माउंटेन होम स्टे फाउंडर विनय के डी का विशेष आलेख गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर होने वाली परेड में इस बार देवभूमि उत्तराखंड की झांकी में सिखों के प्रमुख तीर्थ हेमकुंड साहिब, टिहरी डैम, डोबरा चांठी पुल और

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भगवान बद्रीविशाल के मंदिर की भव्यता एवं दिव्यता को दर्शाया गया । बेशक जो भी दिखाया गया उसकी अपनी अपनी महत्ता है । इसके अलावा उत्तराखण्ड का परिचय देने में कुछ और चींजें भी झांकी में प्रयोग की जा सकती थीं जो उत्तराखण्ड का प्रतिनिधित्व करती हैं । डोबरचांठी पुल का अपना महत्व है, एक ऐसा पुल जो करोड़ों रुपये बनने से पहले की कागजों में खा गया, बेशक उत्तराखण्ड की नायाब धरोहर है । ऐसी ही नायाब धरोहरों के क्रम में.... झांकी के किसी एक कोने में सूर्यधार झील को भी दिखाया जाना चाहिये था । सूर्यधार झील पूर्व मुख्यमंत्री माननीय त्रिवेंद्र सिंह रावत के ड्रीम प्रोजेक्ट्स में से एक है । एक ऐसा प्रोजेक्ट जिससे पर्यटन की दिशा में नये आयाम स्थापित करने की बात की गई थी । जाहिर है इतने बड़े प्रोजेक्ट को नजरअंदाज कर देना माननीय पूर्व मुख्यमंत्री के सपनों का अपमान करना है । ऑलवेदर रोड़ को भी झांकी में दिखाया जाना जरूरी था । ऑलवेदर रोड़ बोले तो माननीय प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट । मोदी जी हैं तो केदारनाथ है, पहाड़ पर रेल है और ऑलवेदर रोड़ है... कुल मिलाकर मोदी जी मतलब "उत्तराखण्ड" । और अब तो चुनावी बयार के चलते उन्होने पहाड़ी टोपी भी पहन ली । ऑलवेदर रोड़ ने विकास की नई कहानी लिखने के साथ साथ विनाश की जो अंतहीन कहानी लिखी है उसको कैसे भूला जा सकता है। ऑलवेदर रोड़ के नाम पर कितने घर तबाह हुये, कितने लोग असमय काल कवलित हुये, जो जख्म उत्तराखण्ड को ये सड़क दे गई है उसकी भरपाई शायद ही कई परिवार कभी कर पायेंगे । इसलिये मेरा मानना है इस रोड़ को झांकी में स्थान न देना मोदी के सपनों के साथ उन सब लोगों का अपमान भी है जिन्होने इस रोड़ के हवन में अपनी आहूति दी । 21 वर्ष में उत्तराखण्ड को नकारा नेताओं और दर्जन भर मुख्यमंत्रियों के अलावा कुछ नहीं मिला है । चुनावी मौसम भी है.. मुझे लगता है इन सबकी तस्वीरें भी लगाई जानी चाहिये थी । झांकी में एक तरफ़ छोटा सा पहाड़ बनाकर उसमें एक पगडण्डी बनाई जानी चाहिये थी जिसमें चारपाई पर एक मरीज को कंधे पर लादे कुछ लोग ले जाते हुये दिखाये जाने चाहिये थे । ये उत्तराखण्ड के लगभग हर पर्वतीय जनपद की एक सी कहानी है ..... पहाड़ी के एक छोर पर एक छोटा सा झूला पुल बनाकर उस पर बच्चे को जन्म देती हुई एक महिला और उसको चादर से घेरे हुये कुछ पहाड़ी महिलायें दिखाईं जा सकतीं थी । ..... दर्द भरे ऐसे दर्जनों किस्से पहाड़ के हर रास्ते पर दफ़न हैं । पहाड़ी पर एक छोटा सा बाजार दिखाया जा सकता था जिसमें एक तरफ़ सर पर घास-लकड़ी के गट्ठर लेकर जंगल से घर आती हुई महिलाओं का झुण्ड दिखाया जा सकता था वहीं दूसरी तरफ़ बाजार में ताश और कैरम खेलती पुरुषों की एक चौकड़ी भी दिखाई जा सकती थी । .... ये हमारे पर्वतीय जनपदों के अधिकांश युवाओं की आलस्य भरी दिनचर्या रह गई है । उन युवाओं की जिनके पूर्वजों ने पहाड़ काटकर कभी सीढ़ीनुमा खेत काटकर पथरीली जमीन का सीना चीरकर अन्न उगाया था..... और भी बहुत कुछ है जो दिखाया जा सकता था... फ़िल्हाल इतना ही । जय उत्तराखण्ड ।