पहाड़ों में पलायन के बावजूद फूलदेई त्योहार की रंगत नहीं हुई फीकी

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✍️सतीश गैरोला, कर्णप्रयाग )-


  • प्रेम और त्याग की भावना के प्रतीक है फूलदेई पर्व
  • पहाड़ों में पलायन के बावजूद फूलदेई त्योहार की रंगत नहीं हुई फीकी।
  • केदारघाटी में आठ दिनों तक मनाया जाता है यह त्योहार।
  • समुद्र तल से करीब 750 से 1200 मीटर की ऊंचाई पर पाये जाते हैं फ्यूंली के फूल।
  • औषधीय पौधे के रूप में भी जाना जाता है फ्यूंली का पौधा।

गढ़वाल हिमालयी क्षेत्र में मनाये जाने वाले फूलदेई अर्थात फूल सक्रांति पर्व के लिए इन दिनों फ्यूंली के फूलों ने खेतों की मेंडों पर रंगत बिखेरी है। गांवों के पास की पहाड़ी और खेत फ्यूूंली के फूलों से लकदक हैं। फूलदेई को आत्मीयता और खुशहाली का पर्व भी कहा जाता है। चैत का महीना शुरू होते ही पहाड़ी क्षेत्रों में मेलों और त्याहारों की रौनक बिखरने लगती है।

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सदियों से परंपरागत रूप में मनाया जाने वाला फूलदेई का त्योहार आज भी उत्तराखंड के लोगों की आत्मा में बसा है। बच्चों के दादा-दादी और माता-पिता आज भी घर के आंगन में बैठकर फूलों को बीनने वाली टोकरियों को लाल और सफेद मिट्टी का तिलक लगाकर सजाते हैं। शाम को स्कूल से आने के बाद बच्चे खेत खलिहानों और छोटी-छोटी पहाड़ियों पर उगे फ्यूंली, सिलपाटी, बुरांस, आडू, सेब, खुमानी, पोलम, मेलू के फूल बीनकर लाते हैं। फूलदेई अर्थात फूल सक्रांति की प्रातः बेला रंग बिरंगे फूलों से भरी टोकरी को जब बच्चे…फुल-फुल माई दाल चावल दे…गीत गाकर घरों की चौखट पर जाकर फूल बिखेरते हैं तो घरों में रौनक छा जाती है। घरों के बुजुर्ग बच्चों को सम्मान सहित उपहार स्वरूप दाल, चावल, गुड़, मिठाई देते हैं। कुछ दिन बाद बच्चे घोघा माता की बड़ी पूजा करते हैं और फूलदेई पर्व पर एकत्र हुए चावल, दाल और भेंट राशि से सामूहिक भोज पकाया जाता है। इसका प्रथम भोग गांव के आराध्य देवी-देवताओं को दिया जाताहै। फिर गांव में प्रसाद वितरित करते हैं।

प्रेम और त्याग की भावना के प्रतीक माने जाते फ्यूंली का फूल…

लोक मान्यता है कि फ्यूंली एक सुदर कन्या थी। उसका परिवार गरीब था। सदियों पहले एक राजकुमार जंगल में शिकार खेलने के लिए गये। इस दौरान उनको जंगल में रात पड़ गई और वे पास के एक गांव में चले गये। जब उन्होंने वहां फ्यूंली रूपी कन्या को देखा तो वे मंत्रमुग्ध हो गये और उन्होंने फ्यूंली के माता-पिता के सामने उनकी कन्या से शादी का प्रस्ताव रखा। कन्या के माता-पिता मान गये और कुछ समय बाद उन्होंने अपनी बेटी फ्यूंली की शादी राजकुमार से कर दी। लेकिन प्रकृति के साथ पली-बढ़ी फ्यूंली को राजमहल की चकाचौंध फीकी दिखी और वह अपने मायके आ गई। उसके बाद धीरे-धीरे फ्यूली कमजोर होने लगी और मरणासन अवस्था में जा पहुंची। इस पर राजकुमार को फ्यूंली के स्वास्थ्य की चिंता होने लगी। बाद में राजकुमार ने गांव आकर फ्यूंली से उसकी अंतिम इच्छा पूछी तो फ्यूंली ने कहा कि उसके मरने के बाद उसे गांव की किसी मुंडेर की मिट्टी में समाहित कर देना। इच्छा का सम्मान करते हुए फ्यूंली को उसके मायके के पास दफना दिया जाता है, जिस स्थान पर कुछ दिनों बाद पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है। इस फूल को फ्यूंली नाम दे दिया जाता है और उसकी याद में पहाड़ में फूलों का त्यौहार मनाया जाता है।

पलायन के बावजूद फूलदेई त्योहार की रंगत नहीं हुई फीकी—

पहाड़ी क्षेत्रों में पलायन के बावजूद फूलदेई त्योहार की रौनक पूरे शबाब पर है। ताले लगे बंद घरों में बच्चे आज इस उम्मीद के साथ फूल बिखेरते हैं कि फिर से बंजर घरों में रौनक लौटे। आंगन फिर से बच्चों की किलकारियों से गूंजे और धनधान्य व आत्मीयता बढ़े।

केदारघाटी में आठ दिनों तक मनाया जाता है यह त्योहार रूद्रप्रयाग के केदार घाटी में यह त्योहार आठ दिनों तक मनाया जाता है। यहां के बच्चे फूलों की डोली को सजाकर गांवों में घूमते हैं। फूल से सजी इन डा‌लियों को ससुराल से मायके आई ध्याण माना जाता है। इस डोली को गांव भ्रमण के दौरान मिली भेंट को बेटी के लिए दी गई समौण माना जाता है।

 

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