हरीश गुसाईं- वरिष्ठ सम्पादक
केदारनाथ विधान सभा सीट पर कांग्रेस का तीसरे स्थान पर खिसकना किसी बुरे सपने की तरह है। ऐसी स्थिति कांग्रेस की कभी नहीं रही थी। अभी तक हुए चारों चुनावों में दो बार कांग्रेस जीती तथा दो बार उसे हार का मुह देखना पड़ा परन्तु फिर भी दूसरे स्थान पर रही। परन्तु इस बार कांग्रेस निर्दलीय प्रत्याशी से भी पीछे रह गई। वह भी तब जब कि कांग्रेस 2017 का चुनाव में विजयी रही थी। इस सीट पर कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण कमजोर संगठन एवं विधायक की संवादहीनता रही है। 2016 में तत्कालीन कांग्रेस विधायक शैलारानी रावत बगावत कर भाजपा में शामिल हो गई थी। 2017 के चुनाव में भाजपा ने शैलारानी रावत को अपना प्रत्याशी बनाया तो कांग्रेस ने कई दावेदारों दरकिनार करते हुए पत्रकार मनोज रावत पर भरोसा जताया। उस चुनाव में भाजपा से दो बार की विधायक रही आशा नौटियाल, शैलारानी रावत को टिकट दिए जाने से नाराज होकर निर्दलीय चुनाव लड़ी। भाजपा की इस फूट का पूरा फायदा कांग्रेस के मनोज रावत को मिला। और वे कम वोट लाकर भी चुनाव जीत गये। अचानक से पत्रकारिता को छोड़कर राजनीति में आना और विधायक बनना उन्हें केवल राजनैतिक पर्यटन लगा। शुरूवाती दौर में तो वे मंचों से ही यह कहते सुने गये कि वे कभी भी विधायकी छोड़ सकते हैं। जैसे उन्होंने पत्रकारिता छोड़ी। शायद इसीलिए वे न तो जनता से पूरी तरह जुड़ पाये और नहीं कांग्रेस कार्यकर्ताओं से। यहां तक पत्रकार होते हुए भी उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में स्थानीय पत्रकारों से दूरी बनाये रखी। भले ही मनोज रावत विधान सभा में सबसे अधिक प्रश्न पूछने वाले विधायक रहे हों परन्तु क्षेत्र में उनकी सक्रियता कम ही दिखी। यहां तक कि पहली बड़ी प्रेस वार्ता चुनाव से दस दिन पूर्व ही हो पाई। पूरे तीन वर्ष उनपर विधायक निधि खर्च न करने का आरोप लगे परन्तु वे उसका जबाब जनवरी 2022 में अपनी पहली और आखिरी प्रेस वार्ता में ही दे पाये। यही संवाद हीनता उन्हें इस चुनाव में भारी पड़ी। चुनाव से छः माह पूर्व उन्होंन सक्रियता दिखाते हुए अपनी विधायक निधि से ग्राम लाइब्रेरी, शहीद सैनिकों की मूर्तियां तथा मांगल एवं खुदेड़ गीतों की प्रतियोगिता जैसी लुभावनी योजनायें लाये परन्तु समय की कमी के कारण उसका प्रचार प्रसार नहीं कर पाये। चुनावों में पुराने कार्यकर्ताओं को सक्रिय न कर पाना भी कमजोर रणनीतिक भूल रही। जबकि इस बार उनके सामने कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं थी। चुनाव परिणाम से साफ दिखता है कि जिस क्षेत्र से पिछली बार वे बढ़त बनाये हुए थे वहां से इस बार आधे से भी कम वोट ला पाये। यहां तक कि अपने गांव के क्षेत्र में ही वे पकड़ नहीं बना पाये। अपने गांव के बूथ के आस पास के केवल दो तीन बूथों पर ही वे बढ़त बना पाये। पूरी क्यूंजा घाटी के 18 बूथों पर वे भाजपा से 100 वोटों से पिछड़ गये। वहीं कांग्रेस को कमजोर संगठन का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। चुनाव से केवल छः माह पूर्व ही संगठन हलचल में आया। विगत पांच वर्षों में विधायक ने न तो संगठन को पुनर्जीवित किया न ही अपनी ओर से अपने लोगों का संगठन खडा़ करने की कोशिश की। कांग्रेस केवल इस बात से गदगद थी कि मीडिया में जनता की नाराजगी तथा कांग्रेस की सरकार बनने की सम्भावना जताई जा रही थी। धरातल पर जनता की नाराजगी का भुनाने की कोशिश ही नहीं की गई। नाराज कार्यकर्ताओं को भी मनाने की कोई कोशिश कभी नहीं हुई। वहीं भाजपा की एकजुटता, कार्यकर्ताओं का संघर्ष तथा शीर्ष नेताओं की जनसभायें एवं वर्चुवल सम्बोधन ने कांग्रेस के किले में ऐसी कील ठोकी कि इस हार से उबरना कांग्रेस के लिए काफी मुश्किल होगा।