दीपक बेंजवाल  दस्तक पहाड न्यूज अगस्त्यमुनि।। देवभूमि उत्तराखंड में दीपावली पर्व जहां पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है, वहीं अगस्त्यमुनि में इसकी आस्था और परंपरा का रूप बिल्कुल अलग और अद्भुत है। यहां दिवाली को पारंपरिक रूप से ‘बलि राज पूजन’ के रूप में मनाया जाता है। पूरे उत्तराखंड में यह अनोखी परंपरा केवल अगस्त्यमुनि के महर्षि अगस्त्य ऋषि मंदिर में ही जीवित है। पर्व की शुरुआत धनतेरस से होती है, जब मंदिर के कलश के नीचे गुंबद के अंदर अखंड यम दीपक प्रज्वलित

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किया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान श्री वामन ने राजा बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी थी, इसी पौराणिक प्रसंग की स्मृति में अगस्त्यमुनि में यह पर्व ‘बलि राज पूजन’ के रूप में मनाया जाता है। दिवाली के दिन मंदिर प्रांगण को लाल मिट्टी से लीप-पोतकर सजाया जाता है। नाकोट ग्राम के क़िस्तकार परिवारों द्वारा आराध्य श्री जी को अर्पित धान मंदिर में अर्पित किया जाता है। इन्हीं धानों से प्रांगण में राजा बलि का घोड़ा, स्वयं राजा बलि, और उनके साथ दैत्यगुरु शुक्राचार्य की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। इस चित्र में शुक्राचार्य एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ से राजा बलि को सावधान करते हुए दर्शाए जाते हैं। प्रांगण में स्थित लगभग ढाई फुट ऊँचे हवन कुंड पर भगवान श्री वामन जी की विग्रह मूर्ति विराजमान की जाती है। इसके बाद पूरा मंदिर परिसर भक्तों द्वारा लाए गए दीपकों से जगमगा उठता है। संध्या के समय जब दीपक प्रज्वलित होते हैं, तो दृश्य ऐसा प्रतीत होता है मानो धरती पर स्वर्ग उतर आया हो। इस अवसर पर मंदिर के पुजारी पूरे दिन निराहार रहते हैं। संध्या काल में पंता पुजारी आचार्य मदन मोहन बेंजवाल पूर्ण विधि-विधान से भगवान वामन जी का पूजन और आरती करते हैं। आरती के पश्चात भक्तगण आतिशबाजी कर दीपोत्सव का शुभारंभ करते हैं। अंत में भक्त और ग्रामवासी मंदिर से प्रसादस्वरूप एक-एक दीप लेकर अपने घर जाते हैं और उन दीपों से अपने आंगन में दिवाली के दीप जलाते हैं। मठाधीश योगेश बेंजवाल ने कहा, “अगस्त्यमुनि में मनाया जाने वाला बलि राज पूजन केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और पौराणिक धरोहर का जीवंत प्रतीक है। यह समाज में दान, त्याग और धर्म की भावना को जीवित रखता है।” वहीं आचार्य भूपेन्द्र बेंजवाल ने बताया कि “भगवान वामन और राजा बलि की कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची भक्ति और विनम्रता से ही अहंकार का अंत संभव है। इस परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखना हमारा परम सौभाग्य है।” अगस्त्यमुनि की यह दिवाली केवल दीपों का उत्सव नहीं, बल्कि आस्था, अध्यात्म और लोक परंपरा का अद्भुत संगम है, जिसने एक बार फिर जनमानस को भक्ति और उल्लास के रंग में रंग दिया।