आखिर विकास चुनावी मुद्दा क्यों नहीं! ठगे से रह गये पहाड़ के लोग
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31/01/20227:01 pm
पहाड़ की जनभावनाओं की उपेक्षा कर केवल उनकी भावनाओ से खेलकर चुनाव जीता जाता रहा है। राज्य के लिए पलायन, पर्यावरण, बेरोजगारी, राजधानी जहां सबसे बड़े मुद्दे हो सकते थे वहां ये कभी भी किसी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा पत्र में शामिल ही नही हो पाए है।
9 नवंबर, 2000 को उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण हुआ था तब से लेकर आज तक राज्य निर्माण हुए 21 वर्ष बीत चुके है। यदि इन 21 वर्षों का विश्लेषण किया जाय तो यह समय उत्तराखण्ड की राजनीति में उठापटक भरा रहा है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इन 21 वर्षों में राजनीतिक दलों ने 11 मुख्यमंत्री दिए है जो कि गहन चिता का विषय है। यही कारण है कि उत्तराखण्ड में आज तक विकास कभी भी चुनावी मुददा नही बन पाया है। राजनीतिक दलों में भी आयाराम-गयाराम की परिपाटी सिर चढ़कर बोल रही है यह भी अनुमान लगाना मुश्किल है कि कौन नेता किस दल में/किसके साथ है। चुनाव में एक दूसरे पर दल/व्यक्ति पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर राजनीतिक विशाद बिछाई जाती रही है। पर्यावरण, पलायन, पानी, रोजगार, राजधानी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे कभी भी चुनावी मुद्दे नही बन पाए है। पहाड़ की जनभावनाओं की उपेक्षा कर केवल उनकी भावनाओ से खेलकर चुनाव जीता जाता रहा है। राज्य के लिए पलायन, पर्यावरण, बेरोजगारी, राजधानी जहां सबसे बड़े मुद्दे हो सकते थे वहां ये कभी भी किसी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा पत्र में शामिल ही नही हो पाए है।
हर चुनाव में भाई-भतीजावाद, जातिवाद या व्यक्तिविशेष के नाम से चुनाव लडे जाते रहे है और विजय प्राप्त होने पर 4 वर्ष तक देहरादून और अपनों के विकास में लगाकर 5वें वर्ष शिलान्यास, घोषणाओं के बल पर यहां की भोली-भाली जनता को बरगलाने का काम किया जाता रहा है और इसमें कोई भी दल पीछे नही है।
वर्तमान समय में राजनीति का इतना बुरा हाल है कि जो प्रत्याशी सालभर से जिस दल की राजनीति और टिकट के लिए प्रचार-प्रसार कर रहा होता है चुनाव किसी दूसरे दल से लड़ता है। ऐसे में स्पष्ट हो जाता है कि अब न नीतियों और न ही विचारधारा के बल पर चुनाव लड़ा जाता बल्कि अपना दुखड़ा रोकर जनता का ध्यान मुद्दों से हटाकर केवल हार-जीत तक सिमटा कर रख दिया है। जबकि उत्तराखण्ड के लोगों ने हमेशा राष्ट्रीय दलों पर भरोसा किया है परंतु दुर्भाग्य से क्षेत्रीय मुद्दे हमेशा चुनाव से नदारद रहे है जो कि सीमांत राज्य उत्तराखण्ड के लिए किसी अभिशाप से कम नही है।
अब वक्त आ गया है जब जनता को इस और ध्यान देकर राजनीतिक दलों को विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने के लिए बाध्य करना होगा, अन्यथा हम पलायन, पलायन चिल्लाते रहेंगे और राज्य के गांव लगातार खाली होते रहेंगे।
डॉ दलीप सिंह बिष्ट, असिस्टेंट प्रोफेसर राजनीति विज्ञान
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पहाड़ की जनभावनाओं की उपेक्षा कर केवल उनकी भावनाओ से खेलकर चुनाव जीता जाता रहा है। राज्य के लिए पलायन, पर्यावरण, बेरोजगारी, राजधानी जहां सबसे बड़े मुद्दे
हो सकते थे वहां ये कभी भी किसी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा पत्र में शामिल ही नही हो पाए है।
डॉ दलीप सिंह बिष्ट, असिस्टेंट प्रोफेसर राजनीति विज्ञान
9 नवंबर, 2000 को उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण हुआ था तब से लेकर आज तक राज्य निर्माण हुए 21 वर्ष बीत चुके है। यदि इन 21 वर्षों का विश्लेषण किया जाय तो यह समय
उत्तराखण्ड की राजनीति में उठापटक भरा रहा है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इन 21 वर्षों में राजनीतिक दलों ने 11 मुख्यमंत्री दिए है जो कि गहन चिता
का विषय है। यही कारण है कि उत्तराखण्ड में आज तक विकास कभी भी चुनावी मुददा नही बन पाया है। राजनीतिक दलों में भी आयाराम-गयाराम की परिपाटी सिर चढ़कर बोल रही
है यह भी अनुमान लगाना मुश्किल है कि कौन नेता किस दल में/किसके साथ है। चुनाव में एक दूसरे पर दल/व्यक्ति पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर राजनीतिक विशाद बिछाई जाती
रही है। पर्यावरण, पलायन, पानी, रोजगार, राजधानी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे कभी भी चुनावी मुद्दे नही बन पाए है। पहाड़ की जनभावनाओं की उपेक्षा कर केवल उनकी
भावनाओ से खेलकर चुनाव जीता जाता रहा है। राज्य के लिए पलायन, पर्यावरण, बेरोजगारी, राजधानी जहां सबसे बड़े मुद्दे हो सकते थे वहां ये कभी भी किसी राजनीतिक दल
के चुनावी घोषणा पत्र में शामिल ही नही हो पाए है।
हर चुनाव में भाई-भतीजावाद, जातिवाद या व्यक्तिविशेष के नाम से चुनाव लडे जाते रहे है और विजय प्राप्त होने पर 4 वर्ष तक देहरादून और अपनों के विकास में लगाकर
5वें वर्ष शिलान्यास, घोषणाओं के बल पर यहां की भोली-भाली जनता को बरगलाने का काम किया जाता रहा है और इसमें कोई भी दल पीछे नही है।
वर्तमान समय में राजनीति का इतना बुरा हाल है कि जो प्रत्याशी सालभर से जिस दल की राजनीति और टिकट के लिए प्रचार-प्रसार कर रहा होता है चुनाव किसी दूसरे दल से
लड़ता है। ऐसे में स्पष्ट हो जाता है कि अब न नीतियों और न ही विचारधारा के बल पर चुनाव लड़ा जाता बल्कि अपना दुखड़ा रोकर जनता का ध्यान मुद्दों से हटाकर केवल
हार-जीत तक सिमटा कर रख दिया है। जबकि उत्तराखण्ड के लोगों ने हमेशा राष्ट्रीय दलों पर भरोसा किया है परंतु दुर्भाग्य से क्षेत्रीय मुद्दे हमेशा चुनाव से
नदारद रहे है जो कि सीमांत राज्य उत्तराखण्ड के लिए किसी अभिशाप से कम नही है।
अब वक्त आ गया है जब जनता को इस और ध्यान देकर राजनीतिक दलों को विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने के लिए बाध्य करना होगा, अन्यथा हम पलायन, पलायन चिल्लाते रहेंगे
और राज्य के गांव लगातार खाली होते रहेंगे।
डॉ दलीप सिंह बिष्ट, असिस्टेंट प्रोफेसर राजनीति विज्ञान