प्रकृति से खिलवाड़: ‘कबाड़ यात्रा’ ने उत्तराखण्ड की शांत वादियों को किया अशांत
1 min read20/07/2025 8:12 pm
डा. दलीप सिंह बिष्ट / अगस्त्यमुनि।।
उत्तराखण्ड जिसे ‘देवभूमि’ के नाम से जाना जाता है, सदियों से अपनी नैसर्गिक शांति, आध्यात्मिक ऊर्जा और पारिस्थितिक संतुलन के लिए विख्यात रहा है। यहाँ की घाटियाँ, नदियाँ और
जंगल न केवल जीव-जंतुओं का निवास हैं, बल्कि मानव-प्रकृति के सहअस्तित्व का आदर्श उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं। किंतु बीते कुछ वर्षों में जिस प्रकार पर्यटन, विशेष रूप से “एडवेंचर बाइकिंग” या तथाकथित ‘कबाड़ यात्रा’ के नाम पर बेतरतीब और उन्मादी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं, उसने इस शांत प्रदेश के वातावरण और सामाजिक जीवन को गहरे संकट में डाल दिया है। यद्यपि कावड़ यात्रा मूलतः एक पवित्र धार्मिक यात्रा रही है, जिसमें श्रद्धालु गंगा से जल लेकर भगवान शिव का अभिषेक करते हैं। यह साधना, तप और संयम का प्रतीक मानी जाती थी। परन्तु अब इस यात्रा का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। डीजे की तेज ध्वनि, मोटरसाइकिल पर हुड़दंग, हथियारनुमा लाठी-डंडों का प्रदर्शन और धर्म के नाम पर सड़कें रोककर बलप्रदर्शन; यह सब कावड़ यात्रा की गरिमा के साथ-साथ उत्तराखण्ड की शांति व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। उत्तराखण्ड् में ‘कबाड़ यात्रा’ के नाम पर पारंपरिक तीर्थ यात्रा के बजाय मॉडिफाइड, पुरानी और साइलेंसर रहित बाइकों पर दौड़ते शोरगुल करते बाइकर्स का हुजूम है, जो साहसिक पर्यटन के
नाम पर देवभूमि की शांति और प्रकृति को बेतरतीब रूप से रौंद रहा है। ये बाइकर समूह पुराने वाहनों को “विंटेज चार्म” और “एडवेंचर स्पिरिट” के नाम पर प्रदर्शित करते हैं। लेकिन वास्तव में इनका सबसे बड़ा असर स्थानीय निवासियों और पर्यावरण पर हो रहा है। रात दिन इनके बाइकिंग की तेज आवाज़ों से पक्षियों की चहचहाहट गायब हो गई है, जंगलों की शांति भंग हो रही है और गांवों में रहने वाले लोग मानसिक तनाव में जी रहे हैं। इन बाइकों से केवल ध्वनि प्रदूषण नहीं फैलता, बल्कि धूल, धुआं और सड़क दुर्घटनाओं का
खतरा भी बढ़ता जा रहा है। वन्यजीवों, पर्वतीय पक्षियों के प्राकृतिक आवास में घुसपैठ से उनका व्यवहार प्रभावित हो रहा है। यह सब उस नाजुक पारिस्थितिकी पर सीधा हमला है, जो सदियों से अपनी संतुलित स्थिति में रही है। चिंता की बात यह है कि प्रशासन ऐसे आयोजनों पर मौन साधे हुए है। जहां आम ग्रामीण को प्रदूषण प्रमाणपत्र या हेलमेट न होने पर चालान किया जाता है, वहीं इन बाइकरों के लिए कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं। यह विडंबना है कि पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर प्रकृति से ही दुश्मनी ली जा रही है। क्या पर्यटन का मतलब केवल शोर, प्रदर्शन और उन्माद है? क्या उत्तराखण्ड जैसी देवभूमि में रोमांच का अर्थ शांति का नाश होना चाहिए? समाधान यही है कि प्रशासन ऐसे आयोजनों के लिए स्पष्ट नियम बनाए, ध्वनि सीमा निर्धारित करे, मॉडिफाइड वाहनों पर रोक लगाए। उत्तराखण्ड् केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, एक संवेदनशील सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत है। कबाड़ यात्रा जैसे शोरगुलपूर्ण, अनियंत्रित पर्यटन प्रयोग इसके भविष्य को संकट में डाल सकते हैं। समय रहते चेत जाना ज़रूरी है, वरना न शांति बचेगी, न प्रकृति। यह हमारी प्रकृति, संस्कृति और सामूहिक चेतना की परीक्षा है। यदि उत्तराखण्ड् को ‘देवभूमि’ के रूप में बनाए रखना है, तो बाहरी प्रदर्शन और आंतरिक संतुलन के
बीच स्पष्ट सीमा रेखा खींचनी होगी । प्रकृति कोई परिदृश्य नहीं, वह हमारी जीवनरेखा है और जीवनरेखा के साथ खिलवाड़ अंततः पूरे समाज के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है। कावड़ यात्रा की पवित्रता को बनाए रखते हुए यह आवश्यक है कि उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक शांति को अक्षुण्ण रखा जाए। धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ अराजकता नहीं, बल्कि अनुशासन और आत्मशोधन होना चाहिए । जब श्रद्धा प्रदर्शन का माध्यम बन जाती है, तब उसकी आत्मा खो जाती है। उत्तराखण्ड को यदि देवभूमि बनाए रखना है, तो धर्म को मर्यादा, सहिष्णुता और शांति के साथ जोड़ना होगा; न कि हुड़दंग, उग्रता और दमन के साथ।
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