दादी कुब्जा देवी पंवार, अनुमानतः पिचहतर के बीच, मूलत: गिरिया गाँव(उत्तराखण्ड) में ‘पदान’ परिवार से इनका संबंध है।
गिरिया गाँव ,प्राकृतिक सुंदरता बिखेरता एक आदर्श गाँव प्रतीत होता है। गिरिया गाँव से जितना सुंदर प्रेक्षण चौखम्भा पर्वत का होता है उतना ही दु:ख गाँव के किनारे पर स्थित आधे भग्नावशेष ‘पदान’ घर को देखकर होता है। मैं अचरज सा था – भग्नावशेष को देखकर। इस घर पर बनी गढ़वाळि शैली की काष्ठ कलाकृति खोळी ने मुझे इतने आकर्षण के साथ आमंत्रित किया,जाने कोई वर्षों से किसी का इंतजार कर रहा हो या यूँ कह दूँ कि कोई कंठ ,कोयल- सा स्वर ढूँढ रहा हो। मद्यमहेश्वर देवरा के समय मनसूना और गिरिया गाँव में इन घरों ने मुझे खासा आकर्षित किया।इन घरों पर गढ़वाळ के इस क्षेत्र में काष्ठ कला के उदाहरण का प्रतिबिंब शायद ही कहीं और देखने को मिलें।दादी जी बताती हैं कि उन दिनों खोळी पर बने श्री गणेश पर चाँदी का मुकुट लगाया गया था जो ‘पदान’ घर को गाँव में एक विशिष्ट पहचान दिलाता था।वे कहती हैं कि पूरे घर पर मिस्त्री द्वारा सिर्फ एक छेनी (नियाण) और एक ही हथौड़े ~(बाले)से नक़्क़ाशी की गयी है, जो कि मिस्त्री के धैर्य का परिचय देता है। बुरांस,चमखड़ीक,तुन(त्वौऽण), हिलांस (ह्लिळसू), कंगाया (कंगार)आदि जैसे वृक्षों से प्राप्त लकड़ियों का प्रयोग इस काष्ठ कला के प्रयोग हेतु किया जाता है। यदि मैं इस खोली का परिचय करूँ तो खोळी पर सुंदर नक़्क़ाशीदार दरवाजे दृष्टिगोचर होते हैं।दरवाजे खुलते ही सीढ़ीयां हैं जो कि दुपर/बौंऽड तक जाते होंगे।और खोळी के ठीक ऊपर गणेश भगवान की काष्ठ पर निर्मित मूर्ति स्थापित है। नक़्क़ाशे गये गणेश भगवान की मूर्ति के दोनों तरफ दो-दो हाथीमुख काष्ठ पर उत्कीर्ण /तरासे गये हैं और इनके बीच सुंदर मछलीनुमा आकृति उत्कीर्ण है। यह घर/भवन दो खण्डों में विभाजित है अर्थात् दुपर भवन है।खोळी के दरवाजे पर शानदार आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। दरवाजा तीन आयताकार खम्भों से जुड़कर बना हुआ प्रतीत होता है।खोळी के गणेश के ठीक नीचे और दरवाजे के ऊपरी भाग के केन्द्र पर एक सुंदर वर्गाकार आकृति ,उसके मध्य में एक पुष्प उत्कीर्ण हुआ दृष्टिगोचर है। दरवाजे के प्रत्येक खम्भों पर अलग-अलग महीम सर्पिलाकार अथवा रस्सी के आकार की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। दरवाजे के ऊपर एक आयताकार पटल बना है जिस पर एक अर्द्धचँद्राकार डिजाइन उकेरा गया है जिसके अंदर डोली के आकर में बने प्रवेश पर गणेश उत्कीर्ण हैं।इस काष्ठ पटल पर गणेश मूर्तिनुमा आकृति के दोनों तरफ सुंदर पुष्प बने हैं और इन्हीं के ऊपर दोनों तरफ एक-एक पात् उत्कीर्ण हैं।यह अर्द्धचँद्राकार आकृति भी अन्य छोटी-छोटी आकृतियों से उत्कीर्ण है। सम्पूर्ण आयताकार काष्ठ पटल; पात् आकृतियों से भरित अथवा शोभायमान है।खोळी-गणेश पटल के ठीक ऊपर एक षट्कोणीय समानाकृतिक तोरण लटका हुआ दृष्टिगोचर है। सम्पूर्ण खोळी के मुख्य मध्य भाग से दोनों समदिशाओं में आधी दिवार के ऊपर नक़्क़ाशीदार पटल लगे हैं,जो कि खोळी को बड़ा आकार देने में सहायता कर रहे हैं।इस नक़्क़ाशीदार पटल के दायें-बायें भी समान आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।इस पर ऊपर हाथी की छत्रछाया युक्त नक़्क़ाशीदार काष्ठ है उसके पश्चात् हाथीमुख उकेरे गये हैं,फिर बत्तखनुमा आकृति और नीचे सपाट प्रतीत होता हुआ बत्तख और उससे जुड़ी उत्कीर्ण आकृति।पूरी खोळी पर ऊपरी-ऊपर तख्तनुमा एक काष्ठ पटल है; जिस पर कुछ छोटे-छोटे बेलनाकार तोरण लटके हुए हैं।
खोळी के बांयी तरफ का हिस्सा भग्नावशेष में परिवर्तित हो चुका है।इस ‘पदान’ घर के बीच का हिस्सा,जो कि सम्भवतः इस घर का प्रवेश द्वार रहा होगा,पूर्णरूपेण नक़्क़ाशीदार खोळी निर्मित है जिसका दाहिना खण्ड अभी जीवित है।इस दुपर/दुखण्ड भवन के दाहिनी तरफ ऊपरी खण्ड में शानदार चार स्तम्भों वाली तिबारी व छज्जा/डंड्याळी बनी हुई है जो कि समानाकृतिक और सम-ज्यामितीय है, तिबारी से जुड़े दुपर/दुखण्ड के दरवाजों पर सामान्य काष्ठ कला दृष्टिगोचर है।इस दुखण्ड भवन का नीचला खण्ड/वबरा पर खुला प्रवेश द्वार है जिसकी ऊँचाई कुछ कम है।यह भी ज्यामितीय काष्ठकला युक्त है और आंतरिक भाग मिट्टी से लिपा-पुत्ता गया है। दुपर/बौंऽड में तिबारी के अग्रभाग में पठाल लगी है जिसे छाज/छज्जा कहा जाता है।तिबारी और छज्जे से मिलकर डंड्याळी बनती है।भवन का छत् पूर्ण रूप से पठाल निर्मित है और भवन पर अच्छी बनावट से तरासे पत्थरों से चिनाई की गयी है।भवन के अग्रभाग में शानदार खौऽळा/चौक बना है जो कि पठाल निर्मित है।
दादी जी एक गढ़वाळि उक्ति को संदर्भित् करते हुए कहती हैं- “बसिती बल भल्ली अर नसिदी बुरी” अर्थात् जहाँ पर बस्ती आबाद है वहाँ हर कोई आता-जाता है परन्तु जहाँ कोई बसासत नहीं है या उस जगह को छोड़ चुका है वहाँ कौन जायेगा?वहाँ रहने की नसीहत भी बुरी ही होगी।और यहाँ से ‘पलायन’ जैसे शब्दों का जन्म होता है।
रस्किन बाॅंड अपनी ‘ये साधारण चीजें ‘ कविता में लिखते हैं –
जीवन में सरलतम चीजें सर्वोत्तम हैं-
स्वाद,रोटी का
गीत वृद्धों के,
वाकई सत्य है। दादी जी की बातों की रसिकता,आह!इस बात की प्रमाणिकता है। सचमुच,वह इतनी सादगी और सरलता से बातों को प्रस्तुत कर रही थी जैसे सरल होता है गीत भंवर का।दादी जी ने अश्रुपूरित आँखों से चंद समय में अपने ‘पदान’ भवन का परिचय कराया।मुझे महसूस हुआ कि उनकी यादों में हमारे द्वारा आग में घी डालने जैसा काम किया गया।वह चाय के लिए आमंत्रित करती हैं और फिर बातों के सागर में स्थित नाव पर हमें बैठाकर शुरू हो जाती हैं।उनकी धाराप्रवाह बातों को सुनकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे पिछली ही निशा को यह सब घटित हुआ हो।बिंदुवार हर विषय पर चर्चा हुई।ऐसा कहा जाता है कि दु:ख बाँटने से कम होता है; शायद इसी उद्देश्य से दादी जी बातों को एक माला रूपी धागे में पिरोकर हमारे समक्ष व्यक्त कर पा रही थी।
बातों के सिलसिले में उन्होंने गौण्डार गाँव के ‘पदान’ लोगों से अपनी रिश्तेदारी और कयी वाकये साझा किये।वे बताती हैं कि गौण्डार के(रामदाना) मरछे की रोटी में जो मीठापन है वह कहीं और नहीं,वह शक्कर की संज्ञा देती हैं।उनके इस निष्कलुष व्यक्तित्व ने समूचा हृदय प्रभावित किया।वे पचास-साठ वर्ष पूर्व की अपनी स्मृतियों को अपनी अंतर्निरूद्ध पुरानी बातों के माध्यम से बंया करती, इस शानदार भवन से अपनी स्मृतियों को जोड़ती और एक कभी खत्म न होने वाले वातावरण का आवाह्न करती।