दीपक बेंजवाल, दस्तक पहाड़ न्यूज ब्यूरो।। उत्तराखंड में एक ओर प्राकृतिक आपदा कहर बनकर टूटी हुई है, पहाड़ों में मलबा, मातम और पीड़ा पसरी है, लोग अपने जनप्रतिनिधियों की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं—तो वहीं दूसरी ओर हाल ही में निर्वाचित प्रतिनिधि, जिन पर जनता ने भरोसा जताया, गायब हैं। कुछ नेपाल में मस्ती कर रहे हैं, तो कुछ देहरादून के महंगे होटलों और रिसॉर्टों में ‘आराम’ फर्मा रहे हैं। सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे एक वीडियो में उत्तराखंड के एक जनपद के निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधि नेपाल में

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बारातियों की तरह नाचते नजर आ रहे हैं। ऐसे समय में जब राज्य का एक बड़ा हिस्सा आपदा से कराह रहा है, ये दृश्य शर्मसार करने वाले हैं। पत्रकार मनोहर बिष्ट ने एक चौंकाने वाला वीडियो जारी किया है। उनके मुताबिक, थलीसैण के कई नवनिर्वाचित क्षेत्र पंचायत सदस्य, उनके परिजन और एक पूर्व ब्लॉक प्रमुख नेपाल के काठमांडू के एक होटल में जश्न मनाते दिख रहे हैं। कोई तो इनको पहचानता होगा.. क्या ये सच है, थलीसैंण ब्लाक का बड़ा हिस्सा इन दिनों आपदा की मार झेल रहा है। गांव-गांव में तबाही के निशान हैं। चार मजदूर घायल, पांच लोग मलबे में बह गए, और अनगिनत परिवार संकट में हैं। ऐसे समय में उम्मीद थी कि नवनिर्वाचित क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत सदस्य पीड़ितों के बीच खड़े होकर राहत और मदद का काम करेंगे। जब गांव में आपदा के दर्द पसरा है, तब जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों का यह बर्ताव सवाल खड़े करता है—सूत्रों के मुताबिक, यह सारा घटनाक्रम केवल ‘राजनीतिक समीकरण’ और पंचायत अध्यक्ष या प्रमुख पद की कुर्सी के लिए किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों के बीच जोर आजमाइश चल रही है। दोनों ही पार्टियां अपनी-अपनी शक्ति और संसाधनों का प्रयोग कर जनप्रतिनिधियों को ‘सेफ हाउस’ में रख रही हैं। कोई होटल में बंद है, कोई राज्य से बाहर और कुछ तो पड़ोसी देश नेपाल तक भी पहुंचा दिए गए हैं। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे शर्मनाक बात यह है कि निर्वाचन आयोग पूरी तरह से मौन बना हुआ है। न कोई संज्ञान, न कोई कार्रवाई—क्या ये लोकतंत्र के मूल्यों के साथ मजाक नहीं है? जनता में इस पूरे तमाशे को लेकर आक्रोश भी है और चटखारे भी। हर चुनाव में धनबल, मांस-मदिरा और साजिशें आम हो चली हैं, लेकिन अब पंचायत अध्यक्ष और प्रमुख जैसे पदों के लिए होने वाली यह "राजनीतिक किडनैपिंग" लोकतंत्र का नया निचला स्तर दर्शा रही है। यह सवाल अब गंभीर है—जब जनता को संकट के समय उनके प्रतिनिधि की जरूरत है, तब वो कहाँ हैं? और अगर वो नहीं हैं, तो क्या वो जनता के लायक हैं? जिम्मेदार कौन? निर्वाचन आयोग, प्रशासन या राजनीतिक दल ? यह तय करना अब जनता को ही है। जब अगली बार मतदान करें, तो ये जरूर सोचें कि आपने जनसेवक चुना है या सत्ता का सौदागर?