✍️ हेमन्त चौकियाल / अगस्त्यमुनि
आज विज्ञान और तकनीकि की मदद से स्वच्छता और स्वास्थ्य के क्षेत्र में नित नए आयाम जुड़ रहे हैं। पिछले एक दशक में ही स्वास्थ्य सुविधाओं में आशातीत उन्नति हुई है। भले ही पहाड़ आज भी उस सुविधाओं की बाट जोह रहे हों, लेकिन महानगरों में लगभग हर प्रकार की स्वास्थ्य सुविधाएं सुलभ हैं। पिछले एक दशक में सरकारों का ध्यान भी स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतरी के लिए अच्छे बजट की व्यवस्था करने की ओर बढ़ा है, लेकिन जच्चे-बच्चे की सुरक्षा के मामले में आज भी पहाड़ की स्वास्थ्य सुविधाएं भगवान के ही भरोसे हैं। ऐसे में सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि आज से छः-सात दशक पहले स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल क्या और कैसा रहा होगा? आज भी कठिन परिस्थितियों में जीवन बचाने वाले शख्स (डॉक्टर) को भगवान का दर्जा दिया जाता है, लेकिन छ:दशक पहले साधन विहीन परिस्थितियों में भी कोई महिला एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों प्रसव सुरक्षित करवाते हुए, जच्चा और बच्चे की जान बचाने में सफल रही हो तो वह बिल्कुल भी भगवान से कम नहीं कही जा सकती। ऐसी ही मानव के रूप में धरती पर प्रसूताओं के लिए किसी देवदूत से कम नहीं रहीं हैं ये दाइयाँ। उत्तराखंड प्रदेश के पहाड़ी जिले रूद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि विकास खण्ड के ग्राम पंचायत धारकोट की श्रीमती जसुमति देवी भी एक ऐसी ही शख्सियत हैं, जिन्हे लोग उनके वास्तविक नाम से कम और लंगास्या दाई (प्रसव कराने वाली डाक्टर) के नाम से जादा पहचाना जाता है। उनका यह नाम कब और कैसे पड़ा? पर श्रीमती जसुमति देवी ने बताया कि आज से छःदशक पहले जब मैं विवाहिता बनकर ससुराल आई तो मेरे सब मुझे मेरे वास्तविक नाम से ही बुलाते थे। लेकिन जब 20 वर्ष की उम्र में ही मेरी दाई (प्रसव कराने वाली) के रूप में पहचान होने लगी तो मेरी देवरानियों ने सम्मान स्वरूप मेरे मायके के नाम (लंगासू ) पर लंगास्या दीदी कहना शुरू कर दिया, फिर तो मेरी पहचान इसी नाम से होने लगी।
श्रीमती जसुमति देवी का जन्म आज से 82 साल पहले चमोली जिले के, बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर पड़ने वाले लंगासू कस्बे में हुआ। पिता श्री लच्छी लाल और माता श्रीमती मासन्ती देवी की पहली सन्तान के रूप में जसुमति ने जन्म लिया तो हर माता-पिता की तरह इन्हें भी माँ-बाप का भरपूर प्यार मिला। माँ पिता दोनों गरीब तो जरूर थे, लेकिन समाज सेवा के लिए दिल बड़ा रखते थे। जसुमति की माँ और दादी दोनों क्षेत्र की अच्छी दाई ( प्रसव वाली महिला को बच्चा पैदा करवाने वाली) थी। पिता लच्छी लाल भी क्षेत्र के अच्छे मिस्त्री माने जाते थे। माँ पिता दोनों का अपने-अपने हुनर के कारण समाज में अच्छी प्रतिष्ठा थी। उस दौर में आज की तरह मेहनत मजदूरी देने का कोई तय पैमाना न होकर आपसी व्यवहार पर ही मेहनताना देय होता था। इस छोटी सी आमदनी से बड़ी मुश्किल से परिवार का गुजारा चलता था। बहुत कम कमाई के बाबजूद भी पिता लच्छी लाल ने पत्नी को उनके हुनर के चलते, समाज सेवा के रूप में उनके दाई के काम करने में कोई बाधा नहीं डाली। मासान्ती देवी ने भी कभी उनकी सेवाओं के बदले मिलने वाले मेहनताना में ना – नुकुर नहीं की। दाई के काम को पेशे से जादा समाज सेवा का धर्म समझने का गुण मासान्ती देवी को अपनी सासू माँ से मिला था।उस दौर में बड़े घरानों की इक्का दुक्का बेटियों का ही स्कूल में दाखिला करवाया जाता था, क्योंकि आम धारणा यह थी कि बेटियां पराया धन होती हैं और शादी के बाद इन्हे चौका चूल्हा, खेती और गोबर का ही तो काम करना है। इसलिए लोग अपनी बेटियों को पढ़ाई के नाम से स्कूल में ही नहीं दाखिला करवाते थे। परन्तु पिता लच्छी लाल ने समाज की इस धारणा का विरोध करते हुए अपनी लाडली का नामांकन, कस्बे के प्राइमरी स्कूल में करवा दिया। उस दौर में लड़कियों को स्कूल भेजना समय व धन की बर्बादी समझी जाती थी, लेकिन दूरदर्शी लच्छी लाल ने अपनी लाडली को न केवल स्कूल भेजा बल्कि हर कदम पर बेटी का साथ देते हुए, उसका हौसला भी बढ़ाया। तीब्र बुद्धि की जसुमति ने भी पिता का हौसला कम होने नहीं दिया, बल्कि हर दर्जे में तथाकथित बालकों के बर्चस्व को तोड़ते हुए अब्बल स्थान हासिल किया। नन्ही सी जसुमति ने अपने व्यवहार और बौद्धिक सामर्थ्य से बहुत जल्दी ही अपने गुरूजनों की नजर में विशेष स्थान हासिल कर लिया, लेकिन अक्सर माँ के प्रसव करवाने की कला में माहिर होने के कारण, घर से बाहर होने पर जसुमति को छोटे भाई-बहिनों की देख-रेख करने के लिए घर पर ही रूकना पड़ता, जिस कारण अक्सर उसे स्कूल में गुरूजनों की डांट खानी पड़ती। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने तक लच्छी लाल जी के परिवार में जसुमत के पीछे 4भाई और 4बहिनें और आ चुकी थीं। लच्छी लाल जी बेटी के जज्बे और हौसले को देखकर उसे आगे स्कूल तो भेजना चाहते थे, परन्तु आगे की पढ़ाई के लिए घर से स्कूल 20 किलोमीटर दूर नंदप्रयाग कस्बे में था। उस दौर में हर रोज नन्हीं जसुमति को अकेले स्कूल भेजना भी संभव नहीं था। और घर की आमदनी इतनी न थी कि जसुमति को कमरा लेकर स्कूल में भर्ती किया जा सके।तब स्कूलों में छात्रों के रहने के लिए बोर्डिंग भी होते हैं, जहाँ सशुल्क रहा भी जा सकता था। अतः बड़े परिवार और घटती आमदनी ने पिता को मजबूर कर दिया कि जसुमति घर पर रहकर ही अपने भाई-बहिनों की देखरेख करे, ताकि माँ और पिता दोनों हाड़ तोड़ मेहनत कर परिवार का भरण पोषण कर सकें। पिता लच्छी लाल दिन भर मिस्त्रीगिरि का काम करते तो माँ मासन्ती देवी खेतीबाड़ी के साथ पशुओं के चारे पानी का प्रबन्ध भी करती, साथ ही जरूरत पर अपने दाई के धर्म को भी निभाती। उस जमाने में हर दिन ओखल पर धान कूट कर भात (चावल) बनाने के लिए ताजे चावलों का प्रबन्ध करना होता था, तो शांम को गेंहू जांदरा (हाथ चक्की) से पीस कर ताजा आटे का प्रबन्ध भी घर की महिलाओं की ही जिम्मेदारी होती थी । नन्ही सी जसुमति, दिनभर की मेहनत से थकी माँ का पीला चेहरा देखकर सिहर जाती। 10बर्ष की नन्हीं सी ये जान भी ये सब देख कर माँ का भरपूर साथ देने का प्रयत्न करती । माँ की हाड़ तोड़ मेहनत को देखकर, जसुमति माँ के काम में उसका हाथ बंटाना चाहती थी, तो दूसरी ओर स्कूल भी जाना चाहती थी। परन्तु दोनों काम एक साथ संभव नहीं थे। उसे स्कूल जाने की इच्छा को मन में ही दबाना पड़ा और माँ के काम में हाथ बंटाने को ही नियति मानना पड़ा। धान कूटते या गेंहूं पीसते हुए स्कूल जाते बच्चों की आवाजें सुनकर उसके मन में भी स्कूल जाने का ख्याल बेग मारता, परन्तु शांम को घर आती मां का थका चेहरा आँखों में तैरते ही जैसे उसके पांवों में बेड़ियां पड़ जाती।
15वाँ बसन्त आते आते माता पिता ने जसुमति का विवाह धारकोट के 22 वर्षीय युवा अनुसूया से कर दिया। संयोगवश यहाँ अनुसूया की माँ भी दाई का काम करती थी।
आपका इस काम को करने की शुरूआत कैसे हुई? प्रश्न पर अतीत की स्मृतियों को टटोलते हुए श्रीमती जसुमति देवी ने बताया कि उनकी जेठानी की प्रसव बेदना चल रही थी। उनकी सास, जेठानी की देख रेख में लगी थी। दो दिनों के प्रयास के बाद जब मेरी सास ने हार मान कर बच्चा जनने में असमर्थता व्यक्त कर प्रसूता को कहीं और ले जाने की बात कह दी तो डरते डरते मैंने सासू माँ से कहा कि जरा मैं देखूं? सासू माँ ने मुझे ऊपर से नीचे निहारते हुए हामी तो भर दी, परन्तु उन्हें तनिक भी विश्वास न था कि मैं ये प्रसव सही सलामत करवा सकती हूँ । आगे जसुमति देवी बताती हैं कि माँ-दादी के मुख से सुनी बातों को ही अपनी कल्पना में लाकर मैंने अपनी जेठानी के सुरक्षित प्रसव करवाने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। तब प्रसव वाली महिला के पेट को तेल लगाकर एक विशेष प्रकार की मालिश करते हुए ही प्रसव करवाया जाता था।आगे जसुमति देवी कहती हैं कि इसे संयोग कहूँ या इष्टदेव की कृपा, कि थोड़ी सी मेहनत के बाद मैं जेठानी का सुरक्षित प्रसव करवाने में सफल रही। यह देखकर सासू माँ ने मुझे गले से लगा लिया, और अब आगे इस सेवा को जारी रखने की भी स्वीकृति दे दी। आगे जसुमति देवी कहती हैं कि इस सफलता से न केवल मेरा आत्मविश्वास बढ़ा, बल्कि परिवार और समाज में मेरा रूतबा भी बढ़ा। अब मैंने भी ठान ली कि मैं किसी भी महिला को अधिक देर तक प्रसव वेदना सहन करने से पहले ही उन्हें इस अस्यह्य और अकथनीय दर्द से मुक्त करने का प्रयास करूंगी। जल्दी ही मुझे अपने परिवार में स्वतन्त्र रूप से अपनी ही दूसरी जेठानी के प्रसव कराने का मौका मिला। इस दूसरे अवसर पर मैं एक बालिका का पीड़ा रहित जन्म कराने में सफल रही। प्रसव कराने के दौरान क्या-क्या चुनौतियां आती हैं? के जबाब में जसुमति देवी ने बताया कि सामान्यत:प्रसव के समय पहले शिशु का सिर बाहर आता है, परन्तु कभी कभी पहले शिशु के पाँव बाहर निकलते हैं। ऐसी स्थिति में प्रसव कराना एक चुनौती पूर्ण कठिन कार्य हो जाता है। इस स्थिति में प्रसूता को अस्यह्य दर्द से दूर रखने की चुनौती होती है तो वहीं सुरक्षित प्रसव कराना भी। क्योंकि इसमें शिशु के नाजुक अंगों को मुड़ने – तुड़ने व अंग-भंग होने की बड़ी चुनौती रहती है। क्या कभी आपको लगा कि मुझे किसी दूसरे की सहायता या डाक्टरी सलाह या सहायता की भी जरूरत है?
पर श्रीमती जसुमति देवी ने कहा कि पहले पहले तो मुझे लगता था कि यदि आवश्यकता ही पड़ी तो मेरी सास मेरे ही साथ और मेरे ही पास हैं। उनके देहांत तक मैं उम्र और अनुभव दोनों में ही इतनी सयानी हो चुकी थी कि हर परिस्थिति से निपटने में सक्षम थी। तब से लेकर वर्ष 2012 तक दो सौ से अधिक सुरक्षित प्रसव करा चुकी हूँ।
क्या कभी इस कार्य में ऐसा भी लगा कि जब आपके सामने बहुत पेचीदा स्थिति पैदा हो गयी हो ? के जबाब में अब उम्र दराज हो चली जसुमति देवी लगभग चालीस साल पहले की एक घटना का जिक्र करते हुए बताती हैं कि मेरे पड़ोसी गाँव भटवाड़ी में एक महिला के प्रसव के दौरान जब डाक्टरों द्वारों भी प्रसव नहीं कराया जा सका तो, किसी परिचित ने उन्हे मेरा नाम सुझाया। मुझे दिक्कत न हो तो वे प्रसूता को अपने मायके ले आये, जो मेरे ही घर के नजदीक था। अब तक घटित पूरी बातों को जानकर सहसा मन में आया कि जब डॉक्टर भी प्रसव न करा पाये तो क्या मैं सफल हो सकूंगी। सहसा मेरे अंदर से आवाज आई कि मैं तो निमित्त मात्र हूँ। करना तो सब कुछ ईश्वर को है। मन में विश्वास जागा और मैं चल पड़ी। प्रसूता के पास पहुँच कर मैंने अपने पूरे अनुभव और कौशल का प्रयोग किया। ईश्वर ने साथ दिया और सुरक्षित प्रसव करा पाई। मन ही मन मैंने ईश्वर का धन्यवाद किया। इस घटना के बाद तो लोगों का ही नहीं, बल्कि मेडिकल के जानकारों का भी मुझ पर विश्वास और सम्मान बढ़ गया।
क्या कभी ऐसा हुआ कि प्रसव के समय किसी जच्चा बच्चा को कोई हानि पहुँची हो? इस प्रश्न पर अतीत की स्मृतियों में खोते हुए जसुमति देवी ने बताया कि दो सौ से अधिक प्रसवों के दौरान मात्र एक बार वो शिशु को बचाने में असफल रही। जब एक अपरिपक्व महिला (जिसे गढ़वाळी में लाटी कहा जाता है) का शिशु जन्म से पहले ही माँ के गर्भ में ही मृत हो चुका था। तब मुझे मृत बच्चे को ही बाहर करना पड़ा। क्या कभी आपको लगा कि मैं पढ़ – लिख जाती तो अच्छी डाक्टर बन सकती थी ? पर एक लम्बी मुस्कान के साथ श्रीमती जसुमति देवी ने कहा कि मैं समझती हूँ कि यह ईश्वरीय विधान रहा होगा कि मैं मायके में पारिवारिक परिस्थितियों के कारण पढ़ाई जारी नहीं रख सकी। हो सकता है कि मैं पढ़ाई जारी रखने के बाद कोई अन्य नौकरी आदि में चली जाती। क्योंकि तब आठवीं तक पढ़े – लिखे लोगों को भी नौकरियाँ आसानी से मिल जाती थी। लेकिन आठवीं तक पढ़ना इतना आसान न होता था। स्कूल घर से बहुत दूर-दूर होते थे। आज जबकि प्रसव पूर्व और प्रसवोपरान्त की अनेक जाँचों और सुविधाओं की व्यवस्था हो चुकी है, के बाद आप समाज को क्या संदेश देना चाहेंगी? के जबाब में जसुमति देवी ने कहा कि दाई का पेशा कहूँ या डाक्टरी पेशा बहुत जिम्मेदारी का पेशा है। इस पेशे को मात्र हम नौकरी के रूप में ही न देखें, बल्कि यह समाज सेवा का बहुत उत्तम पेशा है। प्रसव वेदना में जिन्दगी और मौत के बीच झूलते एक हाड-माँस के पुतले को असह्य पीड़ा से मुक्ति दिलाते हुए, माँ होने के गौरव और उसके ममत्व से परिचित कराने वाला मात्र और मात्र प्रसव कराने वाला ही होता है। इसमें जहाँ एक को माँ बनने का सुख होता है तो वहीं दूसरी और प्रसव कराने वाले को दूसरी को स्त्री से माँ बनवाने का सुख निहित होता है।विधि की बिडम्बना देखिए कि औरों को जीवन दान देने वाली इस देवदूत सदृश महिला के स्वयं के चार बच्चे, उस दौर की विभिन्न बीमारियों से काल कवलित हो गये, परन्तु जसुमति ने इसे ईश्वर की नियति मानकर अपना काम नहीं छोड़ा। 35वर्ष की उम्र में बैधव्य दु:ख भी सहना पड़ा, लेकिन चट्टान सदृश हृदय बनकर खड़ी रही। जसुमति ने प्रसूताओं के दर्द को समझा और अपना दर्द भूल गई।
आज के दौर और उस दौर के समय को आप कैसे देखती हैं? के बारे में जसुमति देवी का कहना है कि उस दौर में प्रसव वेदना वाली महिला बहुत भयभीत रहती थी। प्रसव के बाद भी उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। कई बार अत्यधिक रक्तस्राव होने के कारण प्रसूता की मौत तक हो जाती थी। बच्चे के जन्म के समय प्रसूता में रक्त की भारी कमी होने से भी प्रसव कराना बड़ी चुनौती होती थी। प्रसूता को होने वाले दर्द को कम करने के लिए घरेलू उपचार ही होते थे, जबकि आज प्रसव पूर्व और प्रसव के बाद बहुत सी जाँच की सुविधाएं हो गई हैं, जिससे गर्भ में पल रहे शिशु की हर जानकारी माँ और प्रसव कराने वाले शख्स के पास होती है, लेकिन पहले के दौर में ये सब जानकारियाँ प्रसव कराने वाली दाइयाँ अपने अनुभव और कौशल से ही प्राप्त करती थीं।
आज के दौर में इस कल्पना मात्र से ही शरीर में सिहरन सी होने लगती है कि अभी भी उत्तराखंड के रोड़ कनेक्टिविटी से न जुड़े गाँवों में 99 फीसदी प्रसव दाइयों द्वारा ही करवाये जाते हैं, जिनके पास सुविधाओं ने नाम पर सिर्फ और सिर्फ होता है लोगों का उन पर अटूट विश्वास, उनका अपना धैर्य और अपना आत्मविश्वास। जच्चा-बच्चा सुरक्षा में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाली इस “देवदूत दाई”और पहाड़ की प्रसूताओं को नव जीवन देने वाली सभी दाइयों को मेरा सलाम।
@हेमंत चौकियाल
स०अ०, रा0उ0प्रा0वि0डाँगी गुनाऊँ, अगस्त्यमुनि (रूद्रप्रयाग)
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