सर्वेश्वर दत्त काण्डपाल (कविराज) की पुण्यतिथि (27 अगस्त- 2011) पर विशेष-
– अनसूया प्रसाद मलासी / अगस्त्यमुनि
समौंण की शुरूआत- ‘वन्दना’ – आद्या शक्ति स्वरूपिणी गढ़वती, गौरी गिरा पावनी। / समलंकार स्वरूप रूप अखिला, श्वेतासिता वासिनी।। … के बाद, ‘बीरौ ओलाणु’- ऐरि गरीबि हे दीन मलीनता, कति बड़ा होंदा हाथ गरीबिका। लम्बु च जीवन बांध्युं अंग्वाळ्यों मा, वनि वा क्यौडि़ जगौंदि मुछ्याळ्यों मां।। और अंतिम पद- ‘कविता’ – मनवा जगमा सभि भूलि जैई,पर याद रखी तु न भूलि बोई। दुःख मां जैन छाति कि छाया करे।कभि खैक निखै-सब त्वेक रखे…।यह पंक्तियां ‘कविराज’ उपनाम से प्रसिद्ध सर्वेश्वर दत्त काण्डपाल द्वारा लिखित “समौंण” पुस्तक से उद्घृत की गई हैं। 70 के दशक में पहाड़ के हर गांव और हर जुबान पर स्व. काण्डपाल द्वारा रचित प्रसिद्ध खंडकाव्य समौंण के गीत हर जुबान पर थी। अध्यापक होने के साथ-साथ कांडपाल जी गढ़वाली भाषा के संरक्षण-संवर्धन, रामलीला, नाटक, गीतकार के रूप में भी उन्होंने प्रसिद्धि पाई।
समौंण खंडकाव्य का नायक बीरु सेना में भर्ती होने के लिए जाता है। घर में उसकी माँ, पत्नी बीरा और छोटी सी बेटी सरला रह जाते हैं। दुर्भाग्यवश, लड़ाई में बीरू गुम हो जाता है। जब यह सूचना उनके घर पहुंचती है तो बीरू की माँ बिस्तर पकड़ लेती है और प्राण त्याग देती है।
कुछ समय बाद बीरा भी पति के बिछोह में जीवन से जंग हार जाती है और पीछे छोड़ जाती है, नन्हीं सरला को। वह उसे गाँव की चाची की गोद में सौंप देती है। सरला जब कुछ बड़ी होती है तो उसका जीवन जंगलों में घास के लिए, लकड़ी लाने के लिए, गाय चराने, खेतों में काम करने में बीतता है।
समय ने करवट ली और एक लंबे समय के बाद बीरू दुश्मनों की कैद से मुक्त हो जाता है। जब वह घर पहुंचता है तो घर के हालात देखकर वह फूट-फूट कर रोता है। अपनी जवान बेटी को गले लगाता है और बाद में वह धूमधाम से अपनी बेटी की शादी कर लेता है। यह खंडकाव्य इतना मार्मिक है कि जो भी इसको शुरू से अंतिम तक पढ़ता है, वह भावुक होकर हुलस-हुलस कर रो जाता है।
10 दिसंबर 1937 को सर्वेश्वर दत्त काण्डपाल जी का जन्म कांडई (दशज्यूला पट्टी) में हुआ था। उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए 1200 से भी अधिक कविता, गीत, नाटक, यात्रा-वृतांत और सामूहिक रिपोर्ट का लेखन किया। वे लोक साहित्य समीक्षक, लेख एवं कहानियां प्रकाशित और साहित्यिक गतिविधियों में विशेष रूप से सक्रियता से भाग लेते थे।
वर्ष 2011 में हिमवंत कवि चंद्र कुँवर बर्त्वाल स्मृति संमिति द्वारा कवि की स्मृति में दिये जाने वाले सम्मान के लिए उन्हें चुना गया। राजकीय इंटर कॉलेज अगस्त्यमुनि में यह ‘सम्मान समारोह’ होना था। काण्डपाल जी उस समय अपने गांव में थे। उस समय अधिक वर्षा होने के कारण सड़कें टूट गई थी। उनका आना नामुमकिन लग रहा था, मगर वह अपने गांव से घिमतोली, चोपता, बाबई होकर पैदल ही अगस्त्यमुनि पहुंचे। यह उनकी जुबान की वैल्यू और साहित्यिक गोष्ठियों में अभिरुचि को दर्शाता है। दुर्भाग्यवश, बारिश में भीगने और कई किलोमीटर पैदल चलने के कारण वे बीमार पड़ गये। उनके परिवारजन उन्हें अस्पताल ले गये,मगर डॉक्टरों के प्रयासों के बावजूद 27 अगस्त 2011 को 74 वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हो गया। भले ही कांडपाल जी आज हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनकी अमर कृति ‘समौंण अर् बुझौंण’ (गढ़वाली काव्य संग्रह) उन्हें अमरत्व प्रदान कर गया है।
समौंण अर् बुझौंण के नाम एक अनोखा रिकॉर्ड भी है। यह गढ़वाली भाषा की वह सबसे लोकप्रिय रचना है जिसे इसके मूल लेखक ने नही छापा, जिसने इसे सुना, उसके कंठ में यह समा गई। एक पीढ़ी के लिए तो यह अपना जीवन जैसी थी। कोई भावुक हुआ तो कोई इतना प्रशंसक बन गया कि इसे छपवाने का सारा खर्च वहन कर दिया और ऐसा एक या दो बार नही बल्कि सात बार हुआ जब इसे प्रशंसकों ने निशुल्क छपवाकर बांटा। अंदाजा लगाईऐ आज किताब छापने के लिए लेखक और कवि को भारी आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है वही समौंण अर् बुझौंण को लोगो ने खुद छपवाकर बांटा।