कोई तो बताएं, मूल निवासी जाएं तो कहां जाएं ? अब रोजगार पर भी बाहरी लोगों का डाका, पहाड़ हो रहे वीरान, सुनिए पहाड़ के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की अपील
1 min read19/12/2023 7:48 am
- कोई तो बताएं, मूल निवासी जाएं तो कहां जाएं?
- जल, जंगल, जमीन के सवालों का नहीं मिला उत्तर
- अब रोजगार पर भी बाहरी लोगों का डाका, पहाड़ हो रहे वीरान
ऐसे घनघोर अंधेरी रात के आगोश में छिपे हुए प्रदेश में रोशनी की एक किरण बन रही है मूल निवास को लेकर 24 दिसम्बर की देहरादून में महारैली। मुट्ठी भर लोग होंगे। फटेहाल और संसाधनविहीन, लेकिन उनका हौसला बुलंद है। उनकी आंखों में वीरान और बंजर होते पहाड़ों को आबाद करने का सपना है। इन युवाओं की इस चिन्गारी को शोला बनने में साथ दीजिए। पहाड़ के जल, जंगल और जमीनों को बचा लीजिए। मूल निवास हमारी अस्मिता से जुड़ा है। इसका समर्थन कीजिए। साथ दीजिए।
गुणानंद जखमोला / उत्तराखंड
Advertisement

Advertisement

हास्यापद बात है कि नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी की लापरवाही से सिलक्यारा हादसा हुआ। उसे जोड़ दिया गया बौखनाथ देवता से? पहाड़ खाली हो रहे हैं तो इसे किस देवता से जोड़ोगे? पलायन देवता से? दरअसल, पहाड़ के लिए देहरादून भी उतना ही दूर है जितना लखनऊ। हम अपने ही पहाड़ में बेघर हो गये हैं। गांवों में सन्नाटा पसरा है और खेत बंजर हो गये हैं। इस बंजर जमीन पर कथित निवेशकों की नजर है।
Read Also This:
Advertisement

प्रदेश में जिसे सरकारी नौकरी मिल रही है समझो वह भगवान है। इनकी संख्या भी प्रदेश के कुल आबादी का दो प्रतिशत हैं। इन पर भी स्थायी निवास प्रमाण पत्र हासिल कर नर्सिंग कालेज के एसोेसिएट प्रोफेसर रामकुमार शर्मा जैसे राजस्थानी मूल के लोगों का कब्जा हो गया है। सरकारी नौकरी के लिए प्रेमचंद अग्रवाल, गोविंद सिंह कुंजवाल, हाकम सिंह और हाकम सिंह के हाकम टाइप लोगों की पूजा-अर्चना करनी पड़ती है और मोटा चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है। यह चढ़ावा देना भी हर किसी के बस की बात नहीं।
प्रदेश में मौजूदा समय में 68000 से भी अधिक औद्योगिक इकाइयां हैं। इनमें साढ़े चार लाख लोगों को रोजगार मिला है। इसमें से भी 70 फीसदी लोग बाहरी हैं। कारण, हम स्किल्ड नहीं हैं। राज्य गठन के 23 साल बाद भी पहाड़ी का मतलब सैनिक और होटल में वर्तन धोने वाले ही। या फिर जो कुछ पढ़-लिख गये सब बीएड बेरोजगार।
दरअसल, हम अपनी बुनियाद ही पक्की नहीं कर सके। स्कूली पाठ्यक्रम में न तो वानिकी है, न आपदा प्रबंधन और न ही कृषि-बागवानी। 104 आईटीआई और 71 पालीटेक्निक बदहाल हैं। उनमें दर्जन भर ट्रेड भी ऐसे नहीं हैं जो कि औद्योगिक इकाइयों में रोजगार दिला सके। नई शिक्षा नीति की बात है लेकिन इसमे ंभी कौशल विकास की सीख नहीं दी जा रही है। सपनों के महल बनाए जा रहे हैं कि अरबों का निवेश होगा। जल, जंगल और जमीन के सौदे किये जा रहे हैं। सपने बेचे जा रहे हैं और हम तमाशा ही नहीं देख रहे बल्कि अपनी बर्बादी पर जोर से ताली बजा रहे हैं। घर फूंक तमाशा देखने वाले मूर्ख लोग उत्तराखंड में मिलेंगे। आधुनिक कालीदास। अपनी जड़ों को काटने वाले।
ऐसे घनघोर अंधेरी रात के आगोश में छिपे हुए प्रदेश में रोशनी की एक किरण बन रही है मूल निवास को लेकर 24 दिसम्बर की देहरादून में महारैली। मुट्ठी भर लोग होंगे। फटेहाल और संसाधनविहीन, लेकिन उनका हौसला बुलंद है। उनकी आंखों में वीरान और बंजर होते पहाड़ों को आबाद करने का सपना है। इन युवाओं की इस चिन्गारी को शोला बनने में साथ दीजिए। पहाड़ क ेजल, जंगल और जमीनों को बचा लीजिए। मूल निवास हमारी अस्मिता से जुड़ा है। इसका समर्थन कीजिए। साथ दीजिए।
खबर में दी गई जानकारी और सूचना से क्या आप संतुष्ट हैं? अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।

जो करता है एक लोकतंत्र का निर्माण।
यह है वह वस्तु जो लोकतंत्र को जीवन देती नवीन
कोई तो बताएं, मूल निवासी जाएं तो कहां जाएं ? अब रोजगार पर भी बाहरी लोगों का डाका, पहाड़ हो रहे वीरान, सुनिए पहाड़ के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की अपील
Website Design By Bootalpha.com +91 84482 65129