कविवर चंद्रकुंवर बर्त्वाल के जन्म दिवस पर विशेष- ” पंवालिया के संरक्षण की फुर्सत किसे है ?
1 min read20/08/2025 8:45 am
– अनसूया प्रसाद मलासी
कविवर चंद्रकुंवर बर्त्वाल की सुंदर काव्य रचना समूचे पहाड़ का गौरव है। हिमालय की घाटियों और शिखर के सौंदर्य को प्रत्येक अक्श से आँकने वाले प्रेम, करुणा और प्रकृति के गायक बर्त्वाल मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में कब हिंदी साहित्य में आए और कब चले गये, इसका किसी को पता भी नहीं चला। अपने जीवन के सुखद व दु:खद अल्प कवि जीवन में इन्होंने 700 के करीब कविताएं लिखी हैं और शुद्ध मुक्तक के आनंद की दृष्टि से कितनी ही कविताएं इतनी सुंदर है कि वह समूचे हिंदी संसार की धरोहर कहलाने का गौरव रखती हैं।
रुद्रप्रयाग जनपद के तल्ला नागपुर पट्टी के मालकोटी गांव में श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर में 20 अगस्त 1919 को चंद्रकुंवर बर्त्वाल का जन्म हुआ था। हिमालय के आँचल की छाया में पला-बढ़ा कवि अपने परिवेश के प्रति सर्वाधिक जागरूक था। यही कारण है कि यहां के प्राकृतिक सौंदर्य से लेकर गांव के जीवन, अंधविश्वास, पाखंड और धार-गाड तक की अभिव्यक्ति उनके काव्य में समान रूप से हुई है। यदि इस स्थिति से कहा जाए कि चंद्र कुंवर बर्त्वाल पहाड़ के प्रतिनिधि कवि हैं तो अनुचित न होगा।
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चंद्रकुंवर की कविताओं में मुखयत: पर्वतीय वातावरण के अनुभव सौंदर्य की छटा बिखरी हुई है-
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नीला देवदारू का वन है।
छाया देख अकेली तल पर,
हिले तरुवर करते मर्मर।
हिमगिरी में निनाद फैला है।
खुरच रही हिरणियां बदन है,
नीला देवदारू का वन है।।
स्व. बर्त्वाल ने भले ही अधिक जीवन न जिया हो, किंतु लंबी असाध्याय बीमारी और अनेक कठिनाइयों के बावजूद जीवन के अंतिम क्षणों तक उत्तराखंड के इस वरद पुत्र ने साहित्य की निष्ठापूर्वक साधना की। उनकी प्रकाशित रचनाएं हैं- पयस्विनी (350 कविताओं का संग्रह), मेघनंदिनी (गीति काव्य), जीतू (100 कविताओं का संग्रह), कंकड़ पत्थर (70 कविताओं का संग्रह), गीत माधवी (160 लघु गीतों का संग्रह) प्राणयिनी (तीन एकांकी), विराट ज्योति (34 कविताओं का संग्रह), नागिनी (गद्य कृति, कहानी और निबंधों का संग्रह)…
चंद्रकुंवर बर्त्वाल के मित्र पं. शंभू प्रसाद बहुगुणा इनके अधिकांश साहित्य को संकलित कर उसे प्रकाश में लाए हैं। उन्होंने निराला तथा को बर्त्वाल को आधुनिक हिंदी युग के कवियों में ‘सूर्य’ और ‘चंद्र’ की भांति चमकने वाली प्रतिभा बताया है। कवि की साहित्य प्रतिभा के बारे में इसी से अनुमान लगाया जा सकता है मात्र 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने महत्वपूर्ण गीति-काव्य ‘नंदिनी’ की रचना की थी। नंदिनी की कविताओं में कवि के हृदय की पीड़ा, प्रेम एवं विषाद के दर्शन मिलते हैं-
मेघों में ज्यों इंद्रधनुष की छवि मनमोहन,
इस विषादमय जीवन में ऐसा ही यौवन।
शीत शिशिर में सूरज की सुकुमार तपन सी,
सुख देती हैं किरणें इस मादक यौवन की।
मेघों की लाली सा यह क्षण भर ही का धन,
इंद्रधनुष की छाया सा है यह नवयौवन।।
कभी चंद्रकुंवर बर्त्वाल दूर दृष्टि के धनी थे। उनकी कविता की यह संवेदना उन्हें आज से जोड़ती और प्रासंगिकता को रेखांकित करती है। परिवर्तनीय युग में असमानता आज भी बनी हुई है, यह चिंता उन्हें तब भी थी। प्रगतिशील कवि की यही कामना रही–
रहता हाथ जोड़ जो, उसे गर्व दो तुम,
मनुष्य होकर रहने का, उसे गर्व दो तुम।
सिर ऊँचा कर चलने का, ईश्वर की दुनिया में,
भेद न होवे कोई, रहें स्वर्ग में सभी।
नरक दु:ख न सहे कोई!
केवल 28 वर्ष 24 दिन की अवधि लेकर एक दैदीप्यमान नक्षत्र का तरुण तपस्वी कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने मातृभूमि की स्वतंत्रता की तीव्र अभिलाषा सदैव हृदय में रखते हुए, देश के आजाद होने तक अपनी असाध्य बीमारी के साथ जूझते हुए अपने प्राणों की रक्षा के साथ ही साहित्य की साधना की और यह गीत गाया–
अभी मरण की छाँह न पड़ने दो जीवन में,
अभी प्रलय की बाढ़ न घुसने दो तन-मन में।
कौन जानता, रही अभी भी हो कुछ आशा,
अभी न इतने आँसू भरो, दु:खी चितवन में।।
इलाहाबाद में अध्ययन और अध्यापन की अवधि में वे क्षय रोग से पीड़ित हो गये और अपने नये गांव बष्टी के निकट पंवालिया गांव लौट आये। कुछ समय उन्होंने अगस्त्यमुनी में हाई स्कूल में भी अध्यापन कार्य किया। मगर स्वास्थ्य की गंभीर बीमारी के बाद वह पंवालिया लौट आए, जहां 14 सितंबर 1947 को उनके जीवन की इहलीला समाप्त हो गई। उनकी मृत्यु के बाद पंवालिया गांव उपेक्षित हो गया। कतिपय विद्वानों का मत है कि पंवालिया में ही कवि की यादगार पैतृक संपत्ति (जो अब खंडहर हो चुकी है), का संरक्षण कर उनका साहित्यिक स्मारक बनाया जाना चाहिए।कविवर चंद्रकुंवर बर्त्वाल के काव्य धन में तल्लीन रहने वाले स्व. हरीश गैरोला (ग्राम- कंडारा, चंद्रापुरी) जब संगोष्ठियों में कवि की काफल पाक्कू, नंदिनी, रैमासी, जीतू जैसी कविताओं और गीतों को लयबद्ध होकर पढ़ते थे, तो भाव-विह्वल हो जाते थे। यह साहित्यिक क्षेत्र का दुर्भाग्य कहें, प्रकृति का एक और युवा नक्षत्र कवि हरीश गैरोला भी असमय काल का ग्रास बन बैठा। इस तरह एक सितारा, जो चंद्र कुंवर के काव्य को जन-जन से जोड़ने के लिए कटिबद्ध था, वह सितारा भी सदा के लिए अस्त हो गया।चंद्रकुंवर बर्त्वाल स्मृति शोध संस्थान और राजनीतिक लोगों ने प्रारंभिक काल में कवि की संपूर्ण रचनाओं को संकलित कर उनके पुनर्प्रकाशन और उनके जन्म स्थान मालकोटी और रचना भूमि, जहां उन्होंने अपनी अथाह साहित्य की रचना की और देह त्यागी, कंचन गंगा और मंदाकिनी नदी के संगम पर स्थित पंवालिया को रचनाकारों का तीर्थ बनाने की घोषणा की थी। पहाड़ के रचनाकार समय-समय पर कहते रहते हैं कि अभी भी समय है, पंवालिया में स्थित कवि चंद्र कुंवर के खंडहर हो चुके मकान को सरकार स्मारक घोषित करे। अन्यथा कवि की आत्मा ‘काफल पाक्कू’ पक्षी के गान की भांति भटकती प्रतीत होती रहेगी।अपनी अथाह साहित्य की रचना की और देह त्यागी, कंचन गंगा और मंदाकिनी नदी के संगम पर स्थित पंवालिया को रचनाकारों का तीर्थ बनाने की घोषणा की थी। पहाड़ के रचनाकार समय-समय पर कहते रहते हैं कि अभी भी समय है, पंवालिया में स्थित कवि चंद्र कुंवर के खंडहर हो चुके मकान को सरकार स्मारक घोषित करे। अन्यथा कवि की आत्मा ‘काफल पाक्कू’ पक्षी के गान की भांति भटकती प्रतीत होती रहेगी।
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