दस्तक पहाड न्यूज रुद्रप्रयाग।। दशज्यूला क्षेत्र के बैंजी–काण्डई ग्रामसभा में आजकल चल रहे पांडव नृत्य के दौरान एक अद्भुत और अविस्मरणीय दृश्य देखने को मिला, जिसने पूरे क्षेत्र में उत्साह और श्रद्धा का वातावरण बना दिया। आयोजन के बीचोंबीच केवल 7 वर्ष का एक बालक, जो कुछ ही क्षण पहले अपने साथियों के साथ खेलकूद में व्यस्त था, अचानक पांडव पश्वाओं के मध्य पहुँच गया और मानो किसी दिव्य शक्ति के प्रभाव में भीमसेन की मुद्रा में नृत्य करने लगा। उसकी चाल, भाव–भंगिमा, थाप पर पकड़ और जोश देखते ही

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बनता था। ग्रामीणों ने इसे पांडव देवताओं की विशेष कृपा माना। बुजुर्गों के अनुसार इतनी कम उम्र में देव-अवतरण का यह दृश्य अत्यंत विरल है और यह तभी संभव हो पाता है जब समुदाय में देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति हो। आर्यन (7 वर्ष) ने कहा कि “मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आया। मैं तो बस अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था। अचानक ढोल-दमाऊं की आवाज़ सुनकर मन हुआ कि आयोजन की तरफ चलूँ। जैसे ही मैं वहाँ पहुँचा, मुझे लगा कि मेरे अंदर कोई बहुत बड़ी ताकत आ गई है। शरीर अपने-आप नाचने लगा। मुझे याद भी नहीं कि मैं कैसे नाच रहा था, बस इतना महसूस हो रहा था कि कोई शक्ति मुझे थामे हुए है। मैंने गाँव वालों के चेहरे देखे, सब खुश थे। सब बोल रहे थे कि मुझ पर भीमसेन अवतरित हुए हैं। यह सुनकर मुझे डर भी लगा और खुशी भी। मैं बस यही कह सकता हूँ कि जो भी हुआ, बहुत अलग था—जैसे मैं नहीं, कोई और मेरे शरीर से नृत्य कर रहा हो।” इस अवतरण के प्रसंग के साथ ही बैंजी–काण्डई ही नहीं, बल्कि केदारघाटी और पड़ोसी जनपदों के अनेक गांवों में इन दिनों पांडव नृत्य और पांडव लीला की परंपरा पूरे उत्साह के साथ चल रही है। पण्डवांडी की पवित्र थाप और पारंपरिक नौबत की ध्वनि के बीच पांडव देवता विभिन्न पश्वाओं पर अवतरित होकर ग्रामीणों को सुख, समृद्धि और सुरक्षा का आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं। इन आयोजनों से गांवों में ऐसी रौनक लौट आई है कि माहौल किसी बड़े पर्व से कम नहीं प्रतीत होता। दूर-दराज में रह रहे प्रवासी बड़ी संख्या में अपने गांव वापस आए हैं और ब्याही गई धियाड़ियाँ भी मायके लौटकर इस सांस्कृतिक आयोजन का हिस्सा बन रही हैं। गांव की गलियों में चहल-पहल, घरों में उल्लास और चौकों में लोकधुनों की गूंज पूरे वातावरण को जीवंत बना रही है। स्थानीय परंपराओं के अनुसार महाभारत युद्ध के उपरांत जब पांडव बदरी–केदार यात्रा पर निकले थे, तो उनका इन गांवों की घाटियों और मार्गों से विशेष संबंध रहा। माना जाता है कि उन्होंने इन क्षेत्रों में विश्राम किया, तपस्या की और आगे बढ़े। इसी आध्यात्मिक और ऐतिहासिक जुड़ाव के कारण ग्रामीण पांडवों को अपने पितृ-देव स्वरूप में पूजते हैं और निश्चित समयांतराल पर पांडव नृत्य का आयोजन करते आए हैं। यह आयोजन न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक एकता, सांस्कृतिक चेतना और सामुदायिक परंपरा को भी जोड़ने का सुंदर अवसर है। पांडव नृत्य में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की सक्रिय भागीदारी इसे विशेष बनाती है। युवा पीढ़ी इस विरासत को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, जिससे यह परंपरा आज भी उतनी ही जीवंत है जितनी सदियों पहले थी। पण्डवांडी की वाणी, वाद्यों की थाप और चक्रव्यूह, मोरु-डाली, मालाफुलारी जैसी प्रस्तुति–शृंखलाओं ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया है। देव-अवतरित पश्वाओं की भाव-समाधि और ग्रामीणों की श्रद्धा का मेल एक ऐसा वातावरण निर्मित करता है जो गढ़वाल की सांस्कृतिक आत्मा को जीवंत रूप में प्रस्तुत करता है। यह आयोजन केवल देव-अवतरण का उत्सव नहीं, बल्कि गांवों की एकता, जीवन्तता और सांस्कृतिक गौरव का भी प्रतीक बन चुका है।