विशेष थाप होती है। पाण्डव पश्वा प्रायः उन्हीं लोगों पर आते हैं, जिनके परिवार में यह पहले भी अवतरित होते आये हों। वादक लोग ढोल-दमाऊंँ की विभिन्न तालों पर महाभारत के आवश्यक प्रसंगों का गायन भी करते हैं। श्री भरोसी प्रसाद जोशी, श्री गुणानन्द चमोली जी व श्री बीरेन्द्र सिंह पंवार जी कहते हैं कि  पाण्डव नृत्य देवभूमि उत्तराखण्ड का पारम्परिक लोकनृत्य है। यह सदियों से चली आ रही उत्तराखण्ड की अनुपम सांस्कृतिक धरोहर है। अपने बनवास काल में पाण्डवों को भूख और प्यास से व्याकुल होना पड़ा था। भीम आदि पाण्डव देव अपने पशवाओं पर अवतरित होकर जंगल की ओर जाते हैं, जहाँ से वे कण्डाली(बिच्छू घास), सुराई, कन्द मूल फल लाकर नृत्य करते-करते खाते हैं।इससे यह प्रमाणित होता है कि निश्चित ही पाण्डवों ने बहुत ही बुरे दिन व्यतीत किये हैं। इस सुअवसर पर सभी ग्रामीण उपस्थित रहते हैं, जिनमें सेइन्द्र सिंह, हरिकृष्ण भट्ट, अमर सिंह पंवार, जनार्द्धन, हरिनन्द बहुगुणा, गोपाल पंवार, गुणानन्द बहुगुणा, चक्रधर भट्ट, सुदीप भट्ट, अर्जुन सिंह, नरोत्तम जोशी, गोपाल सिंह पंवार, भरत सिंह, दौलत सिंह, श्याम सिंह, बीरबल सिंह, गुणानन्द चमोली, मुरलीधर चमोली, शिवराज सिंह, शम्भू प्रसाद बहुगुणा, मनमोहन बहुगुणा, देवी प्रसाद बहुगुणा, जगत सिंह, मंगल सिंह राणा, पुरुषोत्तम भट्ट, परशुराम भट्ट, पवन भट्ट, राजेन्द्र भट्ट, रामचन्द्र राणा, संजीव सिंह, भवानी प्रसाद, गैणा सिंह, किशोर नैनवाल, सोहन सिंह, सुन्दर सिंह, महेन्द्र सिंह, गंगा सिंह, पंचम सिंह, विपिन, संजय, सुबोध चमोली, राजेश चमोली, हरिनन्द भट्ट, मोर सिंह, नरेन्द्र सिंह, सुभाष सिंह, बीरेन्द्र सिंह जगवाण, संजीव सिंह, केदार सिंह, मंगल सिंह, राजेन्द्र सिंह, जमन सिंह, गौरव सिंह, बीरबल सिंह, विवेक सिंह, सत्येसिंह, हरिकृष्ण, राकेश भट्ट, श्रीकृष्ण, हरिराम बहुगुणा, दिनेश राणा, सुनील राणा, मालू, हर्ष रतूड़ी, सोहन सिंह, आदि समस्त महिलाओं के साथ उपस्थित रहकर अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। मुख्य आकर्षण का केन्द्र रहा  योगेन्द्र श्रीकृष्ण जी व पाण्डव देवताओं ने पैंय्या पाती देकर ग्रामीणों को अपना आशीर्वाद दिया। समापन दिवस से पहले सिरते की रात्रि में धर्म सिंह राणा व माधव सिंह नेगी ने पण्डवाणी तर्ज में महाभारत की कथा गाकर सभी भक्तजनों को अपनी ओर आकर्षित किया। इस प्रकार, पाण्डु श्राद्ध, वाण छाबरी, अर्घ्य अर्पण व अंत में पैंय्या पाती वितरण के साथ इस दिव्य व भव्य कार्यक्रम का सफल समापन हो गया।