दस्तक पहाड न्यूज अगस्त्यमुनि। उत्तराखंड राज्य की 25वीं वर्षगांठ रजत जयंती पर आयोजित समारोह में वह विडंबना सामने आई जिसने हर उत्तराखंडी का सिर शर्म से झुका दिया। जिस राज्य को पाने के लिए 42 आंदोलनकारियों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, उसी राज्य के रजत दिवस समारोह में रुद्रप्रयाग जिला प्रशासन अपने ही जनपद के शहीदों का नाम तक ठीक से याद नहीं कर पाया।

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अगस्त्यमुनि में आयोजित राज्य स्थापना रजत दिवस समारोह में रुद्रप्रयाग जनपद के तीन अमर शहीदों अशोक कैशिव (रामपुर तिराहा गोलीकांड ), यशोधर बेंजवाल (श्रीयंत्र टापू कांड ) और रायसिंह बंगारी रावत (मसूरी गोलीकांड) की फोटो लगाई गई थीं, लेकिन प्रशासन ने अमर शहीद रायसिंह बंगारी रावत का नाम गलत लिखकर उन्हें भगवान सिंह बंगारी बता दिया। यह केवल एक गलती नहीं बल्कि शहीदों की शहादत के प्रति असंवेदनशीलता का प्रतीक बन गया। क्या जिला प्रशासन तीन शहीदों के नाम भी ढंग से याद नहीं कर पाया। और इससे भी बड़ी विडंबना यह रही कि समारोह के मंच पर आयोजक जिला प्रशासन स्वंय बैठा था लेकिन शहीद परिवारों के परिजनों को स्थान तक नहीं दिया गया। उनके परिजन मंच से नीचे बैठे रहे, जबकि मंच पर अधिकारी, नेता विराजमान थे। इस उपेक्षा को देखकर कई लोगों ने इसे “सम्मान नहीं, अपमान समारोह” करार दिया। यह अहम सवाल है जिन्होंने इस राज्य को बनाने के लिए अपनी शहादत दी उनके सम्मान में मंच पर अदद कुर्सियां तक नहीं लग पाती। क्या एक रस्म अदायगी के तौर पर शाॅल ओढ़ाना ही उनके प्रति कृतज्ञता है। राज्य आंदोलन के दौरान रुद्रप्रयाग जनपद से तीन वीरों ने अपनी जान दी थी, लेकिन आज 25 वर्ष बाद भी उनके परिजन केवल किताबों और यादों में सिमट गए हैं। आज तक न तो शहीद परिवारों को कोई प्रमाण पत्र दिया गया और न ही कोई विशिष्ट पहचान। 25 साल के इस राज्य में सरकारें इतनी दीनहीन बन गई की 42 शहीद स्मारक तो दूर प्रमाण के रुप में 42 ताम्रपत्र तक नहीं बनवा पाई..धन्य है। शहीद आंदोलनकारी यशोधर बेंजवाल की धर्मपत्नी ने जिलाधिकारी और विधायक के सामने अपनी बात रखी, वो कहती है शहीदों के सम्मान में कई बार स्मारक बनाने की बात कह चुकी है, नयी पीढ़ी को भी अपने राज्य के अमर शहीदों की शहादत और संघर्ष का पता चलना चाहिए। इन बीते सालों में राज्य सरकार शहादत का एक सम्मान पत्र या कहे प्रमाण पत्र भी नहीं दे पाई। राज्य आन्दोलनकारी हयात सिंह राणा कहते है कि 25 साल में जब राज्य की दशा दिशा नहीं बदली, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुवीधाओं के लिए लोग लड़ रहे है तो फिर कैसा सम्मान। उत्तराखण्ड राजनीति का नहीं कूटनीति का अड्डा बन गया है। आज तक राज्य आन्दोलनकारियों का चिन्हीकरण नहीं हो पया। आन्दोलनकारी सूरज नेगी कहते है सरकार हजारों-करोड़ों रुपए छवि चमकाने के लिए खर्च कर रही है धरातल पर हालात खराब है। क्या इस सब के लिए हम सम्मान लें। चिन्हित आन्दोलनकारी मानवीरेंद्र बर्त्वाल कहते है कि 25 साल बाद स्थाई राजधानी, मूल निवास और ठोस भू कानून नहीं बना, सरकार आन्दोलनकारियों की भावनाऐ साकार नहीं कर पाई। वही एक और राज्य आन्दोलनकारी कहते है कि सरकार को 25 साल बाद हमारी याद आई। हर साल राज्य स्थापना दिवस मनाया जाता है तो फिर हर साल हमें क्यों नहीं बुलाया जाता। राज्य आंदोलन के दौरान संघर्षों के साक्षी रहे वरिष्ठ पत्रकार अनसूया प्रसाद मलासी कहते है राज्य चिन्हित आंदोलनकारियों को दूर-दराज क्षेत्रों से बुलाया गया था, मगर उनको सिर्फ शाॅल और फूल माला दी गई। शाहिद आंदोलनकारियों के आश्रितों को मंच पर स्थान दिया जाना चाहिए था। उनका योगदान क्या था? यह किसी को पता नहीं चला। बताने की जरूरत भी नहीं समझी गई। बस रस्म-अदायगी की गई। इन आंदोलनकारियों को 'रजत जयंती वर्ष' में एक सम्मान-पत्र दिया जाना चाहिए था, ताकि उनके घर में यादगार के तौर पर रहता.. उनके परिवार को पता चलता कि हाँ! इन्होंने राज्य आंदोलन के लिए कुर्बानी दी थी। लोगों का कहना है कि अगर रजत जयंती जैसे ऐतिहासिक अवसर पर भी राज्य के सपूतों को न्याय और सम्मान नहीं मिला, तो यह राज्य निर्माण के मूल उद्देश्य के साथ धोखा है। आंदोलनकारियों और स्थानीय लोगों ने सवाल उठाया “क्या राज्य आंदोलन के दौरान दी गई शहादतें सिर्फ औपचारिकताओं में सिमटकर रह जाएंगी? क्या सरकार और प्रशासन के लिए शहीदों का सम्मान भी सिर्फ कार्यक्रमों की खानापूर्ति बन गया है?” लोगों ने यह भी नाराज़गी जताई कि जिला प्रशासन ने समारोह 8 नवंबर को ही संपन्न कर दिया, जबकि राज्य स्थापना दिवस 9 नवंबर को होता है। इसका कारण देहरादून में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में आयोजित राज्य स्तरीय समारोह बताया गया।आंदोलनकारियों का कहना है कि यदि सरकार प्रधानमंत्री के हाथों राज्य के शहीदों का सम्मान करवाना चाहती तो यह गौरव की बात होती, लेकिन ऐसा न कर इस समारोह को जल्दबाजी में निपटा देना एक तरह से शहीदों की उपेक्षा ही है। 25 वर्ष पूरे होने के बाद भी न शहीदों के परिवारों को न्याय मिला, न राज्य आंदोलनकारियों को पहचान। अब सवाल यह है कि क्या आने वाले वर्षों में भी उत्तराखंड सरकार इस इतिहास को केवल औपचारिकता बनाकर रख देगी, या वाकई उन लोगों को सम्मान देगी जिनके बलिदान पर यह राज्य खड़ा है?