उत्तरकाशी की हर्षिल घाटी इस बार दीपों की जगमगाहट से नहीं, एक गहरी चुप्पी से भर उठी। धराली और उसके तोक छोलमीगांव में दीपावली की रात किसी त्योहार की तरह नहीं, एक सामूहिक शोक की तरह बीती। जिस घाटी में हर साल इस दिन घर-आंगन दीपों से नहा उठते थे, वहां इस बार अंधेरा अपने पूरे वजूद के साथ मौजूद था। किसी भी घर में दीया नहीं जला — क्योंकि जिन घरों के चिराग बुझ गए, वहां रोशनी जलाना अब किसी के बस की बात नहीं रही।
पाँच अगस्त की वह रात जब धराली पर आसमान से कहर टूटा था — आठ परिवारों के जीवन उसी मलबे में दफन हो गए। गंगोत्री हाईवे कई दिनों तक बंद रहा। सेब की फसल सड़ गई, दुकानों के शटर झुके रहे, और घाटी की रौनक जैसे किसी ने छीन ली। मलबे के नीचे से सिर्फ मिट्टी की गंध आई, जीवन की नहीं। धराली, छोलमी, मुखबा और हर्षिल — सब गांव एक-दूसरे के दुःख में डूब गए। नेपाल से आए कुछ मजदूर भी उसी मलबे में समा गए। कोई शव मिला, कोई नहीं मिला — पर हर परिवार का कोई-न-कोई टुकड़ा उस मलबे में खो गया।
गंगा घाटी के कमल बताते हैं – इस दीपावली धराली के मंदिर में घंटी बजी तो जरूर, पर मन किसी का नहीं झूम उठा।।महिलाओं ने पूजा की, पर आरती के बाद आंसू बह निकले। पुरुषों ने पटाखे नहीं फोड़े, बच्चों ने मिठाई नहीं मांगी — क्योंकि सब जानते थे कि इस बार खुशी मनाना किसी के जख्म पर नमक छिड़कने जैसा होगा। कुछ घरों में केवल एक दीपक देवी-देवताओं के आगे जलाया गया — वह भी आत्माओं की शांति के लिए। पूरे गांव में बस एक ही आवाज़ गूंज रही थी — “भगवान, दोबारा ऐसी आपदा मत देना।”
हर्षिल घाटी, जो आमतौर पर इस मौसम में पर्यटकों और रंग-बिरंगी रोशनियों से भर जाती थी, इस बार सूनसान रही। गंगोत्री की दिशा से आती ठंडी हवा जैसे अपने साथ दुःख का संदेश ला रही थी। मुखबा में माँ गंगा के कपाट खुलने की तैयारियां जरूर हुईं, पर चेहरे की मुस्कान कहीं खो गई थी। हर दीपावली की तरह रंग नहीं बिखरे, सिर्फ यादों की धुंध तैरती रही।जिन्होंने अपने अपनों को खोया है, उन्हें जीने का हौसला और शक्ति भगवान दें। और जो इस आपदा में चले गए, उनके प्रति विनम्र नमन — उनकी आत्मा को शांति प्राप्त हो।
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धराली में नहीं जले दीये: दीपावली के सन्नाटे में गुम आठ घरों की रौशनी
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शीशपाल गुसांई
धराली / उत्तरकाशी
उत्तरकाशी की हर्षिल घाटी इस बार दीपों की जगमगाहट से नहीं, एक गहरी चुप्पी से भर उठी। धराली और उसके तोक छोलमीगांव में दीपावली की रात किसी त्योहार की तरह
नहीं, एक सामूहिक शोक की तरह बीती। जिस घाटी में हर साल इस दिन घर-आंगन दीपों से नहा उठते थे, वहां इस बार अंधेरा अपने पूरे वजूद के साथ मौजूद था। किसी भी घर में
दीया नहीं जला — क्योंकि जिन घरों के चिराग बुझ गए, वहां रोशनी जलाना अब किसी के बस की बात नहीं रही।
पाँच अगस्त की वह रात जब धराली पर आसमान से कहर टूटा था — आठ परिवारों के जीवन उसी मलबे में दफन हो गए। गंगोत्री हाईवे कई दिनों तक बंद रहा। सेब की फसल सड़ गई,
दुकानों के शटर झुके रहे, और घाटी की रौनक जैसे किसी ने छीन ली। मलबे के नीचे से सिर्फ मिट्टी की गंध आई, जीवन की नहीं। धराली, छोलमी, मुखबा और हर्षिल — सब गांव
एक-दूसरे के दुःख में डूब गए। नेपाल से आए कुछ मजदूर भी उसी मलबे में समा गए। कोई शव मिला, कोई नहीं मिला — पर हर परिवार का कोई-न-कोई टुकड़ा उस मलबे में खो गया।
गंगा घाटी के कमल बताते हैं - इस दीपावली धराली के मंदिर में घंटी बजी तो जरूर, पर मन किसी का नहीं झूम उठा।।महिलाओं ने पूजा की, पर आरती के बाद आंसू बह निकले।
पुरुषों ने पटाखे नहीं फोड़े, बच्चों ने मिठाई नहीं मांगी — क्योंकि सब जानते थे कि इस बार खुशी मनाना किसी के जख्म पर नमक छिड़कने जैसा होगा। कुछ घरों में
केवल एक दीपक देवी-देवताओं के आगे जलाया गया — वह भी आत्माओं की शांति के लिए। पूरे गांव में बस एक ही आवाज़ गूंज रही थी — “भगवान, दोबारा ऐसी आपदा मत देना।”
हर्षिल घाटी, जो आमतौर पर इस मौसम में पर्यटकों और रंग-बिरंगी रोशनियों से भर जाती थी, इस बार सूनसान रही। गंगोत्री की दिशा से आती ठंडी हवा जैसे अपने साथ दुःख
का संदेश ला रही थी। मुखबा में माँ गंगा के कपाट खुलने की तैयारियां जरूर हुईं, पर चेहरे की मुस्कान कहीं खो गई थी। हर दीपावली की तरह रंग नहीं बिखरे, सिर्फ
यादों की धुंध तैरती रही।जिन्होंने अपने अपनों को खोया है, उन्हें जीने का हौसला और शक्ति भगवान दें। और जो इस आपदा में चले गए, उनके प्रति विनम्र नमन — उनकी
आत्मा को शांति प्राप्त हो।