आज, मातृभाषा दिवस है, बळ !

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नान्तिन’नैलि जब कभै लै / घरा’क बाबत सवाल करीं/मेरि हालत चोर जसि है पड़ी!(बच्चों ने जब कभी भी पैतृक घर के बाबत सवाल किया तो मेरी हालत चोर जैसी हो गई।)

प्रिय कवि ज्ञान पंत जी की ‘कणिक’ पुस्तक में प्रकाशित उक्त कविता हमारे जीवन में मातृ भाषा की दयनीय स्थिति की तरह असज करती है। मातृ भाषा की उपस्थिति हमारी दिन-चर्या में ‘कणिक’ की तरह ही तो है। मातृभाषा का स्कूल घर, परिवार और वो समाज है जहां बच्चा जन्म लेता है, उसकी परिवरिश होती है। किसी भी समाज की संपूर्ण जीवनशीलता याने आपसी संवाद, आचरण, व्यवहार, जीने के साधन, अर्थतत्रं, कार्यशैली, आजीविका का स्वरूप आदि उसके जीने के तरीके और अभिव्यक्ति के रंग-रूप को विकसित करते हैं।

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मातृभाषा के शब्द किसी क्षेत्र विशेष की पारिस्थितिकीय परिस्थितियों और बनावट के अनुरूप विकसित समाज के ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्वरूप में अपना आकार लेते हैं। इस रूप में मातृभाषा सीखने की कक्षायें उसके घर-परिवार और स्थानीय समाज में संचालित होती हैं। और उसके शिक्षक होते हैं माता-पिता, अभिभावक और स्थानीय परिवेश के लोग।

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बच्चा पहले-पहल अपनी मातृभाषा को लेकर ही स्कूल जाता है। उसका परिवेशीय ज्ञान ही उसकी एकमात्र पूंजी होती है। परंतु स्कूली भाषा और वातावरण सबसे पहली चोट बच्चे के इस प्राथमिक ज्ञान पर ही करता है। और यह चोट उन समाजों में ज्यादा प्रभावकारी होती है, जो पिछडे, गरीब और कमजोर अर्थतत्रं से ग्रस्त होते हैं। वे समाज अपने परम्परागत जीवकोपार्जन के अवसरों और संसाधनों को गंवा कर आयातित व्यवसायों को अपना रहे होते हैं। स्वाभाविक है कि उनकी पैतृक जीवन शैली में इस नये रोजगारों की व्यावसायिक भाषा प्रभावी होने लगेगी।

नतीजन, घर-परिवार और स्थानीय समाज में मातृभाषा सामाजिक संवाद और पारिवारिक बोल-चाल से भी हटने की प्रक्रिया में होने लगती है। सामाजिक लोक व्यवहार के इस संक्रमण काल में बच्चे की घर की भाषा के ऊपर स्कूली नयी भाषा का दबाव और प्रभाव बढ़ने लगता है। विडम्बना यह है कि, इस प्रक्रिया में बच्चे का घर-परिवार और स्कूल इस बदलाव में उसकी मदद करते हुए होते हैं।

लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है कि जो आर्थिक-सांस्कृतिक रूप में सृमद्ध समाज हैं, उनकी मातृ भाषा की जीवंतता घर-परिवार और समाज में हमेशा बरकरार रहती है। उस समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक लोक व्यवहार में मातृभाषा के अलावा कोई भी अन्य भाषा तनिक भी ठहरती नहीं है। अतः उस समाज का बच्चा अपनी मातृभाषा को लेकर स्कूल पहुंचता है, तो स्कूली ज्ञान को ग्रहण करने में उसे कोई विशेष परेशानी नहीं होती है। क्योंकि उसकी मातृभाषा और स्कूली ज्ञान के माध्यम में कोई अंतर नहीं होता है। याने संपूर्ण स्कूली पढ़ाई मातृभाषा में हो रही होती है। इस प्रक्रिया में उसे अन्य भाषाओं को सीखने में भी कोई गुरेज या संकोच नहीं होता है।

समस्या तो वहां है जहां मातृभाषा बच्चे के घर-परिवार और परिवेश से विलुप्ति के कगार पर है। घर-परिवार और स्कूल की अलग-अलग भाषायें उसकी पढ़ने और सीखने के प्रयासों को कमजोर करने के साथ-साथ कुंठित भी करते हैं। स्कूली भाषा उसकी मातृभाषा से अधिक बेहतर और रोजगारपरख है, यह विचार उसके मन-मस्तिष्क में जगह बना लेता है। अतः उसके पास घरेलू बोल-चाल में भी स्कूली भाषा का इस्तेमाल करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता है। इस प्रक्रिया में तेजी से स्कूली भाषा एक ग्लैमर के रूप में सामाजिक जीवन में अपना प्रभाव और वर्चस्व बढ़ाने में सफल हो जाती है।

अतः मातृ भाषा में समृद्ध समाज और उसमें संचालित स्कूली भाषा की एकरूपता होने से उनमें आपसी बैर नहीं पनपता है। दिक्कत तो उन समाजों में है जहां मातृभाषा अपने घर-परिवार में अपनी महत्वा खो चुकी होती है। गढ़वाली-कुमाऊंनी के संदर्भ में यही कहा जा सकता है। तब घरों में अनुपस्थित यह भाषा स्कूली शिक्षण का हिस्सा बनेगी तो इसमें सवाल और सशंय होना स्वाभाविक है।

ज्ञातव्य है कि नए उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद एनसीफ-2005 के आलोक और उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में कक्षा 1 से 8 तक की सभी विषयों की नवीन पाठ्यपुस्तकों को तैयार किया गया और उन्हें सभी विद्यालयों में लागू किया था। इन पुस्तकों को तैयार करते समय यह विशेष घ्यान रखा गया कि राज्य के स्थानीय परिवेश का पुट उनमें प्रमुखता से बरकरार रहे। राज्य के शिक्षकों द्वारा बनायी गई यह पाठ्य पुस्तकें उत्तराखंड से बाहर निकलकर देश भर में सराही गई। परन्तु विगत वर्ष इन पाठ्य पुस्तकों को अप्रासांगिक कहकर एक ही झटके में स्कूलों से बाहर कर एनसीईआटी की पुस्तकों को स्कूली पढ़ाई का माध्यम बनाया गया।

(इसमें यह ध्यान में रखने वाला तथ्य है कि एनसीईआटी स्वयं यह सलाह प्रदान करता है कि राज्य अपनी पाठ्य पुस्तकें स्वयं स्थानीय परिवेश, आवश्यकता और अवसरों को समझते हुए तैयार करें, तो बेहतर होगा।) जिस राज्य के नियंताओं का जब खुद पर भरोसा न हो, वहां ऐसा होना स्वाभाविक है। उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा में यह बदलाव यही बतलाता है।

उत्तराखंड के सरकारी स्कूलों को अधिक सक्षम और लोकप्रिय बनाने के लिए अधिकतर निजी अंग्रेजी स्कूलों के तौर-तरीकों को अपनाने जैसा वातावरण बनाया जा रहा है। सरकारी स्कूलों में बच्चों-शिक्षकों की वेश-भूषा और अंग्रेजी भाषा के ग्लैमर को प्रभावी बनाना इसमें प्रमुखता से शामिल है। यह समझा जा रहा है कि अंग्रेजी भाषा को सरकारी स्कूलों में निजी स्कूलों की तरह प्रभावी बनाया जाय तो उनकी गुणवत्ता बढ़ेगी। सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी में बोलते बच्चों को पढ़ाई की बढ़ती गुणवत्ता माना गया है। यह सही भी है, क्योंकि यही आज के वक्त का तकाजा है। वास्तव में, गढ़वाली-कुमाऊंनी अपने परिवेश से विलुप्ति की कगार पर हैं। लोगों का परम्परागत व्यवसायों से मोहभंग जो हुआ कि स्थानीय समाज में लोक आचरण भी गायब होने लगा है। समाज में मातृ भाषा की अनुपस्थिति इसी का परिणाम है।

मातृ भाषा को उभारने में स्कूल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसमें किसी प्रकार की असहमति और विरोध भी नहीं है। सामाजिक परिवेश में मातृ भाषा की वीरानगी को स्कूली माध्यम से जीवंत किए जाने में मूल परेशानी यह है कि मातृभाषा की पैदाइश की जगह घर-परिवार है, स्कूल उसे व्यापकता देकर ताकत देता है। जिन समाजों में मातृभाषा में पढ़ाई का प्रचलन हैं, वहां के लोग उसी भाषा में जीते भी हैं। उनका संपूर्ण जीवनीय आचरण मातृभाषा में ही मुखरित होता है। इसमें सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक सभी प्रकार के व्यवहार हैं। वास्तव में ‘मातृ भाषा बच्चे के घर से स्कूल को जाती है, न कि अन्य भाषाओं की तरह स्कूल से बच्चे के घर की ओर आती है।’

यह भी देखा जाना चाहिए कि मातृ भाषा का लोप सरकारी स्कूलों के बच्चों में है या निजी अंग्रेजी स्कूलों में। सरकारी स्कूलों में ग्रामीण और कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के बच्चे अधिक हैं, इसमें दो राय नहीं है। कमोवेश ये बच्चे अपने स्थानीय परिवेश से जुड़ कर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इसलिए इनमें गढ़वाली-कुमाऊंनी भाषा में बोलचाल की दक्षता होनी स्वाभाविक है। हां उसमें कमी आ रही है, यह चिन्ताजनक बात है।

परन्तु, निजी अंग्रेजी स्कूलों के बच्चे तो अपनी मातृभाषा को भूल ही चुके हैं। मातृ भाषा की पढ़ाई करने की ज्यादा जरूरत तो उनको है। निजी अंग्रेजी स्कूलों को इस मुहिम में शामिल किये बिना यह ऐसा ही है कि सामाजिक सर्दी-जुकाम के इलाज के लिए नीति नियंता बहुत तत्पर हो रहे हैं और गम्भीर सामाजिक बीमारी की तरफ मुंह मोडे़ हुए हैं। अन्य कई शैक्षिक अभिनव प्रयासों की तरह यहां भी सरकारी चुप्पी जनसामान्य को अखरती है।

समाज और सरकार की लोककल्याणकारी योजनाओं, कार्यों और अभियानों की तरह मातृ भाषा के संचालन स्थल क्या हमारे सरकारी स्कूल ही रहेंगे ? तभी तो हमारे सरकारी शिक्षकों को सरकारी व्यवस्था मिड डे मील, जनगणना, पशुगणना, खेल, स्वास्थ्य, लोक संस्कृति, लोकभाषा आदि और भी कई दायित्वों के सफल संचालक ज्यादा मानती है। उनके प्रति सरकारी व्यवस्था का अघ्यापकीय सम्मान और व्यवहार तो कम ही नजर आता है।

अरुण कुकसाल

चामी, पोस्ट- सीरौं-246163

पौड़ी गढ़वाल

 

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